जो समाजवादी पार्टी 1993 के दौर से भी पहले से धर्म और राजनीति के घालमेल के पूरी तरह ख़िलाफ़ रही और धर्म की राजनीति के मुखर विरोध का कोई भी मौका छोड़ना गवारा नहीं करती रही है, अब उसके लिए धर्म अनालोच्य हो गया है.
अयोध्या के हिंदुत्ववादी कायापलट के बीच ‘वहीं’ बन रहे राम मंदिर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से जुड़ी गतिविधियों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परिवार (या भारतीय जनता पार्टी के खेमे) में इन दिनों जो बहार दिखाई दे रही है, वह बहुत स्वाभाविक है- उनके स्वयंसेवकों व कार्यकर्ताओं का यह मंसूबा बांधकर बल्लियों उछलना भी कि इन गतिविधियों की मार्फत वे अपने पक्ष में 1990-92 से भी बड़ा ‘जनज्वार’ पैदा कर लेंगे, जिससे न सिर्फ उनकी सत्ता की उम्र बढ़ेगी, बल्कि राजनीतिक भविष्य और सुनहरा हो जाएगा.
उन्हें क्या फर्क पड़ता है, अगर इस चक्कर में देश, उसके लोकतंत्र, संविधान व उनके पवित्र मूल्यों की दुर्गति हो जाए! उन्होंने इसकी फिक्र ही भला कब की?
लेकिन अपने स्थापनाकाल से ही खुद को धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय वगैरह की चैंपियन बताती आई समाजवादी पार्टी (जो पिछले कई दशकों से उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रबलतम प्रतिद्वंद्वी है) का इस बीच अचानक अपनी ‘हिंदू विरोधी’ छवि से हलकान-परेशान दिखने लगना और उससे पीछा छुड़ाने की बेचैन हड़बड़ी में इस सीमा तक चले जाना बेहद अस्वाभाविक लगता है कि उसे, और तो और, अपने कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य का यह सवाल भी असुविधाजनक लगने लगे कि हिंदू धर्म बारे में उनके जो कुछ कहने पर उन्हें भावनाओं को आहत करने का कसूरवार ठहराकर बवाल किया जाने लगता है, वही बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार में मंत्री नितिन गडकरी व संघ के प्रमुख मोहन भागवत वगैरह कहते हैं तो बवाल करने वालों की भावनाएं आहत क्यों नहीं होतीं?
गौरतलब है कि जो समाजवादी पार्टी 1993 में शुरू हुए ‘हवा हो गए जय श्री राम’ के दौर से भी पहले से धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल और धर्म व राजनीति के घालमेल के पूरी तरह खिलाफ रही और धर्म की राजनीति के मुखर विरोध का कोई भी मौका छोड़ना गवारा नहीं करती रही है, अब उसके लिए धर्म अनालोच्य हो गया है. तभी तो अब उसके अध्यक्ष अखिलेश यादव पार्टी महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य को बारंबार किसी भी धर्म (या जाति) के विरुद्ध टिप्पणी से बचने की नसीहत देते और कहते हैं कि उनकी नीति सभी धर्मों के सम्मान की है. ऐसे में वे उनके उक्त सवाल के साथ क्योंकर खड़े होने लगे?
गत 25 दिसंबर को पार्टी की महाब्राह्मण महापंचायत में बात कथित रूप से मौर्य के हिंदूविरोधी बयानों की निंदा तक पहुंच गई, तो भी उन्होंने ठंडा रवैया ही अपनाया. यह पूछने का साहस नहीं दिखा पाए कि स्वामी प्रसाद हिंदू धर्म को धोखा बताकर गलती कर रहे हैं तो हिंदू धर्म और उसके आराध्य राम का निर्लज्ज राजनीतिक इस्तेमाल करने वाले क्या कर रहे हैं? क्या उनकी धोखाधड़ी स्वामी को सही हीं ठहरा रही? इसके उलट उन्होंने कहा कि स्वामी प्रसाद के बयानों से सपा का बहुत नुकसान हो रहा है.
यहां यह भी गौरतलब है कि सपा के प्रवक्ता तो इससे पहले ही स्वामी प्रसाद के बयानों को उनकी निजी राय बताकर पार्टी को उनसे अलग कर चुके थे. इसके बावजूद पार्टी को लगा कि इतने भर से बात नहीं बनेगी, तो उसने महाब्राह्मण महापंचायत के अगले ही दिन अयोध्या में अपने वरिष्ठतम नेता और अखिलेश सरकार में मंत्री रहे तेजनारायण पांडेय ‘पवन’ को भी मौर्य के खिलाफ मैदान में उतार दिया. पांडेय ने एक संवाददाता सम्मेलन करके स्वामी प्रसाद को खूब खरी-खोटी तो सुनाई ही, यहां तक कह दिया कि स्वामी प्रसाद को भाजपा ने ही इस मंशा से सपा में भेज रखा है कि वे इसी तरह हिंदुओं को आहत करके सपा की छवि खराब कर उसका काम करते रहें.
पांडेय ने उन पर मीडिया की चर्चाओं में बने रहने और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए बेवकूफी भरे ड्रामे व अनर्गल प्रलाप करने के आरोप लगाते हुए निजी हमले भी किए. साथ ही ‘डबल गेम’ का आरोप लगाते हुए पूछ लिया कि अगर उन्हें सनातन, हिंदू धर्म व देवी-देवताओं से इतनी ही दिक्कत है तो उसकी बाबत सबसे पहले अपनी बेटी को ही क्यों नहीं बताते और उसे अपनी राह पर क्यों नहीं लाते? बेटी तो भाजपा सांसद बनी हुई है, सनातन का झंडा उठाए घूम रही है, रोज-रोज हिंदू देवी-देवताओं की पोस्ट लगाती है और बाप 24 घंटे उन सबका विरोध करता घूमता है!
दूसरे पहलू पर जाएं, तो सपा के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है और है तो वह उसे देना नहीं चाहती कि स्वामी प्रसाद को भाजपा ने सपा में भेजा है, जैसा कि पांडेय के साथ उसके प्रवक्ता कह रहे हैं, तो वह ‘देर आयद दुरुस्त आयद’ की राह अपना कर उन्हें निकाल क्यों नहीं देती, उलटे अपना राष्ट्रीय महासचिव क्यों बनाए हुए हैं? जब उसे भाजपा द्वारा अपनी केंद्र व प्रदेश सरकारों की शक्तियों का दुरुपयोग कर अयोध्या में रामलला के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के धार्मिक उत्सव को पूरी तरह राजनीतिक बना डालने के विरुद्ध मुखर होना चाहिए था, वह स्वामी प्रसाद को लेकर उलझी हुई है?
जानकारों के अनुसार, जिस सपा को अखिलेश ने उसके संस्थापक मुलायम सिंह यादव से उनके जीते जी ही छीन लिया था, अब वे जानें क्यों सामाजिक न्याय के आकांक्षी पिछड़ों, दलितों व अल्पसंख्यकों के बीच उसकी सिकुड़ गई अपील का फिर से विस्तार करने वाले आत्मावलोकन का मार्ग प्रशस्त करने को लेकर गंभीर नहीं दिखाई देते- उसके लगातार चार चुनाव हारने के बावजूद, जिनमें दो लोकसभा और दो विधानसभा के हैं.
इसके विपरीत वे अपने ऐसे नेताओं के दबाव में दिखते हैं जो भाजपा से इस हद तक आक्रांत हैं कि समझते हैं कि उसने पिछड़ी व दलित जातियों, यहां तक कि यादवों में भी हिंदू होने की जो ‘नई’ चाह जगा दी है, उससे उसके हिंदुत्व की जड़ें इतनी गहराई तक जम गई हैं कि सपा धर्मनिरपेक्षता व सामाजिक न्याय की चैंपियन बनी रहकर उन्हें उखाड़ने चलेगी तो ऐसे ही अपनी लुटिया डुबोती रहेगी, इसलिए अब उसे हिंदुत्व के प्रति थोड़ी नरम हो चाहिए.
हालांकि, पार्टी में एक समझदारी यह भी है कि सॉफ्ट हिंदुत्व की राह जाने से उसे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला- वैसे ही, जैसे कांग्रेस को कुछ हासिल नहीं हो रहा, क्योंकि जब भी चुनाव सॉफ्ट व हार्ड हिंदुत्व के बीच होता है, जीतता हार्ड हिंदुत्व ही है. विडंबना यह कि इसके बावजूद सपा सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर जाने का लोभ छोड़ नहीं पा रही, इसीलिए कभी राम मंदिर के जवाब में कृष्ण के मंदिर की बात करने लगती है और कभी परशुराम को अपना डॉ. राममनोहर लोहिया से भी बड़ा आराध्य बनाने के फेर में पड़ जाती है.
इसी ‘फेर’ के चलते वह भाजपा के कन्नौज के सांसद सुब्रत पाठक द्वारा गत दिनों श्रीरामजन्मभूूमि तीर्थक्षेत्र ट्रस्ट को लिखे उस पत्र पर कड़ी या तार्किक प्रतिक्रिया से बचती नजर आई, जिसमें पाठक ने मांग की थी कि अयोध्या में 30 अक्टूबर, 1990 को कारसेवा के दौरान रामभक्तों (कारसेवकों) पर गोलियां चलवाने वालों (यानी सपा नेताओं) को 22 जनवरी के रामलला के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का न्योता ही न दिया जाए.
कहने की जरूरत नहीं कि पाठक की यह मांग सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री के तौर पर उनके द्वारा की गई उस कार्रवाई के लिए लांछित करने की कोशिश थी, जिसे वे बाबरी मस्जिद ही नहीं, संविधान की रक्षा के लिए भी जरूरी बताते थे और उसे लेकर कतई क्षमाप्रार्थी नहीं थे. और दिन होते तो पाठक के इस ‘कुवाचन’ पर सपा बिफर पड़ती और आसमान सिर पर उठा लेती.
लेकिन वह इतने भर से ‘संतुष्ट’ हो गई कि श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने पाठक की मांग को व्यक्तिगत बताकर खारिज कर दिया है (वैसे ही, जैसे सपा ने स्वामी प्रसाद मौर्य के बयानों को), साथ ही यह भी कह दिया है कि प्रभु राम तो सबके हैं और ट्रस्ट किसी को बुलाना भूल जाए तो भी, वह उनके दर्शन करने आ ही सकता है.
सपा का यह संतोष तब है जब ट्रस्ट ने विपक्षी दलों के अयोध्या के नेताओं में कांग्रेस के पूर्व सांसद निर्मल खत्री को तो प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का निमंत्रण दिया है, लेकिन सपा के अयोध्या के दोनों पूर्व विधायकों- जयशंकर पांडेय व तेजनारायण पांडेय पवन को छोड़ दिया है.
ये पंक्तियां लिखने तक अखिलेश यादव के निमंत्रण को लेकर भी स्थिति साफ नहीं है. लेकिन वे और उनकी सांसद पत्नी डिंपल यादव दोनों कह रहे हैं कि निमंत्रण मिलेगा तो भी, और नहीं मिलेगा तो भी, वे देर-सवेर रामलला के दर्शन को अयोध्या पहुंचेंगे ही. रविवार को अपने ताजा बयान में भी अखिलेश यादव ने यह कहकर इस बाबत गोलमोल-सा ही जवाब दिया कि ‘जब भगवान बुलाएंगे, मैं अयोध्या जाऊंगा.’
कौन कह सकता है कि ‘धरतीपुत्र’ मुलायम होते तो भी इस मामले में यही दृष्टिकोण अपनाते? वामपंथियों को अपना स्वाभाविक सहयोगी करार देने वाले धरतीपुत्र क्या मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की तरह दो टूक नहीं कह देते कि भाजपा द्वारा इस धार्मिक अनुष्ठान के राजनीतिकरण के चलते वे उससे दूर ही रहेंगे, क्योंकि उनकी मान्यता है कि देश की सत्ता किसी एक धर्म के रंग में रंगी नहीं होनी चाहिए? सवाल है कि अखिलेश की सपा ऐसा क्यों नहीं कह रही?
क्यों अखिलेश इस मामले में वे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जितना भी नैतिक साहस नहीं प्रदर्शित कर रहे? तब भी, जब भाजपा इसको उनकी सदाशयता के नहीं, ऊंट के पहाड़ के नीचे आने के रूप में देख रही है. क्यों कांग्रेस की ही तरह इस बेहद नाजुक मोड़ पर धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में मजबूती से खड़े रहने का उनका साहस जवाब दे गया है?
उनका दुर्भाग्य कि इसके बावजूद उनकी पार्टी को उसकी कथित हिंदूविरोधी छवि से छुटकारा नहीं मिल रहा. उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य यह तक मानने को तैयार नहीं हैं कि स्वामी प्रसाद के बयानों की स्क्रिप्ट अखिलेश की नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)