विश्वविद्यालयों को ‘सेल्फी पॉइंट’ बनाने के बजाय ‘सेल्फ पॉइंट’ बनने की कोशिश करनी चाहिए

यूजीसी के 'सेल्फी पॉइंट' के आदेश समेत उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए जारी होते विभिन्न निर्देशों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो लगता है कि ‘आज्ञापालक नागरिक’ तैयार करने का प्रयास ज़ोर-शोर से चल रहा है और इसके लिए विश्वविद्यालयों को प्रयोगशाला बनाया जा रहा है.

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दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में बना एक सेल्फी पॉइंट. (फोटो साभार: फेसबुक/@EduMinOfIndia)

यूजीसी के ‘सेल्फी पॉइंट’ के आदेश समेत उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए जारी होते विभिन्न निर्देशों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो लगता है कि ‘आज्ञापालक नागरिक’ तैयार करने का प्रयास ज़ोर-शोर से चल रहा है और इसके लिए विश्वविद्यालयों को प्रयोगशाला बनाया जा रहा है.

दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में बना एक सेल्फी पॉइंट. (फोटो साभार: फेसबुक/@EduMinOfIndia)

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने भारत के सभी विश्वविद्यालयों को यह निर्देश दिया है कि वे अपने संस्थान में एक ‘सेल्फी पॉइंट’ निर्मित करें. ऐसा इसलिए कि यूजीसी के अनुसार ‘निकट अतीत’ में भारत ने अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं जिनके प्रति नौजवानों को जागरूक किया जाना चाहिए. यूजीसी की ओर से भेजे गए पत्र में यह भी कहा गया है कि ये ‘सेल्फी पॉइंट’ नागरिकों को न केवल गर्व का एहसास कराएंगे बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत के विकास के लिए  किए जा रहे रूपांतरकारी पहल के प्रति भी प्रबुद्ध बनाएंगे.

इसके साथ-साथ इन ‘सेल्फी पॉइंट’ का ढांचा भी उपलब्ध कराया गया है. इस ढांचे में कई अलग-अलग बिंदु हैं. उदाहरण के लिए ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’, ‘स्मार्ट इंडिया’, ‘इंडियन नॉलेज सिस्टम’ आदि. इन सभी नमूनों पर ‘अनिवार्य स्वाभाविकता’ के अनुसार प्रधानमंत्री की भी तस्वीर है.

यूजीसी के उपर्युक्त पत्र को पढ़ने से पहला सवाल तो यही मन में आता है कि ‘निकट अतीत’ से क्या समझा जाए? अगर हम यह मानें कि भारत का ज्ञात इतिहास लगभग सात हज़ार साल पुराना है तो फिर ऐसी परिस्थिति में ‘निकट अतीत’ का तात्पर्य पिछले 75 वर्षों से लेकर पिछले तीन-चार सौ वर्षों तक संबोधित हो सकता है. ऊपर जिस ‘इंडियन नॉलेज सिस्टम’ की बात ‘सेल्फी पॉइंट’ के ढांचे में की गई है और यदि इसका सामान्य मतलब भारत की ज्ञान-परंपरा है तो उसी भारतीय ज्ञान-परंपरा, ख़ासकर संस्कृत भाषा में निर्मित ज्ञान, की विशेषता रही है कि शब्द किन संदर्भों में प्रयुक्त है और उस का कौन-सा अर्थ लक्ष्य है वह प्रयोग करने वाला शुरू में ही स्पष्ट कर देता है.

पत्र में ‘निकट अतीत’ को स्पष्ट नहीं किया गया है लेकिन ‘सेल्फी पॉइंट’ के नमूनों पर वर्तमान प्रधानमंत्री की तस्वीर से यह समझा जा सकता है कि ‘निकट अतीत’ का अर्थ संभवत: (या निश्चय ही?)  पिछले दस वर्ष हैं. इतने प्राचीन और महान भारत देश के ‘अतीत’ का अर्थ जाने या अनजाने दस वर्षों तक सीमित हो जाना न तो भारतीय संस्कृति के अनुकूल है और न ही भारत की ज्ञान-परंपरा के!

दूसरी बात यह है कि विश्वविद्यालयों में ‘सेल्फी पॉइंट’ की आवश्यकता है भी या नहीं? इस से पहले विश्वविद्यालयों में ‘टैंक’ और राष्ट्रीय झंडा लगा कर देशभक्ति के प्रति जागरूकता फैलाने की बात सामने आई थी. विश्वविद्यालयों का काम शिक्षण और शोध है न कि अपने-आपको प्रतीकों की राजनीति में दल-बल के साथ सम्मिलित कर देना.

दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की पहचान ज्ञान के क्षेत्रों में उनके योगदान से बनी है. उनके बारे में यह समझ रहती है कि उनका फलाँ विभाग बहुत अच्छा है, उनके यहां के वे अध्यापक अपने विषय में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पहचान के हैं. मतलब यह कि विश्वविद्यालय स्वयं अपनी पहचान ज्ञान की उपलब्धियां हासिल कर निर्मित करते हैं. अगर अनुप्रास, जैसा कि आज की राजनीति का स्वभाव हो गया है, का ही सहारा लेकर कहना हो तो कहा जा सकता है कि विश्वविद्यालयों को ‘सेल्फी पॉइंट’ नहीं ‘सेल्फ पॉइंट’ बनना चाहिए यानी कि ज्ञान की दुनिया में उनकी स्वतंत्र पहचान हो.

पर अभी भारत के विश्वविद्यालयों को इस कसौटी पर जांचा जाए कि वहां ज्ञान के प्रति कैसा वातावरण और दिशानिर्देश है तो निराशा ही महसूस होती है. विश्वविद्यालयों को एक रंग में रंगने की कोशिश लगातार चल रही है. यदि पिछले सात-आठ वर्षों में यूजीसी द्वारा विश्वविद्यालयों को भेजे गए पत्रों का विश्लेषण किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि बिना कुछ कहे या सीधे आदेश के विश्वविद्यालय, ख़ासकर केंद्रीय, केंद्र सरकार के विस्तारित कार्यालय में तब्दील होते जा रहे हैं.

कई तरह के शुद्ध सरकारी कार्यों को विश्वविद्यालय से सीधे जोड़ दिया जा रहा है. न केवल उनके बारे में आयोजन करने का ‘अनुरोध’ (यह अनुरोध भी आदेश के रूप में ग्रहण किया जाता है.)  उन पत्रों में किया जाता है बल्कि विभिन्न ‘पोर्टल’ पर तस्वीर या वीडियो भी ‘अपलोड’ करने को कहा जाता है. एक ओर तो केंद्र सरकार के विस्तारित कार्यालय के रूप में विश्वविद्यालयों को निर्मित किया जा रहा तो दूसरी तरफ़ एक तरह के विचार के लोगों को विश्वविद्यालय में नियुक्त करने की ख़बरें आती रहती हैं.

ताज़ा मामला ही देखें तो यह पता चलता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्टित संस्थान में ‘एडहॉक’ के रूप में पढ़ा रहे अनेक योग्य लोगों को ‘स्थायी’ पद पर नियुक्त नहीं किया गया. इनमें  से कुछ लोग 14 वर्षों से अध्यापन कर रहे थे. अगर वे अयोग्य थे तो इतने लंबे समय से उसी कॉलेज या संस्था में पढ़ा कैसे रहे थे?

जिन लोगों को स्थायी पद के लिए योग्य नहीं माना गया उनमें से कई वर्तमान सरकार की विचारधारा से असहमति रखते हैं. ‘विश्वविद्यालय’ में जो ‘विश्व’ शब्द है वह विविधता और बहुलता के लिए है. धारणा यह है कि जैसे यह पूरा विश्व अनेक तरह की विविधता और बहुलता समेटे है उसी प्रकार ‘विश्वविद्यालय’ भी अनेक तरह की विचार-सरणियों तथा दृष्टियों को विकसित होने के अवसर उपलब्ध कराने वाले संस्थान हैं.

‘निकट अतीत’ का अनुभव यही है कि जो लोग भी वर्तमान सरकार की नीतियों या विचार से असहमति रखते हैं उनका ‘विश्वविद्यालय’ जैसी संस्था में स्थान न केवल धीरे-धीरे सीमित होता गया बल्कि उनके विचार मात्र का दमन करने के लिए ‘स्पष्टीकरण’, कारण बताओ नोटिस’, ‘निलंबन’ आदि का सहारा लिया जाने लगा है.

इतना नहीं कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सेवा की आचार-संहिता के लिए ‘सिविल सेवा’ के नियमों को लागू कर दिया गया है जिसके अंतर्गत यह है कि कोई भी नौकरी कर रहा व्यक्ति किसी भी सरकारी नीति की आलोचना नहीं कर सकता. जिस ‘नई शिक्षा नीति2020’ का संदर्भ यूजीसी के उपर्युक्त पत्र में दिया गया है उस से अगर किसी भी अध्यापक या कर्मचारी की असहमति हो और वह अपनी असहमति खुलकर प्रकट करता/करती हो तो उसे जैसा कि कहा गया ‘स्पष्टीकरण’, कारण बताओ नोटिस’, ‘निलंबन’ तक का सामना उसे करना पड़ सकता है और कई लोगों के साथ इस तरह की स्थिति आई भी है.

इतना ही नहीं कई बार ऐसे प्रसंग भी जानकारी में आए हैं कि यदि अध्यापक नियमानुसार अपने लिए सुविधा की मांग करते हैं तो उनकी मांग को कई तरह की तकनीकी व्याख्याओं में उलझा कर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है. एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के सह-प्राध्यापक (एसोसिएट प्रोफेसर) ने पिछले साल एक वर्ष के लिए ‘अध्ययन-प्रोत्साहन अवकाश’( सबैटिकल लीव) की मांग की तो उहें यह कहा गया कि अभी इसकी नियमावली ही विश्वविद्यालय में नहीं बनी है, अत: ‘समिति’ इसके लिए गठित की जा रही है और फिर इस मामले का कुछ भी अभी तक नहीं हुआ है.

अगर इन सबको व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह लगता है कि ऐसी गतिविधियों से ‘आज्ञापालक नागरिक’ तैयार करने का प्रयास ज़ोर-शोर से चल रहा है और इसके लिए विश्वविद्यालयों का सहारा लेकर उन्हें इसकी प्रयोगशाला बनाया जा रहा है.

‘आज्ञापालक नागरिक’, जिसके अंतर्गत नौजवान भी आएंगे, उनके भीतर पिछले दस वर्षों की उपलब्धियों के लिए गर्व करने की बात कही गई है. पहली बात तो यही है कि पिछले दस वर्षों की उपलब्धियों को लेकर कोई सर्वसम्मत या बहुमत हमारे देश में बन गया है? वे कौन-सी उपलब्धियां हैं? इसके बारे में भी कोई जानकारी यूजीसी के उक्त पत्र में नहीं है. जो नमूने दिए गए हैं उनमें भी इस तरह का कोई विवरण नहीं है. वहां कुछ आयोजनों और योजनाओं का ज़िक्र अवश्य है.

तब इससे क्या समझा जाए कि ‘योजनाओं का उत्सवीकरण’ और ‘उत्सवों का योजनाबद्ध विस्तार’ दोनों प्रक्रियाएं एकसाथ जारी हैं?

गर्व तो तब होता है जब हमारी उपलब्धियों को दूसरे लोग स्वीकार करें. स्वघोषित उपलब्धियां हमें कहीं नहीं ले जातीं. उदाहरण के लिए हम भले यह मानें या हमें मनवाया जाए कि हम विश्वगुरु हैं पर हक़ीक़त यही है दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की गिनती में हमारे विश्वविद्यालय नहीं आते. यदि भारत के विश्वविद्यालय ज्ञान की दुनिया में अपनी पहचान एवं स्वीकृति प्राप्त करेंगे तो अपने-आप भारतवासी और दुनिया के लोग उन पर गर्व करेंगे. इसके लिए ‘सेल्फ’ पर ध्यान देना होगा न कि ‘सेल्फी पॉइंट’ पर.

(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)

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