कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विचारधारा से प्रतिबद्ध वही लेखक बड़े या महान हुए जिन्होंने अपने साहित्य में अपनी ही विचारधारा का अतिक्रमण करने का दुस्साहस किया, कह सकते हैं, अपने साहित्य-विचार के पक्ष में. यह अतिक्रमण न विरोध होता है, न ही विचलन. शमशेर और मुक्तिबोध ऐसे अतिक्रमण के उजले उदाहरण हैं.
बावजूद इसके कि सच की बड़ी वंदना की जाती है; बच्चों को उसे बोलने का सबक सिखाया जाता है; उसकी कसम खाई जाती है और हमने अपने देशका आप्तवाक्य ‘सत्यमेव जयते’ बना रखा है, सचाई यह है कि सच की जगह हमारे जीवन-जगत में बहुत कम है और वह लगातार घटती जाती है. जो अट्टे पर चढ़कर रोज़ ब रोज़ झूठ बोलता रहता है वह लोकप्रियता के शिखर पर होता है. हमारा इतना सारा काम अब झूठ से चलता है कि हमें सच की मानो ज़रूरत ही नहीं रह गई है. कई बार सच-झूठ को लेकर हमें जो उलझन होती रहती है उसे सुलझाने के लिए हम साहित्य के पास जाते हैं. वहां हमें अक्सर सच की विडंबना का और पता चलता है.
मैं बीच-बीच में गुस्ताव यानूश की पुस्तक ‘काफ़्का के साथ बातचीत’ पढ़ता रहता हूं. तो आज संयोग से मुझे एक हिस्सा मिला. उसमें काफ़्का कहते हैं कि झूठ बोलना एक काम है, और कामों की तरह उसके लिए किसी व्यक्ति को बहुत हुनर की ज़रूरत पड़ती है. उसके लिए हमें अपना सब कुछ उसे देना पड़ता है, अपने झूठ में खुद य़कीन करना होता है तभी आप दूसरों को उसमें यक़ीन दिला सकते हैं. झूठ को आवेग की गरमाहट भी चाहिए. इसीलिए वह जितना छुपाता है उससे कहीं ज़्यादा ज़ाहिर करता है.
काफ़्का कहते हैं कि ‘मैं उतना योग्य नहीं हूं. मेरे लिए छुपने के लिए एक ही जगह है- सच.’
यह सोचने की बात है कि जब झूठ इतना आक्रामक हो, जो कि हमारे समय में है, तो उससे, उसके आक्रामक प्रहारों से बचने के लिए क्या हम सच की शरण लेते हैं? क्या सच अब सिर्फ़ छुपने की जगह भर रह गया है और वह झूठ से लड़ने का औजार नहीं? क्या हमारे समय में झूठ और सच का अनादि काल से चला आ रहा संग्राम अब स्थगित या समाप्त हो गया है और अब हम उसके उत्तरराग में हैं?
ज़ाहिर है हम ऐसा आसानी से स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि कहीं न कहीं हमारी मानवीयता में यह विश्वास गहरे धंसा हुआ है कि सच अपराजेय है. हमें लगता है कि सच की स्थिति भले डांवाडोल क्यों न हो, वह हार नहीं गया है. उसी हिस्से में काफ़्का यह भी कहते हैं कि ‘इसमें जो नष्ट नहीं हो सकने वाला है उसे भाषा वस्त्र पहनाती है, वह वस्त्र जो हमारे बाद बचा रहता है.’
कई बार लगता है कि आज हमारी भाषा अविनाशी तत्व का वस्त्र होने के बजाय हममें जो बद्धमूल हिंसा, दूसरों को नष्ट करने का उत्साह है, जो न्याय की अवज्ञा है उसका वस्त्र बन गई है. उसमें सच बोलना या, रूपक को जारी रखें तो, सच ओढ़ना असाध्य होता जा रहा है.
भले साहित्य में नहीं, पर राजनीति-धर्म-मीडिया में तो भाषा मुदित मन झूठ की वाहिका होती जा रही है. उसमें अब हम रोज़ नफ़रत ओढ़-पहन रहे हैं. कई बार लगता है कि भाषा में इस संकट से समाज और लेखक दोनों ही गाफ़िल नहीं हैं. भाषा की नसें ज़हराब से भर रही हैं और हमें ख़बर नहीं है.
विचार, विचारधारा, अतिक्रमण
पटना पुस्तक मेले में एक कलाप्रेमी रसिक ने विचारधारा के आधार पर किसी कलाकृति के आस्वाद में पड़ने वाली कठिनाई को लेकर एक प्रश्न पूछा. बाद में एक और व्यक्ति ने सवाल किया कि अगर मार्क्सवाद ने इतना सारा महत्वपूर्ण साहित्य उपजाया तो हिंदुत्व ऐसा क्यों नहीं कर सकता, कुछ इंतज़ार करना चाहिए. ये ज़रूरी सवाल हैं और उन पर थोड़ा व्यापक संदर्भ में विचार करना चाहिए.
पहली बात तो यह है कि साहित्य में विचार की स्थिति जटिल होती है. वह किसी विचार से उत्प्रेरित हो सकता है लेकिन उसमें बहुत कुछ और रसा-बिंधा होता है जैसे अनुभव, भाव, संवेदना आदि. निरे विचार के वर्चस्व में लिखा गया साहित्य शायद ही कभी महत्वपूर्ण और टिकाऊ हुआ हो. विचार की साहित्य में जगह होती है पर ज़रूरी नहीं कि वह केंद्रीय हो.
दूसरे, साहित्य में सभी विचार उसके बाहर से नहीं आते: यह मानने में बड़ी हिचक भले हो लेकिन साहित्य स्वयं जीवन, मनुष्य, अस्तित्व, स्थिति और नियति पर विचार की विधा है. विडंबना यह है कि ऐसा अक्सर स्वयं लेखक नहीं मान-समझ पाते और न ही आलोचक और समाजशास्त्री.
तीसरे, साहित्य शून्य में नहीं जन्मता और उसका अपने समय के विचारों से निरंतर संवाद होता रहता है.
चौथे, यह भी सोचा जा सकता है कि साहित्य में विचार, अनुभव, भाव, संवेदना का, उसकी संरचना में, लोकतंत्र होता है- एक तरह की समकक्षता. इसलिए साहित्य में उसके विचार में घटाकर देखना साहित्य को कम पढ़ना, कम समझना है.
पांचवे, साहित्य से उपजा विचार सहानुभूति-संवाद-साहचर्य की अपेक्षा तो रखता है पर वह अपनी कोई सत्ता या वर्चस्व स्थापित करने से बचता है. ऐसा करना उसके लोकतांत्रिक स्वभाव और समकक्षता के आग्रह के प्रतिकूल होता है.
छठवें, विचार ज़रूरी तौर पर किसी विचारधारा में समाहित, विकसित या विलीन नहीं होता.
विचारधाराएं, जैसे कि विचार, कई क़िस्म की होती हैं. वे विचार करने की व्यवस्था प्रतिपादित करती हैं, वे निरे विचार की संभावित अराजकता को संयमित करने की कोशिश भी करती हैं. वे अक्सर समाज या राजनीति में सत्ता हासिल करने के लिए महत्वाकांक्षी भी होती हैं. वे सामाजिक आचरण और अभिव्यक्ति का नियमन भी करती हैं.
गांधीवाद भर हमारे समय में ऐसी विचारधारा रही है जो सत्ता की आकांक्षा से दूर रही है. बाक़ी मार्क्सवाद और हिंदुत्व दोनों ही सत्ताकांक्षी हैं. दोनों मुक्ति का लक्ष्य भी रखती हैं. मार्क्सवाद पूंजी-शोषण-अन्याय से मुक्ति का दावा करता है तो हिंदुत्व हिंदुओं की मुक्ति का, अन्य धर्मों के प्रभाव और वर्चस्व से. मार्क्सवाद विश्वव्यापी वृत्ति रही है, हिंदुत्व भारतीय समाज तक सीमित. मार्क्सवाद की अनेक अवधारणाएं सार्वभौम इस अर्थ में हैं कि उनके सहारे संसार में किसी भी समाज के अवरोधों और गतिशीलता को समझा जा सकता है.
हिंदुत्व इस संदर्भ में संकीर्ण है और उसका कुछ भी सार्वभौम नहीं हो सकता. मार्क्सवाद का प्रभाव लगभग सारे संसार पर हुआ पर हिंदुत्व का प्रभाव को भारतीय समाज में भी सीमित ही कहा जा सकता है. मार्क्सवाद में सकल मानवता की मुक्ति का स्वप्न है, पर हिंदुत्व में सिर्फ़ हिंदुओं की. दोनों की वर्जनाएं हैं और व्यावहारिक जीवन और अमल में उनकी विकृतियां लगभग समान हैं. ये विकृतियां समान होते हुए भी अपने मूल में अलग हैं.
मानवता की मुक्ति का स्वप्न, शोषण और अन्याय की जिस वस्तुस्थिति से निकलता है वह कमोबेश हर मानव-समाज में होती है. इसके बरक़्स हिंदू की गुलामी स्पष्ट वस्तुस्थिति नहीं एक अवधारणा मात्र है. मार्क्सवाद से स्वप्नभंग व्यापक रूप से हुआ है पर उसने बहुत-सा महत्वपूर्ण साहित्य उत्प्रेरित किया है.
हिंदुत्व एक विचारधारा के रूप में भारत में एक सशक्त-सक्षम संगठन के माध्यम से फैलाए जाने की एक शताब्दी पूरा कर रहा है. उसने भारत की किसी भाषा में मेरे जाने एक भी महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति, लेखक या चिंतक पैदा नहीं किया. उसके राजनीति में सत्तारूढ़ होने के बाद उसे लेकर कुछ अनुनयन की तरह लिखा ज़रूर गया है पर उसमें कोई सशक्त हस्तक्षेप नहीं है. यह उसकी बुनियादी अनुर्वरता का प्रमाण है, सत्यापन भी.
विचारधारा से प्रतिबद्ध वही लेखक बड़े या महान हुए जिन्होंने अपने साहित्य में अपनी ही विचारधारा का अतिक्रमण करने का दुस्साहस किया, कह सकते हैं, अपने साहित्य-विचार के पक्ष में. यह अतिक्रमण न तो विरोध होता है, न ही विचलन. शमशेर और मुक्तिबोध ऐसे अतिक्रमण के बहुत उजले उदाहरण हैं. विचारधारी कुछ भी कहें, ऐसे बड़े लेखक अपने साहित्य के लिए पढ़े-सराहे जाते हैं, अपनी विचारधारा के कारण नहीं.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)