एक अध्ययन में कहा गया है कि असम उन कुछ राज्यों में शुमार है जहां सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार राज्य पुलिस जवाबदेही आयोग (एसपीएसी) कार्यरत है, लेकिन 2022 में भाजपा सरकार द्वारा राज्य पुलिस अधिनियम में किए गए संशोधन आयोग की स्वतंत्रता से समझौता करते हैं.
नई दिल्ली: सूचना के अधिकार (आरटीआई) से मिली जानकारी पर आधारित एक अध्ययन से पता चला है कि हिमंता बिस्वा शर्मा सरकार द्वारा 2022 में असम पुलिस अधिनियम में किए गए संशोधन ने गंभीर कदाचार के दोषी पुलिसकर्मियों की जवाबदेही को तय करने में ‘गंभीर बाधा’ डाली है.
रिपोर्ट के अनुसार, प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय अधिकार संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) द्वारा प्रकाशित अध्ययन ‘भारतीय पुलिस शिकायत प्राधिकरण – स्थिति, कमियां, चुनौतियां’ में रेखांकित किया गया है कि हालांकि असम उन कुछ राज्यों में शुमार है जहां सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार 2008 से राज्य पुलिस जवाबदेही आयोग (एसपीएसी) कार्यरत है, लेकिन 2022 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार द्वारा राज्य पुलिस अधिनियम में किए गए संशोधन आयोग की स्वतंत्रता से गंभीरतापूर्वक समझौता करते हैं.
सितंबर 2022 में, विधेयक को चयन समिति को भेजने की विपक्ष की मांग को स्पीकर ने खारिज कर दिया था, जिसके बाद विपक्ष ने सदन से वॉक आउट कर दिया था और विधेयक ध्वनि मत से पारित हो गया था.
आयोग द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के आधार पर सीएचआरआई अध्ययन बताता है कि संशोधन ने ‘एसपीएसी के शासनादेश को कुंद करके’ पुलिस कर्मियों की जवाबदेही को कमजोर कर दिया है.
अध्ययन में बताया गया है कि संशोधन से पहले आयोग कदाचार को लेकर भी परामर्श और मार्गदर्शन देने का अधिकार रखता था, यह पक्षपाती जांच के खिलाफ महत्वपूर्ण निगरानीकर्ता था और इसने पुलिस जवाबदेही को काफी मजबूती से प्रोत्साहन दिया था.
हालांकि, राज्य विधानसभा द्वारा पुलिस अधिनियम में संशोधन, जिसमें जिलास्तरीय अधिकरणों का पुनर्गठन शामिल था, के साथ ही असम पुलिस से जवाबदेही की मांग करना मुश्किल हो गया है. इन जिला स्तरीय अधिकरणों को केवल एक मेज तक सीमित कर दिया गया है, जो शीर्ष अदालत द्वारा अनिवार्य की गई जांच शुरू करने की प्रक्रिया के बजाय प्राप्त शिकायतों को आगे बढ़ाने का काम करती है.
राज्य पुलिस अधिनियम में संशोधन होने तक, ‘असम एसपीएसी जांच शुरू किए बिना शिकायतों को खारिज नहीं करता था. 2022 और 2023 (मार्च तक) में, अधिकांश शिकायतें बिना जांच के बंद कर दी गईं, संभवत: ऐसा विधायी संशोधन के कारण कमजोर हुए एसपीएसी के कारण हुआ.’
अध्ययन में आगे कहा गया है कि आयोग के पास अब नियमित अंतराल पर लंबित जांचों की निगरानी करने की शक्ति नहीं है. आरटीआई के जरिये आयोग से प्राप्त आंकड़ों की व्याख्या करते हुए सीएचआरआई अध्ययन यह स्थापित करता है कि पिछले पांच सालों में ‘विभागीय जांच के लिए कम संख्या में सिफारिशें की गई हैं और एफआईआर दर्ज करने के लिए कोई सिफारिश नहीं की गई है.’
इसमें कहा गया है, ‘जिला जवाबदेही अधिकरणों में वृद्धि के बिना एसपीएसी की शक्ति कम करने का राज्य सरकार का कृत्य चिंता का कारण है.’
अध्ययन में जो महत्वपूर्ण बात सामने आई वह यह है कि राज्य सरकार ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में आयोग की सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया है. उदाहरण के लिए, अपनी 2018-2022 की वार्षिक रिपोर्ट में एसपीएसी ने सिफारिश की है कि राज्य सरकार उसे कार्यालय के स्थायी भवन के लिए भूमि आवंटित करे ताकि कार्यालय की जगह किराए पर लेने के लिए सरकारी खजाने से खर्च की जाने वाली ‘बड़ी राशि’ बचाई जा सके.
एक और उल्लेखनीय सुझाव राज्य के पुलिस महानिदेशक से जवाबदेही की मांग करना था, जिसमें उन्हें पुलिस अधिकारियों के खिलाफ विभागीय जांच पर एसपीएसी को त्रैमासिक स्थिति रिपोर्ट दिया जाना सुनिश्चित करने के लिए बाध्य करने की मांग की गई थी. साथ ही यह भी सिफारिश की गई थी कि किसी पुलिस अधिकारी के खिलाफ एफआईआर की जांच उससे कम से कम एक रैंक वरिष्ठ अधिकारी या राज्य सीआईडी द्वारा की जानी चाहिए.
अगर डीजीपी जांच कराने में अटकते हैं तो उनके खिलाफ कोई कार्रवाई का जिक्र नहीं है, जिससे इस सार्वजनिक कार्यालय की जवाबदेही काफी हद तक कम हो गई है. सीएचआरआई रिपोर्ट में एसपीएसी अधिनियम को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार बनाने की सिफारिश की गई है, जिसके तहत डीजीपी की ओर से असम एसपीएसी को इसकी सिफारिशों पर कार्रवाई को लेकर रिपोर्ट देने में ‘अनुचित देरी या विफलता’ को ‘मॉडल पुलिस विधेयक-2015 के अनुरूप कदाचार’ माना जाए.
वर्तमान में, आयोग के अध्यक्ष गौहाटी हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बीपी कटाके हैं, जबकि राज्य के पूर्व डीजीपी मुकेश सहाय, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी गौरव बोहरा और सेवानिवृत्त राज्य सेवा अधिकारी मोनिरत्न महंत इसके सदस्य हैं.
रिपोर्ट में इस पर भी प्रकाश डाला गया है कि उनका कार्यकाल इस दिसंबर तक समाप्त हो जाएगा और राज्य सरकार उन पदों को समय पर भरा जाना सुनिश्चित करे. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश में इसका एक सदस्य महिला और एक सिविल सोसाइटी से होने की बात कही गई है, लेकिन वर्तमान में असम एसपीएसी ने इसका पालन नहीं किया है.
रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया है कि आयोग का गठन बिना किसी पारदर्शिता के साथ किया जाता है.
उल्लेखनीय है कि हिमंता सरकार के सत्ता में आने के बाद से असम में पुलिस मुठभेड़ में होने वाली मौतों में खासी वृद्धि हुई है, जिसके चलते कुछ सिविल सोसाइटी समूहों ने इसकी जांच के लिए गौहाटी हाईकोर्ट से हस्तक्षेप की मांग की है. 2021 में मुख्यमंत्री शर्मा को सार्वजनिक रूप से पुलिस को यह निर्देश देते हुए देखा गया था कि संदिग्ध अपराधियों के हिरासत से भागने की कोशिश करने पर उनके ‘पैरों में’ गोली मारी जाए.