सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज़ की ‘आज़ाद आवाज़’ टीम की एक रिपोर्ट बताती है कि असम के हिरासत शिविरों यानी डिटेंशन केंद्रों में संदिग्ध नागरिकता वाले लोगों को अमानवीय हालात में रहना पड़ रहा है, जहां गंभीर अपराधों की सज़ा काट रहे क़ैदी भी उनके साथ ही रहते हैं.
नई दिल्ली: असम में नागरिकता संकट के विवादास्पद मुद्दे के कारण 2010 से राज्य में हिरासत केंद्र (डिटेंशन सेंटर) संचालित हो रहे हैं. इन केंद्रों के इर्द-गिर्द लगातार मानवीयता संबंधी चिंताएं जन्म लेती रही हैं.
सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज़ की आज़ाद आवाज़ टीम ने असम में ये हिरासत केंद्र कैसे काम करते हैं, यह जानने के लिए जमीन पर जाकर साक्षात्कार किए.
दीपांशु मोहन, सम्राग्नी चक्रबर्ती, यशोवर्धन चतुर्वेदी, हिमा तृषा एम, नित्या अरोरा, रिषव चक्रबर्ती और अमन चैन ने द वायर के लिए लिखी एक रिपोर्ट में बताया है कि कैसे ये हिरासत केंद्र अव्यवस्थित तरह से काम करते हैं और व्यक्तियों को अधिकारहीनता की ओर धकेलते हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि 1951 के शरणार्थी सम्मेलन के अनुसार, सदस्य देश आप्रवासियों को हिरासत में नहीं ले सकते, निष्कासित नहीं कर सकते, या वापस नहीं भेज सकते, भले ही वे बिना अनुमति के ही प्रवेश करके क्यों न आए हों. यह देखते हुए कि भारत इसका एक सदस्य राज्य नहीं है, वह सम्मेलन द्वारा रखे गए नियमों से बाध्य नहीं है. इसलिए इसे अवैध प्रवासियों के खिलाफ पहचान, हिरासत और निर्वासन के माध्यम से कड़ी कार्रवाई करते देखा गया है.
रिपोर्ट कहती है कि हिरासत में रखे गए लोगों की दयनीय स्थिति विशेष तौर पर तब सामने आई जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के विशेष निगरानीकर्ता हर्ष मंदर ने शिविरों के भीतर के भयावह हालातों का खुलासा किया. इसमें सुमी गोस्वामी (बदला हुआ नाम) नाम की एक महिला के डिटेंशन सेंटर के अनुभव का भी जिक्र करते हुए कहा गया है कि उनका उदाहरण शायद बंदियों के साथ किए गए ख़राब व्यवहार का सबसे बड़ा उदाहरण है.
रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि विदेशी न्यायाधिकरण (फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल) की ओर से एक तकनीकी त्रुटि के कारण सुमी गोस्वामी को मटिया डिटेंशन सेंटर में भेजा गया था. सभी आवश्यक दस्तावेज होने के बावजूद उन्हें तीन दिनों तक हिरासत शिविर में रहने के लिए मजबूर किया गया, जिसके बाद उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया.
हिरासत केंद्र में बिताए अपने समय के बारे में सुमी ने बताया है, ‘कोई नहीं समझ पाएगा कि मैं किस दौर से गुजरी हूं. सिर्फ मैं ही समझ सकती हूं. अगर आप कभी किसी हिरासत शिविर में नहीं गए हैं तो आप नहीं समझ पाएंगे कि वहां रहना क्या होता है. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे यह देखना पड़ेगा.’
वहां की रहने की परिस्थितियों के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘एक सेल (कोठरी) के भीतर 14 से 15 लोग थे, जिसमें केवल एक बाथरूम था. पहले दिन जब मैं वहां गई तो मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि बाथरूम के दरवाजे आधे-अधूरे हैं, इस तरह कि आपका चेहरा बाहर से देखा जा सके. एक अधिकृत व्यक्ति से पूछने पर मुझे एहसास हुआ कि इन्हें कैदियों को आत्महत्या करने से रोकने के लिए (इस तरह) बनाया गया था. आधे दरवाजों के कारण बाथरूम से आने वाली दुर्गंध के कारण वहां खाना तो दूर, रहना भी असहनीय हो गया.’
गोस्वामी ने आगे कहा, ‘मैं लगातार दो रातों तक सोइ नहीं, बस बैठी रही. जिंदगी में मैंने कभी भी तरह का बिस्तर और गद्दा इस्तेमाल नहीं किया था जो उन्होंने मुझे दिया था.’
रिपोर्ट कहती है, ‘इस तथ्य के बावजूद कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) के दिशानिर्देशों के अनुसार सरकारी जेलों का उपयोग हिरासत के लिए नहीं किया जाना चाहिए, असम के केंद्र सामान्य जेलों के उप-भाग हैं और इसलिए घोषित ‘विदेशियों’ को अक्सर दोषी कैदियों के साथ एक ही सेल में रखा जाता है.’
सुमी गोस्वामी ने आजाद आवाज की टीम को बताया, ‘मैंने एक कैदी से पूछा कि वह वहां क्या कर रही है, उसने बताया कि उसने जमीन के लिए अपने भाई की हत्या की है. मैंने एक और महिला से यही सवाल पूछा, और उसने बताया कि उसे ड्रग्स की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. आप अपने चारों ओर अपराधियों के साथ एक कमरे में शांति से कैसे सो सकते हैं? … जिनकी नागरिकता पर संदेह है, उन्हें इन अपराधियों के साथ क्यों रखा जाता है? उन्होंने क्या अपराध किया है?’
सुमी ने टीम से कहा, ‘जब एक कैदी ने मुझे बताया कि वह दस साल से वहां रह रही है, तो मैं चौंक गई. अगर मुझे वहां हमेशा रहना पड़ता तो मैं ज़िंदा नहीं रहती.’
रिपोर्ट कहती है, सभी बंदी खराब परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर होते हैं, लेकिन महिलाओं को और भी बदतर परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, जिसमें हिंसा के अन्य स्वरूपों के अलावा यौन शोषण और जबरन गर्भपात की शिकायतें भी शामिल हैं.
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