बिलक़ीस बानो के लिए लड़ने वाली महिलाओं ने कहा- यह किसी अकेले की लड़ाई नहीं है

बिलक़ीस बानो के सामूहिक बलात्कार और उनके परिजनों की हत्या के 11 दोषियों की गुजरात सरकार द्वारा सज़ा माफ़ी और रिहाई को रद्द करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पीछे कुछ महिलाएं हैं जो बिलक़ीस को न्याय दिलाने के लिए आगे आईं.

/
(बाएं से) महुआ मोइत्रा, रेवती लाल, शोभा गुप्ता, बिलकीस बानो, मीरा चड्ढा बोरवणकर, सुभाषिनी अली और रूप रेखा वर्मा.

बिलक़ीस बानो के सामूहिक बलात्कार और उनके परिजनों की हत्या के 11 दोषियों की गुजरात सरकार द्वारा सज़ामाफ़ी और रिहाई को रद्द करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पीछे कई महिलाएं हैं जो बिलक़ीस को न्याय दिलाने के लिए आगे आई थीं.

(बाएं से) महुआ मोइत्रा, रेवती लॉल, शोभा गुप्ता, बिलकिस बानो, मीरा चड्ढा बोरवणकर, सुभाषिनी अली और रूपरेखा वर्मा.

नई दिल्ली: आजादी के 75 साल पूरे होने का जश्न मनाते हुए मोदी ने लालकिले से ‘नारी शक्ति’ का आह्वान किया था और ‘हर उस व्यवहार, संस्कृति को समाप्त करने का आह्वान किया था जो महिलाओं को अपमानित करता है और नीचा दिखाता है.’

उसी समय, 2002 में गुजरात दंगों के दौरान गर्भवती बिलकिस बानो और उसके परिवार के सदस्यों के साथ सामूहिक बलात्कार करने और उनमें से कम से कम 14 लोगों की हत्या करने के लिए आजीवन कारावास की सजा काट रहे 11 दोषियों को गोधरा उप-जेल से सज़ा माफ़ी के बाद रिहा कर दिया गया था.
गुजरात सरकार द्वारा की गई इस समयपूर्व रिहाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख करने वाले याचिकाकर्ताओं को प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता दिवस के भाषण ने ही बिलकीस के समर्थन में आगे आने के लिए विवश किया था.
सीपीआई (एम) नेता और कार्यकर्ता सुभाषिनी अली ने द वायर  से कहा, ’15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री महिला सुरक्षा और नारियों के सम्मान के बारे में बात कर रहे थे, गुजरात सरकार ने उन्हें (दोषियों को) माफी का आदेश दे दिया और रिहा कर दिया. फिर मैंने सुना कि बिलकीस ने एक बयान दिया है, ‘क्या यह न्याय का अंत है?’ इसने वास्तव में मुझे और मेरे जैसे कई लोगों को हिलाकर रख दिया जिन्होंने सोचा, ‘हमारे यहां होने का क्या फायदा?’

सुभाषिनी अली, पूर्व प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा और पत्रकार रेवती लॉल ने संयुक्त रूप से गुजरात सरकार के छूट और रिहाई आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.

अली ने कहा, ‘हम यह सोचने का प्रयास कर रहे थे कि हम क्या कर सकते हैं और यह बहुत भाग्य वाली बात रही कि कपिल सिब्बल और अपर्णा भट्ट और अन्य वकील आगे आए.’

बता दें कि 8 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार के रिहाई आदेश को रद्द कर दिया था और कहा कि सरकार के पास दोषियों को इस तरह रिहाई देने की शक्ति नहीं है और निर्देश दिया कि वे दो सप्ताह के भीतर जेल लौट जाएं. अदालत ने यह भी कहा कि गुजरात सरकार ने दोषियों के साथ ‘मिलीभगत से काम किया.’

जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने यह भी कहा कि जस्टिस अजय रस्तोगी और विक्रम नाथ की पीठ द्वारा 13 मई 2022 को दिया गया फैसला, जिसमें गुजरात सरकार को सजामाफी पर विचार करने का निर्देश दिया गया था, ‘अमान्य’ है क्योंकि यह ‘अदालत के साथ धोखाधड़ी करके’ प्राप्त किया गया था.

‘देश के साथ क्रूर मजाक’

जब सजामाफी के आदेश की खबर आई उस समय लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा दिल्ली में थीं. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री का भाषण ‘देश के साथ एक क्रूर मजाक’ था.

उन्होंने द वायर  से कहा, ‘प्रधानमंत्री जो अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में महिलाओं पर हिंसा का रोना रो रहे थे, उन्होंने पहले ही सजामाफी की अनुमति दे दी थी. वह देश के साथ एक क्रूर मजाक था.’

वर्मा ने कहा कि तब उन्होंने अपने कुछ दोस्तों और सहयोगियों के साथ घटनाक्रम पर चर्चा की और कानूनी विकल्प तलाशने का ‘सामूहिक विचार सामने आया.’

उन्होंने कहा, ‘हालांकि उस समय तक हमारे पास ऐसे पर्याप्त उदाहरण थे कि हम अदालतों की ओर ज्यादा उम्मीद से नहीं देख सकते थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में याचिका के अलावा खटखटाने के लिए कोई दूसरा दरवाजा नहीं था.’

पत्रकार रेवती लॉल इस मामले में याचिकाकर्ता बनने के लिए तब आगे आईं, जब उन्हें बताया गया कि वे एक तीसरी महिला याचिकाकर्ता की तलाश कर रहे हैं.

उन्होंने द वायर  को बताया, ‘वे एक तीसरी महिला याचिकाकर्ता की तलाश कर रहे थे जिसके पास इस मामले में अदालत में खड़ा होने का कुछ अधिकार हो. मुझसे पूछा गया कि क्या मैं तीसरी याचिकाकर्ता बनना चाहूंगी. मैंने ‘एनाटॉमी ऑफ हेट’ किताब लिखी थी जो गुजरात दंगों पर आधारित है. मैं इस मामले से गहरे से जुड़ी रही हूं तो मैंने सहमति दे दी.’

याचिकाकर्ताओं ने बताया कि याचिका दायर करने के बाद उन्हें पता चला कि वकील इंदिरा जयसिंह के माध्यम से तत्कालीन तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा ने एक और जनहित याचिका दायर की है. इसके बाद सितंबर 2022 में पूर्व आईपीएस अधिकारी मीरा चड्ढा बोरवणकर ने भी एक और याचिका दायर की. उनके समूह में याचिकाकर्ता जगदीप छोकर और मधु भंडारी शामिल थे.

बोरवणकर ने कहा कि जब उन्हें एहसास हुआ कि बानो ने खुद से सजामाफी के आदेशों को चुनौती नहीं दी है, तब उन्होंने ‘आगे आने’ और मामला दायर करने का फैसला किया.

हालांकि, बाद में बानो ने भी अदालत का रुख किया.

‘बिलकीस बानो को आगे क्यों आना पड़ा?’

बानो ने नवंबर, 2022 में सजामाफी के आदेश के खिलाफ शीर्ष अदालत का रुख किया था. यह फैसला उन्होंने एक दोषी द्वारा दायर उस याचिका के बाद लिया था जिसमें इन याचिकाओं की विचारणीयता पर सवाल उठाते हुए कहा गया था कि याचिकाकर्ताओं के पास मामले में अदालत आने का कोई अधिकार नहीं है और वे इस मामले में ‘पूरी तरह से अजनबी’ हैं.

दो दशकों से बानो की वकील रहीं शोभा गुप्ता ने द वायर  से बात करते हुए कहा कि इन याचिकाओं की विचारणीयता को अदालत में चुनौती दिए जाने के बाद बानो को याचिकाकर्ता बनना पड़ा था.

गुप्ता ने कहा, ‘मैं व्यक्तिगत तौर पर पूरी तरह से स्पष्ट थी, अकेले उन्हें ही क्यों आगे आना चाहिए?’ यह कोई व्यक्तिगत अपराध नहीं था. यह मानवता के विरुद्ध अपराध था और बर्बर प्रकृति का अपराध था. यह समाज को तय करना है. इसलिए वह शुरुआत में मामले में नहीं आईं और मुझे खुशी है कि उन्होंने फैसला करने में पूरा समय लिया. इस बीच, कुछ अच्छे लोगों ने माफी आदेश को चुनौती दी और अदालत ने 25 अगस्त (2022) को जनहित याचिकाओं पर एक नोटिस जारी किया.’

उन्होंने कहा का बानो के लिए यह ‘कठोर आघात’ था. कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह इतने गुप्त तरीके से हो सकता है. अचानक आप पाते हैं कि आपके बलात्कारी सम्मानित होकर घूम रहे हैं.

‘न्याय की राह में मील का पत्थर’

11 दोषियों को अब अदालत द्वारा जेल लौटने का निर्देश दिए जाने के बाद मोइत्रा की ओर से पैरवी करने वालीं अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने कहा कि फैसला असाधारण है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ‘बहुत कम ही अपने फैसले को अमान्य घोषित करता है.’

उन्होंने कहा कि फैसला न्याय की यात्रा में एक मील का पत्थर है.

वहीं, प्रोफेसर वर्मा ने कहा कि यह फैसला ऐसे समय आया है जब सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा कम हो गया है. उन्होंने कहा, ‘इससे पता चलता है कि कुछ जज ऐसे हैं जो सरकार के कर्मचारियों के रूप में काम नहीं करते हैं, बल्कि वही करते हैं जो उनसे अपेक्षा की जाती है.’

पत्रकार लॉल ने कहा कि यह फैसला अंधेरे में ‘रोशनी की किरण’ के रूप में आया है.

अली ने कहा कि इस फैसले के पीछे बड़ा संदेश इसे ‘महिलाओं के मुद्दे’ से परे देखना है. उन्होंने कहा, ‘कृपया इसे एक महिला की लड़ाई के रूप में न देखें. यह इस देश को घोर अन्याय और हर तरह से संविधान को मनुस्मृति द्वारा प्रतिस्थापित किए जाने से बचाने की लड़ाई है.’

बोरवणकर ने कहा कि हालांकि बानो को न्याय दिलाने के लिए बड़े पैमाने पर महिलाओं के एक समूह की जरूरत पड़ी, लेकिन फैसला दिखाता है कि ‘सरकार का आचरण में पक्षपातपूर्ण नहीं हो सकता.’

बहरहाल, सोमवार को बानो ने फैसले के बाद अपने पहले सार्वजनिक बयान में कहा कि ‘वे अब सांस ले पा रही हैं.’

गुप्ता ने कहा कि 2002 में दंगों के बाद जब उन्हें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने मामले में वकील के रूप में शामिल किया था, तब से उन्होंने इस मामले में एक पैसा भी फीस नहीं ली है.

वे कहती हैं, ‘अगर  आपके पास एक वकील के रूप में क्षमता है तो आप समाज के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते? मुझे तब इस पेशे में सिर्फ पांच साल ही हुए थे. एनएचआरसी ने मुझसे कहा था कि हमारे पास वकीलों को भुगतान करने के लिए पर्याप्त धनराशि है लेकिन मैंने कहा कि इस मामले में कागजी कार्रवाई तक के लिए पैसा नहीं लूंगी. मैं उसके साथ खड़ी रही क्योंकि हम उसे और समाज को बताना चाहते हैं कि आप अकेले नहीं हैं और यह किसी अकेले की लड़ाई नहीं है.’

इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.