बिहार जाति सर्वेक्षण: कहारों का इतिहास सामंती व्यवस्था द्वारा उत्पीड़न का रहा है

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग कहार जाति के बारे में है.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: THE NEW YORK PUBLIC LIBRARY DIGITAL COLLECTIONS)

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. यह भाग कहार जाति के बारे में है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: THE NEW YORK PUBLIC LIBRARY DIGITAL COLLECTIONS)

आज जिनकी बात कह रहा हूं, उनका पेशा क्या है और इनकी जाति क्या है, यह बताने के लिए मेरे पास केवल एक ही शब्द है. यह शब्द है- कहार. कुछ लोग इन्हें कहार कहते हैं तो कुछ रमानी/रवानी/कमकर और अब कुछ लोग चंद्रवंशी भी कहने लगे हैं. ये हिंदू भी हैं और मुसलमान भी.

वैसे भी सभ्यता के विकास के क्रम में बहुत सारी चीजें बदली हैं. शब्दों के उपयोग के मामले में, सोचने-समझने के ढंग में बदलाव आया है. लेकिन कुछ चीजें अब भी नहीं बदली हैं. जैसे कि कहारों का कंधा. जैसे बैलों के कंधे पर जुआ रखा जाता था, वैसे ही इनके कंधे पर भी पालकी अथवा डोली का बोझा. यही इनका काम होता था. ब्राह्मणों, पुरोहितों, राजाओं, जमींदारों काे पालकी में बिठाकर उन्हें उनके गंतव्यों तक पहुंचाना.

बेशक अब यह बीते समय की बात है कि तब इनके पैरों में चप्पल भी नहीं होते थे. वे जब कंधों पर बोझ लेकर चलते तो अपना हौसला बढ़ाने के लिए खुद ही एक खास तरह की आवाज निकालते हैं.

मानव सभ्यता के इतिहास में दास प्रथा का उल्लेख केवल पश्चिमी देशों के इतिहास में ही नहीं मिलता. लेकिन भारतीय इतिहास में इसे जाति के आवरण से ढंक दिया गया. कहार और कमकर ऐसी ही जातियां रहीं, जिनके लोग दूसरों का बोझ उठाने के लिए बाध्य थे. नहीं तो क्या यह मुमकिन नहीं था कि भारत में भी मोटरकार जैसे वाहनों के बारे में सोचा जाता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि समाज में लोगों का बोझ उठाने के लिए कहार मौजूद थे.

खैर, आज कहार जो सामंतवादी व्यवस्था में खुद को चंद्रवंशी कहते हैं, वे बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाकों में अधिक मौजूद हैं. अन्य राज्यों में भी ये हैं. सभी राज्यों में इनका एक ही तरह का काम रहा है. खेती-बाड़ी पर इनका अधिकार न तो पहले था और न ही आज है. काम से एक और बात याद आई. जब शादी-विवाह का लगन होता था तब इनकी पूछ बढ़ जाती थी. ये जत्थों में होते थे. जिसकी जैसी हैसियत होती, वह वैसी डोली और पालकी तथा जत्था पसंद करता था. अमूमन ये चार से कम नहीं होते थे. दो आगे और दो पीछे. बीच में पालकी में बैठा आदमी या औरत आराम से सफर करते.

सामाजिक और नैतिक रूप से यह जाति बेहद ईमानदार जाति रही. हालांकि, इसके बावजूद सामंती व्यवस्था में इनका उत्पीड़न किया जाता था.

खैर, यह सब बीती हुई बात है. अब विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है. सड़कें बन गई हैं. पहाड़ों का सीना चीर दिया गया है. पगडंडियां खत्म हो गई हैं. गाड़ियों की उपलब्धता हो गई है. हालांकि अब भी कभी-कभार कोई धन का मारा शादी-विवाह के मौके पर इनकी खोज कर लेता है. लेकिन अब पालकी ढोने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है.

इसका दूसरा पक्ष यह है कि इनके समक्ष अब संकट आजीविका का है. जमीन तो थी नहीं और जितनी जमीन थी भी, वह परिवारों के बंटवारों में लगभग खत्म हो चुका है. इस जाति की आज की पीढ़ी के पास अचल संपत्ति कितनी होगी, कहना मुश्किल है.

बिहार सरकार के दस्तावेजों में इनकी कुल आबादी 21,55,644 है और ये अति पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं. इसकी वजह भी यही कि ये ‘अछूत’ नहीं माने गए थे. जबकि इनकी हालत दलितों के समकक्ष है. एक उदाहरण यह कि बिहार की सरकारी नौकरियों में इनकी केवल डेढ़ से दो फीसदी आबादी ही भागीदार है.

अब यह जाति सियासी हिंदूकरण के चपेटे में है. इन्हें ओबीसी समुदाय से अलग-थलग करने के लिए कहा जा रहा है कि ये कहार नहीं, चंद्रवंशी हैं. इसके लिए अनेक कहानियां गढ़ दी गई हैं. मसलन यह कि चंद्रवंश जिसे अंग्रेजी में लुनर डायनेस्टी कहा जाता है, प्राचीन भारत का क्षत्रिय वर्ण था. कभी-कभी तो यादवों से लड़ाने के लिए यह भी कहा जाता है कि हिंदू देवता कृष्ण चंद्रवंश की यदुवंश शाखा में जन्मा था. बताने को तो वे कहार जाति को जरासंध का वंशज भी बताते हैं.

खैर, बदलाव होने चाहिए क्योंकि ओबीसी की अन्य जातियां इन्हें अपने साथ बैठने नहीं देतीं और दलित भी इन्हें अपने जैसा नहीं मानते. इस जाति की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कशमकश को कौन समझेगा?

(लेखक फॉरवर्ड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं.)

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