इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक पति को अपनी पत्नी के साथ कथित तौर पर ‘अप्राकृतिक यौन संबंध’ बनाने के आरोप में आईपीसी की धारा 377 के तहत बरी करते हुए यह टिप्पणी की. हालांकि अदालत ने आरोपी के ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 498ए (दहेज के लिए उत्पीड़न) और 323 के तहत आरोपों में उसकी दोषसिद्धि और सज़ा की पुष्टि की है.
नई दिल्ली: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि ‘वैवाहिक बलात्कार’ (Marital Rape) में आरोपित होने से ‘व्यक्ति की सुरक्षा’ उन मामलों में भी जारी रहती है, जहां ‘पत्नी की उम्र 18 वर्ष या उससे अधिक है’.
अदालत ने इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2017) के मामले में फैसले का भी हवाला दिया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 15 से 18 साल की उम्र के पुरुष और उसकी पत्नी के बीच कोई भी यौन संबंध बलात्कार होगा.
द प्रिंट में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा ने एक पति को अपनी पत्नी के साथ कथित तौर पर ‘अप्राकृतिक यौन संबंध’ बनाने के आरोप में आईपीसी की धारा 377 के तहत बरी करते हुए कहा, ‘आईपीसी की धारा 377 के तहत शामिल अप्राकृतिक यौन संबंध के घटकों को आईपीसी की धारा 375 (ए) में शामिल किया गया है, जैसा कि मध्य प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा अवलोकन किया गया है.’
अपने आदेश में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा था कि बलात्कार से संबंधित आईपीसी की धारा 375 (2013 संशोधन अधिनियम द्वारा संशोधित) में लिंग के प्रवेश के सभी संभावित हिस्से शामिल हैं. जब इस तरह के कृत्य के लिए सहमति महत्वहीन है, तो आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध की कोई गुंजाइश नहीं है, जहां पति और पत्नी यौन कृत्यों में शामिल हों.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा, ‘इस प्रकार उपरोक्त फैसले को देखने पर यह भी प्रतीत होता है कि वैवाहिक बलात्कार से किसी व्यक्ति की सुरक्षा अभी भी उस मामले में जारी है, जहां पत्नी की उम्र 18 वर्ष या उससे अधिक है.’
आरोपी द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका को आंशिक रूप से अनुमति देते हुए जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा ने कहा कि प्रस्तावित भारतीय न्याय संहिता, जो भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की जगह ले सकती है, में आईपीसी की धारा 377 का कोई प्रावधान नहीं है.
हालांकि, अदालत ने भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए (दहेज के लिए उत्पीड़न) और 323 के तहत आरोपों के लिए उसकी दोषसिद्धि और सजा की पुष्टि की.
साल 2013 में आरोपी शख्स के खिलाफ गाजियाबाद में आईपीसी की धारा 498ए, 323, 504 और 377 और दहेज निषेध अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी. गाजियाबाद की ट्रायल कोर्ट ने उन्हें दोषी ठहराया और अपीलीय अदालत ने भी निष्कर्षों को बरकरार रखा, जिसके बाद उन्होंने पुनरीक्षण याचिका दायर की थी.
हाईकोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 323 और 498ए के तहत आरोप के संबंध में अपीलीय अदालत द्वारा दर्ज अपराध के निष्कर्ष में कोई तथ्यात्मक या कानूनी त्रुटि नहीं थी.
अदालत ने कहा कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की मांग वाली कुछ याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचार के लिए लंबित हैं, लेकिन जब तक उन याचिकाओं पर कोई निर्णय नहीं आता, ऐसे कृत्यों के लिए कोई आपराधिक दंड नहीं है, जब पत्नी 18 वर्ष या उससे अधिक उम्र की हो.
यह ध्यान देने के अलावा कि मामले में मेडिकल साक्ष्य अप्राकृतिक यौन संबंध के आरोपों का समर्थन नहीं करते, अदालत ने 6 दिसंबर को दिए अपने इस फैसले में कहा, ‘प्रस्तावित भारतीय न्याय संहिता, जो संभवत: आईपीसी की जगह लेगी, उसमें आईपीसी की धारा 377 जैसा कोई प्रावधान शामिल नहीं है.’
इसमें कहा गया है, ‘इस मामले में याचिकाकर्ता के खिलाफ वैवाहिक क्रूरता करने का आरोप साबित हुआ है और तलाक की याचिका पर फैसला सुनाते समय पारिवारिक अदालत के निष्कर्षों से इसकी पुष्टि होती है तथा अपील में इस अदालत ने याचिकाकर्ता के खिलाफ तलाक के फैसले की पुष्टि की है.’