कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह अभी कुछ बरस पहले अकल्पनीय था कि उदार और सम्यक दृष्टि और शक्तियां इतनी तेज़ी से हाशिये पर चली जाएंगी. यह क्यों-कैसे हुआ यह अलग से विचार की मांग करता है. इसके बावजूद अगर उम्मीद बची हुई है तो वह ज़्यादातर साहित्य और कलाओं जैसे सर्जनात्मक-बौद्धिक क्षेत्रों में ही.
सारे निजी और सामाजिक निराश आकलनों और व्यापक दुनिया में उम्मीद के बहुत कम लक्षणों के बावजूद, हम उम्मीद का दामन थामे रहते हैं. नाउम्मीदी क़यामत बरपा कर रही है और हमें संभलने तक नहीं दे रही पर हम उम्मीद बनाए हुए हैं. इसके कारणों में जाने की ज़रूरत नहीं है. फिलमुक़ाम यही समझना काफ़ी है कि हम साहित्य के लोग हैं, मनुष्य हैं और लोकतंत्र के नागरिक हैं और ये तीनों पहचानें हमें उम्मीद से हिलगाए रखती हैं.
हाल ही में लंदन में एक अपरिचित जमैकन कवयित्री सेलीना गोड्डेन का कविता संग्रह ‘पैसिमिज़्म इज़ फॉर लाइटवेट्स’ हाथ आया. उसमें साहस और प्रतिरोध को लेकर 30 रचनाएं संग्रहीत हैं. शीर्षक ही कह रहा है कि ‘निराशावाद है कमवज़नियों के लिए’. कुछ कविताओं के शीर्षक और पंक्तियां भी कुछ सूक्तिपूरक और कविताओं की प्रकृति व्यंजित करते हैं: ‘उम्मीद एक सामूहिक प्रोजेक्ट है’, ‘साहस एक मांसपेशी है’, ‘प्रेम उत्तर है’, ‘प्रेम जानता है कि हमें बहुत सारा करना है’.
इस समय बाज़ार-टेक्नोलॉजी-मीडिया के गठबंधन ने हर राजनीतिक व्यवस्था को विकृत कर रखा है. उसमें व्यक्तियों और समाजों दोनों का भयावह और तेज़ अवमूल्यन हो रहा है. संसारभर में एक बार फिर झूठ-घृणा-हिंसा-अन्याय की शक्तियां सत्ता हथिया रही हैं. हर दूसरे-तीसरे संसार के किसी कोने से ख़बर आती है कि वहां किसी देश में चुनाव के बाद परम दक्षिणपंथी शक्तियां सत्ता में आ गई हैं. यह अभी कुछ बरस पहले अकल्पनीय था कि उदार और सम्यक दृष्टि और शक्तियां इतनी तेज़ी से हाशिये पर चली जाएंगी.
यह क्यों-कैसे हुआ यह अलग से विचार की मांग करता है. इसके बावजूद अगर उम्मीद बची हुई है तो वह ज़्यादातर साहित्य और कलाओं जैसे सर्जनात्मक-बौद्धिक क्षेत्रों में ही. स्वयं एक समय में अपराजेय लगती उदार दृष्टि पहले-पहले इन्हीं क्षेत्रों में रूपायित हुई थी और उन्हीं से व्यापक समाजों में फैली थी. इसलिए अगर आज उम्मीद बनाए-जिलाए रखने का नैतिक कर्तव्य साहित्य और कलाएं निभा रही हैं तो इसलिए कि उम्मीद उनके स्वभाव में है. आज भर नहीं, सदियों से.
बहरहाल, सेलीना की पहली कविता है: ‘स्वागत, उम्मीद’.
यह रहा तुम्हारा नक़्शा, वह कहती है
यही है जहां तुम हमेशा से रह रहे हो
यहां देखो, उजली ज़िंदगी के पहाड़
पुस्तकों की एक नाव बनाओ, उन्हें सब पढ़ डालो
इस विशाल स्वप्न-नदी में तिरो
अचरज के जंगलों के बीच से
देखो वृक्ष कैसे हमेशा अच्छे बढ़ते हैं
आकाश कैसे अपने को थामे है
प्रकृति कितनी बातूनी है अपनी बाग़वानी में
तुम्हारी आत्मा तुम्हारा कुतुबनुमा है
सरहद पर नहीं है दयालुता
चिन्ता शहर नहीं है
लेकिन बदलाव हवा में है
और मौसम तूफ़ानी है
घर एक भावना है
और अभी है जहां हम हैं
वह मुझे टहोका देकर जगाती है
स्वागत, उम्मीद
वह गाती है स्वागत, उम्मीद
उठो, उठो, उठो
उम्मीद यहां है और प्रेम जानता है
हमें बहुत सारा करना है.
सचाई क्या है?
जब हम अपार झूठों, झांसों और जुमलों से घिरे हों और जिन्हें गोदी मीडिया पूरी बेशर्मी से दिन-राज फैला रहा हो तो यह जानने की बेचैनी होती है कि सचाई क्या है? सचाई जान सकने के साधन तो समक्ष हो और बढ़ गए हैं पर उन्हीं का उपयोग सचाई को ढांकने-छुपाने के लिए तत्परता से किया जा रहा है.
झूठ इतने व्याप गए हैं कि हमें उन्हें लाचार होकर कई बार सच मानने लगते हैं. इस भयावह स्थिति में सच की जगह कहां है यह जानना तक मुश्किल हो रहा है. कौन हैं वे माध्यम, जगहें और लोग जिनके यहां सच ने शरण ली है? झूठों द्वारा लगातार आक्रांत सच जहां फिर भी अक्षत या घायल, धूमिल या ज्वलंत बचा है?
इस सिलसिले में फ्रेंच कथाकार जार्ज पेरेक के कुछ निबंधों की एक पुस्तक (अंग्रेज़ी अनुवाद में) ‘ब्रीफ़ नोट्स ऑन द आर्ट एंड मैनर ऑफ एरेंज़िग वंस बुक्स’ (अपनी पुस्तकों को व्यवस्थित करने की कला और विधि पर संक्षिप्त टिप्पणियां) में संकलित एक निबंध पर ध्यान गया.
पेरेक कहते हैं कि हम सारे समय असाधारण, अप्रत्याशित, दुर्घट से इतने आक्रांत रहते हैं कि हम अपने दैनंदिन जीवन, उसकी सामाजिक क्रियाओं, अपने आसपास की आम चीज़ों पर कभी ध्यान ही नहीं देते. यहां तक कि जो रोज़-रोज़ घटता रहता है और बार-बार घटता रहता है उसे हम हिसाब में ही नहीं लेते. जो बिल्कुल ज़ाहिर है वही हमारे ध्यान से छूटा रहता है. यह क्या विचित्र नहीं है कि जो साधारण है, जो हम आदतन करते रहते हैं, जो हमारे जीने का इतना बड़ा हिस्सा है वह हमारी रचना से बाहर रहा आता है. दिनचर्या का बहुत कम रचनाचर्या बन पाता. इस पर विचार करें तो लगेगा कि हम अपनी असली ज़िंदगी का बहुत कम अपनी रचना में ला पाते हैं. आमजन का बहुत ज़िक्र होता है लेकिन आम ज़िंदगी का बहुत कम हमारे साहित्य में आ पाया है.
तर्क शायद यह बनेगा कि जो बार-बार दैनिक रूप से होता रहता है, साधारण है वह रुचि कर नहीं होता और उसे लिखने-पढ़ने से ऊब होती है. ऊब का यह तर्क कुछ अजीब है. बहुत सारी जटिलताओं से भी ऊब होती रहती है पर क्या हम उन्हें रचना में जगह नहीं देते? कई पाठक ऊबते होंगे पर इस आशंका से हम उन्हें अपने परिवार से निकाल तो नहीं देते? यह क्या बात हुई कि हम जटिल तो जगह दें और साधारण को छोड़ दें या निकाल दें.
पेरेक का प्रस्ताव है कि हमें अपना एक नृतत्व विकसित करना चाहिए. उनके अनुसार हमें मौलिक विस्मय को फिर से लाना चाहिए. हमें ‘ईंटों, कांक्रीट, कांच, अपने बर्तनों, मेज़, उपकरणों से हम कैसे समय बिताते हैं इस बारे में, अपनी लयों को लेकर प्रश्न करना चाहिए. इमें प्रश्न करना चाहिए उस सबके बारे में जिसने हमें हमेशा के लिए विस्मित करना बंद कर दिया. हम जीते हैं, सच है, हम सांस लेते हैं, सच है, हम चलते हैं, दरवाज़ा खोलते हैं, हम सीढ़ियों से नीचे उतरते हैं, हम मेज़ पर खाने के लिए बैठते हैं, हम सो सकें इसके लिए हम बिस्तर पर लेटते हैं. कैसे? कहां? कब? क्यों?’
जो अलक्षित है, जो प्रश्नांकन से बाहर है उसे लक्षित और प्रश्नांकित के घेरे में लाना ही तो साहित्य है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)