उदय शंकर भारतीय नृत्य के पारंपरिक रूपाकारों के साथ साहसिक शास्त्रीयता विकसित करना चाहते थे

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: उदय शंकर का नृत्य कम से कम तीन विश्वासों से प्रेरित नृत्य था: शास्त्रीयता में विश्वास, आधुनिकता में विश्वास और आत्मविश्वास. जिन कलाकारों ने भारतीय नृत्य में पश्चिमी रुचि जगाई उनमें उदय शंकर का नाम पहली पंक्ति में आता है.

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'कल्पना' के एक दृश्य में उदय शंकर. (साभार: ट्विटर/PeepulTreeWorld)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: उदय शंकर का नृत्य कम से कम तीन विश्वासों से प्रेरित नृत्य था: शास्त्रीयता में विश्वास, आधुनिकता में विश्वास और आत्मविश्वास. जिन कलाकारों ने भारतीय नृत्य में पश्चिमी रुचि जगाई उनमें उदय शंकर का नाम पहली पंक्ति में आता है.

‘कल्पना’ के एक दृश्य में उदय शंकर. (साभार: ट्विटर/PeepulTreeWorld)

वे सभी, जो भारतीय नृत्य के इतिहास और उसके आधुनिक काल से परिचित हैं, यह जानते हैं कि उदय शंकर ने एक तरह की शास्त्रीय आधुनिकता विकसित और विन्यस्त करने का प्रयास किया था. एक नर्तक और नृत्य-चिंतक के रूप में वे एक ओर तो भारतीय शास्त्रीय नृत्य का वैभव-सुषमा-ऊर्जा-लालित्य पश्चिम के समक्ष प्रस्तुत करना चाहते थे जो तब तक हमारी नृत्य-परंपरा से अनभिज्ञ था; दूसरी ओर, वे इस परंपरा में प्रयोग की संभावना और उसमें आधुनिक नवाचार की तलाश करना चाह रहे थे.

पश्चिम में उस समय आधुनिकता के अंतर्गत उनकी अपनी परंपरा लगातार प्रश्नांकित की जा रही थी ओर कई बार उसे हाशिये पर डालकर नई कल्पनाशील और दुस्साहसी सर्जनात्मकता का बोलबाला था. कलाओं में आख्यान को अपदस्थ कर अमूर्तन पर आग्रह बढ़ रहा था. उदय शंकर इन वृत्तियों को भी, किसी हद तक, अपने नृत्य में समाहित-संबोधित करना चाह रहे थे. वे भारतीय नृत्य के पारंपरिक रूपाकारों को पुनस्संयोजित कर एक नए क़िस्म की समावेशी और साहसिक शास्त्रीयता विकसित करना चाहते थे.

उन्होंने ये निर्भीक प्रयोग पश्चिम में रहकर भी किए और भारत में भी उन्हें कुछ टिकाऊपन देने की कोशिश में संस्थागत पहल भी की. यह स्पष्ट है कि उदय शंकर का नृत्य कम से कम तीन विश्वासों से प्रेरित नृत्य था: शास्त्रीयता में विश्वास, आधुनिकता में विश्वास और आत्मविश्वास.

जिन कलाकारों ने भारतीय नृत्य में पश्चिमी रुचि जगाई उनमें उदय शंकर का नाम पहली पंक्ति में आता है. उन्हें किसी तरह का शासकीय या सार्वजनिक समर्थन प्राप्त नहीं था. उनके वित्तीय साधन अल्प और सीमित थे. चूंकि वे नृत्य के किसी पारंपरिक परिवार से नहीं आते थे, उन्हें कोई सामुदायिक समर्थन भी नहीं मिल सका था. उनका प्रयत्न एकांतिक था: वह उनकी कल्पना, नृत्य-जिजीविषा और दुस्साहिकता का प्रतिफल था. इसी में उनकी सार्थकता और अंततः विफलता दोनों प्रगट और अंतर्भूत थे. उनके अपने व्यक्तित्व का, उस समय, मोहक आकर्षण था और उनकी सफलता और सार्थकता में इस व्यक्तित्व की बड़ी भूमिका थी.

उदय शंकर ने स्वयं कई शैलियों के मूर्धन्य गुरुओं से नृत्य सीखा था और उनके कई तत्वों को जोड़कर अपनी एक विशिष्ट और लगभग अद्वितीय शैली बनाई थी. इन शैलियों की परंपरा में व्यक्ति का महत्व होता है, कई बार केंद्रीयता तक. पर यह सब परंपरा के अंतर्गत ही होता है, उसके बाहर नहीं.

उदय शंकर किसी पारंपरिक शैली के नृत्यकार नहीं बने. इसलिए वे, उदाहरण के लिए, भरतनाट्यम, कथकली, कथक आदि की पारंपरिक स्मृति में स्थान नहीं पा सके. हालांकि, इन सभी शैलियों से उन्होंने कुछ न कुछ सीखा और ग्रहण किया था. इन सभी पारंपरिक शैलियों में नवाचार हुआ है: उदाहरण के लिए बिरजू महाराज का कथक में, केलुचरण महापात्र का ओडिसी में और उसे समझा-सराहा गया है. लेकिन उदय शंकर का नवाचार किसी शैली में समाहित नहीं हो पाया.

उसकी थोड़ी-बहुत परंपरा बनी, जिसमें नरेंद्र शर्मा, अमला शंकर जैसे महत्वपूर्ण नर्तक हुए. पर कुल मिलाकर वह आगे नहीं चल पाया. वे नृत्य में नवाचार के प्रतीक-पुरुष के रूप में तो मान्य और लोकप्रिय हुए. शास्त्रीयता के क्षेत्र में अनेक नवाचारियों से उदय शंकर से प्रेरणा ली है.

नवाचार की दुस्साहसिकता को भी उन्होंने उदय शंकर के उदाहरण से ही पहचाना और उसने उन्हें कुछ आत्मविश्वास भी दिया. तथाकथित नृत्य-नाट्य या बैले के जो प्रयोग आधुनिक समय में हुए हैं उन्हें भी उदय शंकर के पथप्रदर्शक प्रयोगों के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है.

उदय शंकर ने विभिन्न शैलियों के बीच जो निरंतर संवाद और सहकार का सिलसिला शुरू किया था, वह भी कुछ हिचक और डगमग भाव से चलता रहा है. इनके बीच कभी-कभार होने वाला सहकार का मूल भी उदय शंकर के प्रयत्न में निहित है. उदय शंकर ने ‘कल्पना’ शीर्षक एक फिल्म भी बनाई थी जिसका कथ्य सुमित्रानंदन पंत ने लिखा था. वह व्यापक रूप से दिखाई नहीं जा सकी, पर भारत के प्रयोगशील और नवाचारी सिनेमा में उसका स्थान है और वह आज भी याद की जाती है.

‘कल्पना’ का एक दृश्य. (साभार: ट्विटर/NFDC-National Film Archive of India)

मंसूबे और झांसे

नया बरस जब शुरू होता है तो रस्मी तौर पर हम कुछ मंसूबे बनाते हैं कि इस बरस हम यह करेंगे, जो पिछले बरस करने से छूट गया उसे करेंगे वगैरह. हम जैसे बूढ़ों के सामने यह सवाल भी पूरी अनिवार्यता के साथ खड़ा और अड़ा रहता है कि अब समय कितना बचा है. एक बड़ी मुश्किल यह है कि हम बीतते जाते हैं, हमारे अंग-प्रत्यंग शिथिल होते जाते हैं पर हमारे मंसूबे बुलंद रहे आते हैं.

इन दिनों हर नाउम्मीदी परस गई नज़र आती है, पर हम उम्मीद का दामन फिर भी थामे रहते हैं. हम अपने किए की सारी अकारथता के बावजूद यह मानने से बाज़ नहीं आते कि हमारे कुछ करने से कुछ फ़र्क पड़ता है. हम इस एहसास को किनारे कर देते हैं कि हमारे किए से हम ही को कोई फ़र्क नहीं पड़ता तो दूसरों को कैसे पड़ सकता है.

हम शायद कुछ ख़ास बदल नहीं सकते लेकिन बदलने के अपने मंसूबे को छोड़ नहीं पाते. जो हमने किया वह काफ़ी है और अब कुछ ख़ास करने की ज़रूरत नहीं है यह बात हम मान नहीं पाते. थोड़ा-बहुत सार्थक करने और ज़्यादातर निरर्थक करने में व्यस्त रहने में हम फंसे रहते हैं. एक तरह की अबूझ निरर्थकता से हम मुक्ति नहीं पा सकते.

इस उदास आकलन से यह छूटा जा रहा है कि जब हम अपने लिए नहीं दूसरों के लिए कुछ करते हैं तो वह सार्थक हो या निरर्थक इससे जो संतोष या असंतोष मिलता है उसका कुछ नैतिक या कहें आध्यात्मिक महत्व होता है, किसी और के लिए नहीं, अपने लिए. आप अपने आत्म को सत्यापित या समृद्ध तभी करते हैं जब उसका ‘पर’ से कोई संवाद-संबंध-सहकार हो. आत्म अपने तक महदूद रहकर किसी तरह की टिकाऊ या सार्थक तुष्टि नहीं पा सकता.

अपने न किए या न कर पाए को याद करना कष्टप्रद होता है. हमें लगता है कि हमने अपनी क्षमता, अवसर और सक्रियता के साथ विश्वासघात-सा कुछ किया है कि हम कुछ नहीं कर सके या पाए. इसका सीधा आशय यह है कि हमसे हर किसी का जीवन अनेक विडंबनाओं और अंतर्विरोधों से भरा-पूरा होता है. हम उसे स्याह, सफ़ेद और भूरे की श्रेणियों में नहीं रख सकते. हम अपने जीवन की जटिलता से अक्सर बचना चाहते हैं- उसे स्वीकार तक करने से हम हिचकते हैं. नायक ही जटिल नहीं होते, सीधे-सादे लोग भी जटिल होते हैं.

इस जटिलता का एक पक्ष यह है कि वह, हमारे कठिन समय में, इतनी सघन हो गई है कि हम उसे धारण तो किए हैं पर हमें इसका एहसास बहुत कम है और उसको समझने का धीरज-समय-हुनर कम हो रहे हैं. हमको समझ में नहीं आ रहा है कि हमारी असली समस्याएं क्या हैं और उनको हम कैसे हल कर सकते हैं. इन दोनों कामों को हमने दूसरों पर छोड़ दिया है. ये दूसरे हमें लगातार अटका-भटका रहे हैं, हमें झांसे दे रहे हैं, हमें सचाई से दूर झूठ में ढकेल रहे हैं.

ग़ालिब ने बहुत पहले कहा था: ‘आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा होना’. हम देख सकते हैं कि व्यापक रूप से हमारे देश में और संसार में ऐसी शक्तियां बहुत बढ़ गई हैं जो हमें अपनी असली इंसानियत हासिल करने से रोक रही हैं. हम झांसों की भीड़ में इंसान हो सकने का मंसूबा लिए चल रहे हैं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)