सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा तैयार प्रसारण सेवा (विनियमन) विधेयक, 2023 या प्रसारण विधेयक को सेंसरशिप चार्टर के बतौर देखा जा सकता है, जहां ‘केंद्र सरकार’ स्वतंत्र समाचारों को सेंसर बोर्ड जैसे दायरे में घसीटना चाहती है.
साल ख़त्म होने को है और हर साल की तरह इस बार जब ‘साल की बेहतरीन सुर्खियों’ को चुना जाए, तो मोदी सरकार के ताज़ा सेंसरशिप अभियान को लेकर इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन की ‘ब्रॉडकास्ट सर्विसेज़ बिल नॉट लुकिंग लाइक ए वॉओ’ शीर्षक वाली रिपोर्ट को जगह ज़रूर मिलनी चाहिए.
सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा तैयार प्रसारण सेवा (विनियमन) विधेयक, 2023 (प्रसारण विधेयक) को सेंसरशिप चार्टर के बतौर देखा जा सकता है. 11 नवंबर को सार्वजनिक राय के लिए खोला गया यह विधेयक ऐसे नियमों का सेट है, जिसका उद्देश्य ऐसे किसी भी समाचार या विचार को सेंसर करना है जो सरकार में शामिल लोगों के अनुकूल न हों. इसे लेकर 15 जनवरी तक अपनी राय दी जा सकती हैं. (यह समयसीमा शुरू में 8 दिसंबर तक थी, जो बाद में बढ़ा दी गई ).
अगर यह बिल लागू हो जाता है तो यह समझना मुश्किल है कि कोई आने वाली सरकार इससे पीछा कैसे छुड़ाएगी.
कहा जा रहा है कि 72 पन्नों वाला यह विधेयक नौ पन्ने वाले केबल टेलीविजन नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995 की जगह लेगा, हालांकि यह बस कहने की बात है.
इसके ज़रिये किसे नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है? केबल टीवी अधिनियम, जो केवल सैटेलाइट अपलिंक या डाउनलिंक किए गए प्रसारण को कवर करता है, के उलट इस प्रसारण विधेयक के दायरे में इंटरनेट के प्रसारण भी शामिल हैं. इसका मतलब है कि यूट्यूब या किसी वेबसाइट के माध्यम से प्रकाशित कोई भी सामग्री अपने आप इसके तहत आएगी.
इसी प्रकार, सभी ओवर-द-टॉप (ओटीटी) सामग्री और डिजिटल समाचार संस्थानों को सरकारी निगरानी में लाया जाएगा. लेकिन इसके सिवा दायरे में और कौन हैं, यह अभी भी खासा स्पष्ट नहीं है. और यह इसलिए नहीं कि इसे किन्हीं नासमझ लोगों ने तैयार किया है, बल्कि वजह इसकी उलट है. सोच यह है कि धाराओं ऐसी रहें कि हर एक पर लागू हो सकें, जैसे ओटीटी, जो ऑनलाइन वीडियो करते हैं, वो लोग, जो इस कंटेट को फॉरवर्ड करते हैं, वे सभी दायरे में हैं. अगर आप इसमें दिए गए ‘प्रोग्राम’ की परिभाषा (ड्राफ्ट के 6 नंबर पेज पर 1 (डीडी)) को पढ़ते हैं, तो यह कहता है:
‘प्रोग्राम’ का अर्थ है कोई भी ऑडियो, विजुअल या ऑडियो-विजुअल कंटेट, संकेत, सिग्नल, लेखन, छवियां जो प्रसारण नेटवर्क का उपयोग करके प्रसारित की जाती हैं, इसमें शामिल है
(i) फिल्म, फीचर, ड्रामा, डॉक्यूमेंट्री, सीरियल्स और विज्ञापन दिखाना;
(ii) किसी भी ऑडियो या विजुअल या ऑडियो-विजुअल लाइव परफॉर्मेंस या प्रस्तुति और ‘प्रोग्रामिंग सर्विस’ को संदर्भानुसार समझा जाएगा.
तो क्या डिजिटल वेबसाइट ‘लेखन’ में शामिल हैं? शायद हां, शायद न! अधिनियम इतना अस्पष्ट लिखा गया है कि उसे केवल ऑडियो-विज़ुअल पर लिखे किसी वाक्य या कैप्शन तक ही सीमित नहीं किया जा सकता, उसमें किसी भी तरह के ‘लेखन’ को डाला जा सकता है- उसे भी जो आप अभी पढ़ रहे हैं.
पारंपरिक विज़ुअल सामग्री के साथ ख़बरों को रखना
मसौदे में सबसे ख़राब दखल जिसे कह सकते हैं, वो है ख़बरों या समाचार (स्वतंत्र समाचार वेबसाइट, वे लोग जो जिन्हें अब न्यूज़ और व्यूज़ के लिए देखा जा रहा है, एक्सप्लेनर वीडियो, ऑनलाइन उपलब्ध अन्य ऑडियो-विज़ुअल सामग्री) को पारंपरिक रूप से प्रमाणन मानदंड के अधीन आने वाली ओटीटी सामग्री, शो, सीरियल, डॉक्यूमेंट्री और अन्य फीचर्स के साथ जोड़ना है.
इसे ‘कॉम्बो-पैक’ (प्रसार भारती के पूर्व सीईओ जवाहर सरकार के शब्दों में) के रूप में पेश करके समाचार को पहली बार सिनेमा के लिए बनाए गए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के शासन में रखा जा रहा है. पहले से लगाई जाने वाली सेंसरशिप के लिए ख़ाका बनाने का यह पहला कदम है.
सभी डेटा भारत के 692 मिलियन मोबाइल यूजर्स की तरफ इशारा करता है जो अपने फोन का उपयोग बड़ी संख्या में ‘ऑनलाइन वीडियो‘, समाचार, फिल्में और अन्य चीजों को देखने के लिए कर रहे हैं- यानी, पुल (Pull) कंटेंट, और न कि टीवी या सार्वजनिक स्थानों पर सिनेमा की स्क्रीनिंग जैसा पुश (Push) कंटेंट. तो इस माध्यम का इतना अधिक विनियमन क्यों?
मुकुल रोहतगी ने अटॉर्नी जनरल के रूप में यह केस बनाया था कि सरकार इसलिए पॉर्न को विनियमित नहीं करना चाहती क्योंकि उसे व्यक्ति अपने प्राइवेट स्पेस में देखता है. उन्होंने 2015 में अदालत में कहा था, ‘हम तानाशाह सरकार नहीं बन सकते.’ वकील निखिल पाहवा ने उसी केस का हवाला दिया है. लेकिन ऐसे में डिजिटल समाचारों को पहले से सेंसर की बात कहां रखी जाएगी?
जैसा कि इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन ने संक्षेप में बताया है, यहां तक कि जब सीबीएफसी व्यवस्था, या देखने से पहले की सर्टिफिकेशन या प्रमाणन व्यवस्था, या सिनेमा और अन्य सार्वजनिक ऑडियो-विज़ुअल कंटेंट द्वारा मानी जाने वाली व्यवस्था की बात आती है, तो इस सरकार की अपनी 2016 की श्याम बेनेगल समिति ने सुधार का सुझाव दिया था और स्पष्ट रूप से कहा था कि कंटेंट को सेंसर करते समय ‘नैतिक’ दृष्टिकोण से बचना चाहिए. नया अधिनियम उसके भी विपरीत है. अब न केवल बेनेगल समिति के विचारों को ख़ारिज किया जा रहा है, बल्कि समाचारों को भी उसी अंधेरी राह पर धकेला जा रहा है.
प्री-सेंसरशिप और सेंसरशिप का खाका
प्री-सेंसरशिप यानी पहले से लगाई जाने वाली सेंसरशिप का इस्तेमाल हल्के में नहीं किया जा रहा है, क्योंकि ये ‘थ्री-टियर’ सिस्टम – प्रस्तावित तथाकथित विनियमन – यह सुनिश्चित करता है कि सभी स्तरों पर ‘केंद्र सरकार’ की उपस्थिति हो. आख़िर में सरकार फिर से आती है और निर्णय लेती है कि क्या कंटेंट को हटाने की जरूरत है, क्या पत्रकारों पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए या उन्हें कैद किया जाना चाहिए, या फिर डिवाइस को जब्त कर लेना चाहिए.
प्रस्तावित तीन स्तर हैं:
- प्रसारकों और प्रसारण नेटवर्क ऑपरेटरों द्वारा स्व-नियमन
- स्व-नियामक संगठन (एसआरओ)
- प्रसारण सलाहकार परिषद (Broadcast Advisory Council- बीएसी)
‘सेल्फ-रेगुलेशन’ हर एक प्रसारक/संचालक को शिकायत निवारण इकाई बनाने को कहता है. इसके अलावा, प्रत्येक प्रसारक के पास एक कंटेंट इवैल्यूएशन कमेटी (सीईसी) होनी चाहिए, जिसे बाहर जाने वाले सभी कंटेंट को प्रमाणित करना होगा. इस कमेटी की संरचना, इसका आकार, कोरम और अन्य विवरण सब सरकार द्वारा तय किया जाएगा. यहां संपादकीय बोर्ड नहीं है, क्योंकि किसी ‘कमेटी’ को अब पूर्व में ही प्रमाणन करने की जरूरत होगी जैसे, उदाहरण के लिए, क्या रवीश कुमार शुक्रवार दोपहर को बीसीसीआई पर शो कर सकते हैं.
चूंकि सभी प्रसारकों/संचालकों से ‘एसआरओ’ में शामिल होने की अपेक्षा की जाती है, क्लॉज 26 में कहा गया है कि ये ‘एसआरओ’ सभी शिकायतों, अपीलों और अन्य चीजों को संबोधित करेंगे, जिन्हें व्यक्तिगत प्रसारकों द्वारा संबोधित नहीं किया गया है. इसके अलावा, दिशानिर्देश जारी करेंगे, जिससे सरकार द्वारा तय किए गए ‘कोड’ का अनुपालन सुनिश्चित किया जा सके (एक प्रोग्राम कोड और विज्ञापन कोड, जिसे अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है). सज़ा का मतलब अस्थायी निलंबन, सदस्यता से निष्कासन, सलाह, चेतावनी, सेंसर और/या 5 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है.
क्लॉज 27 बताता है कि कैसे ब्रॉडकास्टिंग एडवाइजर काउंसिल (बीएसी) बनेगी और यह कैसे काम करेगी.
मीडिया इंडस्ट्री में 25 वर्षों का अनुभव रखने वाला एक स्वतंत्र सदस्य इसके अध्यक्ष के रूप में काम करेगा. इसके अलावा, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय का प्रतिनिधित्व करने वाले पांच पदेन सरकारी अधिकारी होंगे.
क्लॉज यह भी कहता है कि पांच अतिरिक्त ‘प्रतिष्ठित स्वतंत्र व्यक्ति’ होंगे जो सभी केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए जाएंगे. ‘ब्रॉडकास्टिंग एडवाइजर काउंसिल में सदस्यों की नियुक्ति से संबंधित नियम और शर्तें, उनके चयन का तरीका, कार्यकाल और उनके कार्यों के प्रदर्शन का तरीका वैसा ही होगा, जैसा कि निर्धारित किया जाएगा.’
बीएसी ‘प्रोग्राम कोड या विज्ञापन कोड के उल्लंघन या उल्लंघन के संबंध में शिकायतें सुनेगी’ और ‘एसआरओ’ के निर्णयों पर अपील भी सुनेगी. इसके बाद बीएसी अपनी सिफारिशें ‘केंद्र सरकार’ को देगी, जो प्रसारण नेटवर्क और सेवाओं के डिवाइस का जांच, इंटरसेप्ट, निगरानी और जब्त करने में सक्षम होगी.
इसमें ग़लत क्या है? सबसे पहले, यह विवादास्पद और संदिग्ध संवैधानिकता वाली त्रि-स्तरीय संरचना पूरी तरह से ‘केंद्र सरकारी’ है और व्यापक और गंभीर सार्वजनिक परामर्श पर आधारित नहीं है.
दूसरा, यह विवादास्पद आईटी नियम, 2021 की नकल है. वही नियम जिन्हें अदालतों में चुनौती दी गई थी, उसमें यह ‘त्रिस्तरीय’ तंत्र भी शामिल था और कम से कम दो हाईकोर्ट- बॉम्बे और मद्रास हाईकोर्ट द्वारा इस पर रोक लगा दी गई.
अपनी डिवाइस भी अपनी नहीं!
पुलिस की जबरन कार्रवाई के दौरान पत्रकारों, शोधकर्ताओं और अन्य लोगों के डिवाइस (लैपटॉप, मोबाइल आदि) को अचानक छीना/ज़ब्त किया जाना गहरी चिंता का विषय रहा है. अक्सर हैश वैल्यू (इससे यह मालूम चलता है कि जब्ती के समय डिवाइस में कितना डेटा था, ताकि यह पता चल सके कि बाद में इसके साथ छेड़छाड़ की गई है या नहीं) नहीं दिए जाते हैं, पुलिस अदालत के आदेश या यहां तक कि वॉरंट के आधार पर ऐसा नहीं करती है. यह स्वतंत्र प्रेस के काम पर असाधारण हमला है और पिछले कुछ वर्षों में दंडमुक्ति की भावना के साथ कई बार किया गया है. इस चलन का सामान्यीकरण और सैकड़ों पत्रकारों के लिए इसे लागू करना, 1975 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा अखबारों के दफ्तरों में बिजली-पानी रोकने की कहानियों की रिहर्सल मात्र है.
अदालतें अभी-अभी इस दंडमुक्ति के दूरगामी प्रभावों के प्रति जागी हैं. इसीलिए 9 नवंबर, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि 2021 में दायर याचिका के हिस्से के रूप में पांच शिक्षाविदों द्वारा सुझाए गए दिशानिर्देशों को केंद्र/राज्य सरकार को प्रसारित किया जाए. 7 नवंबर को फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से इस पर दिशानिर्देश तैयार करने को कहा था और टिप्पणी की थी कि पत्रकारों के डिवाइस तक पहुंचने की अनियंत्रित शक्ति अस्वीकार्य है.
(पांच प्रसिद्ध शिक्षाविदों राम रामास्वामी, माधव प्रसाद, सुजाता पटेल, दीपक मलघान और मुकुल केसवन ने सरकारी कारिंदों, आमतौर पर पुलिस द्वारा इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस की तलाशी को विनियमित करने के लिए 2021 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. सुनवाई के दौरान, इन याचिकाकर्ताओं ने अदालत द्वारा जारी किए जा सकने वाले दिशानिर्देशों का एक सेट का सुझाव दिया.)
शोधकर्ता और पत्रकार के डिवाइस और उपकरणों को छीनने को फिर से सामान्य बनाने के तरीके के रूप में क्लॉज 31 से 35 विस्तार से चर्चा करते हैं कि उक्त प्रसारकों/ऑपरेटरों के ‘डिवाइस’ के साथ कैसे व्यवहार किया जाना चाहिए.
क्लॉज 36(2) इस श्रेणी के सभी क्लॉज का चीफ है, क्योंकि इसमें व्यापक सेंसरशिप का प्रावधान शामिल है. केंद्र सरकार खुद को- यदि वह सार्वजनिक हित में ऐसा करना जरूरी समझती है- तो यह अधिसूचित क्षेत्रों में किसी भी प्रसारण सेवा या प्रसारण नेटवर्क ऑपरेटरों के संचालन को प्रतिबंधित करने की शक्ति देती है.
नियंत्रण को ‘विनियमन’ का नाम देना
जब ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ (मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस) की बात आती है तो मामला हमेशा हर चीज़ को विनियमित करने का होता है. इसलिए, इस लॉजिक से प्रेस को विनियमित करना जरूरी है.
लेकिन नियमन का अर्थ, नियंत्रण नहीं है. केंद्र सरकार द्वारा नियंत्रण को ‘विनियमन’ कहना इस साल की सबसे बड़ी गलती है. विधेयक में 60 जगह ‘जैसा निर्धारित किया जाएगा’ शब्द लिखा है और 17 बार ‘जैसा केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किया गया है’ शामिल हैं. नियम बनाने की सारी ताकत, जो स्वतंत्र प्रेस को और प्रतिबंधित करेगी, ‘केंद्र सरकार’ के पास रहेगी.
मसौदा विधेयक में पारंपरिक अख़बारों की ऑनलाइन ‘प्रतिकृतियों’ (replica) को शामिल नहीं किया गया है और ‘मीडिया घराने’ इसके दायरे से बाहर हैं. ऐसा संभवतः इस पर होने वाले हंगामे को कम करने के लिए किया गया होगा. ‘बिग टेक’ का प्रतिरोध बिल्कुल भी ‘बिग’ नहीं होगा. वाशिंगटन पोस्ट ने ’69ए मीटिंग्स’ पर उस बारे में रिपोर्ट दी है, जब ट्विटर अधिकारियों को आईटी अधिनियम की कठोर धारा 69ए का ‘पालन’ करने और केंद्र सरकार द्वारा नापसंद विचारों और समाचारों को हटाने के लिए बुलाया गया था. रिपोर्ट के अनुसार, एक प्रभावी ‘बात मानो या सज़ा भुगतो जैसी’ नीति लागू है, जिससे ‘बिग टेक’ को तब तक कोई दिक्कत नहीं है जब तक उनके पास पर्याप्त धन आ रहा है.
27 सितंबर को पीएम मोदी ने कहा था कि ‘मेरे सभी अपडेट पाने के लिए मेरे चैनल को सब्सक्राइब करें और बेल आइकन दबाएं.’ यह कोई अचानक की गई टिप्पणी नहीं थी. 2024 के चुनावों के लिए डिजिटल मीडिया महत्वपूर्ण है और पिछले कुछ समय से यह बात और स्पष्ट होती जा रही है. डिजिटल विज्ञापन पर केंद्र सरकार का खर्च तेजी से प्रिंट विज्ञापन से अधिक हो गया है. जैसा कि द मॉर्निंग कॉन्टेक्स्ट ने बताया, ‘इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत स्थापित गैर-लाभकारी डिजिटल कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया की सालाना रिपोर्ट से पता चलता है कि 2016-17 में मोदी सरकार का MyGov को अनुदान 18.8 करोड़ रुपये था. 2017-18 में यह बढ़कर 58.2 करोड़ रुपये हो गया. इसके बाद 2018-19 में 58.5 करोड़ रुपये और 2019-20 में 84.88 करोड़ रुपये हो गया.’
यह मसौदा विधेयक ऑनलाइन विविधता को लेकर सरकार की घबराहट का स्पष्ट प्रतिबिंब है. यदि अख़बारों और टीवी चैनलों को विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाकर या मालिक को फोन करके काबू किया जाता है तो यह प्रसारण विधेयक दंडात्मक सरकारी कार्रवाई के खतरे को औपचारिक बनाने और डिजिटल मीडिया तक पहुंच बढ़ाने का प्रयास है.
अगर 2019 को कुछ लोगों द्वारा ‘भारत का पहला वॉट्सऐप चुनाव’ कहा गया था तो आगामी आम चुनाव यूट्यूब पर भारत का पहला चुनाव होने की ओर बढ़ता दिख रहा है. डिजिटल मीडिया स्पष्ट रूप से प्रभावी है और भारत के डिजिटल माहौल को भी टेलीविज़न (या प्रिंट) की तरह एक रंग में रंग दिया जाए, यह विधेयक इसीलिए है.
(मूल अंग्रेज़ी लेख से शहादत ख़ान और अक्षत जैन द्वारा अनूदित)