मुंबई: बॉम्बे हाईकोर्ट ने बीते बुधवार (31 जनवरी) को आईटी संशोधन नियम, 2023 के नियम 3(i)(II)(ए) और (सी) को रद्द करने की मांग वाली याचिका पर खंडित फैसला सुनाया.
नए नियम केंद्र सरकार को सोशल मीडिया पोस्ट का आकलन करने और पोस्ट को ‘फर्जी, गलत या भ्रामक’ करार देने के लिए ‘फैक्ट-चेक इकाई’ (एफसीयू) स्थापित करने की शक्ति देते हैं.
याचिका स्टैंड-अप कॉमेडियन और राजनीतिक व्यंग्यकार कुणाल कामरा, एसोसिएशन ऑफ इंडियन मैगजीन्स, न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा दायर की गई थी.
जस्टिस गौतम पटेल और जस्टिस नीला गोखले की खंडपीठ ने सत्र की अध्यक्षता की. जहां जस्टिस पटेल ने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में आदेश पारित किया, वहीं जस्टिस गोखले ने नियमों में किए गए संशोधन को बरकरार रखा.
मामला अब दूसरे जज के पास भेजा जाएगा. इस बीच आने वाले 10 दिनों तक फैक्ट-चेक इकाई को अधिसूचित नहीं किया जाएगा.
संशोधित नियमों के तहत एक बार अगर सरकार की फैक्ट-चेक इकाई किसी सामग्री (Content) को नकली, गलत या भ्रामक के रूप में पहचानती है, तो एक्स (पूर्व में ट्विटर), इंस्टाग्राम और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को या तो उसे हटाना होगा या एक अस्वीकरण (Disclaimer) जोड़ना होगा.
हालांकि, जस्टिस पटेल ने 148 पेज के आदेश में कहा कि सरकार द्वारा भाषण/सामग्री को ‘सही या गलत’ के रूप में वर्गीकृत करना और इसके गैर-प्रकाशन के लिए बाध्य करना ‘सेंसरशिप के अलावा कुछ नहीं’ हो सकता है.
कामरा की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता नवरोज सीरवई ने सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं की सामग्री को नकली, गलत या भ्रामक के रूप में चिह्नित किए जाने की स्थिति में उनके पास इसे चुनौती देने के लिए उपलब्ध उपायों की कमी पर चिंता जताई थी.
सीरवई ने यह भी तर्क दिया था कि उक्त आईटी नियम प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं.
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता डेरियस खंबाटा, अरविंद दातार, अधिवक्ता शादान फरासत और गौतम भाटिया सहित कई अनुभवी वकील पेश हुए.
याचिकाकर्ताओं ने बताया कि सरकार को यह तय करने की अनुमति देना कि नकली और गलत क्या है, मनमाने और भेदभावपूर्ण आदेशों का जोखिम है तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के साथ-साथ सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 (1) (ए) का उल्लंघन होगा.
दातार ने तर्क दिया था कि यह नियम संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर लगाए गए प्रतिबंधों को पार करने का प्रयास करता है.
अनुच्छेद 19 (2) सरकार को ‘सार्वजनिक व्यवस्था के हित में’ भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ‘उचित प्रतिबंध’ लगाने की अनुमति देता है.
इस दौरान केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सोशल मीडिया पर फर्जी खबरों को अनुमति देने के खतरों के बारे में बात की.
इस पर जस्टिस पटेल ने कहा, ‘हमारी संवैधानिक योजना में स्वतंत्र भाषण को हमेशा कम-विनियमित किया जाना चाहिए और इस पर प्रतिबंध – नियंत्रण और संक्षिप्तीकरण के प्रयास – को अति-विनियमित किया जाना चाहिए.’
उन्होंने आगे कहा, ‘यह कोई निष्कर्ष नहीं है कि झूठ या फर्जी समाचार या डीपफेक का कोई मौलिक अधिकार है. इसके बिल्कुल विपरीत हमारे सामने यह सवाल ही नहीं है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘एकमात्र मुद्दा यह है कि क्या हमारे संवैधानिक ढांचे में सरकार के पास सामग्री और अभिव्यक्ति दोनों को ‘सत्य’ के रूप में निरंकुश निर्धारण पर पहुंचने और सामग्री और अभिव्यक्ति के एक विशेष रूप को मजबूर करने के लिए एक सर्वोपरि अधिकार है? मुझे इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में सबसे बड़ी कठिनाई होगी.’
अपने तर्क का समर्थन करने के लिए मेहता ने अदालत में हॉलीवुड अभिनेता मॉर्गन फ्रीमैन और अन्य प्रसिद्ध हस्तियों के डीपफेक दिखाने वाले वीडियो क्लिप चलाए थे.
जस्टिस नीला गोखले ने अपने 92 पेज के आदेश में संशोधित फैक्ट-चेक यूनिट खंड को बरकरार रखते हुए कहा, ‘गलत सूचना पर विश्वास न केवल खराब निर्णय लेने का कारण बन सकता है, बल्कि यह सही होने के बाद भी लोगों के तर्क पर गहरा प्रभाव डालता है.’
उन्होंने आगे कहा कि ‘सोशल मीडिया बिचौलियों (Intermediaries) पर फर्जी खबरों के खतरों को अब और कम नहीं किया जा सकता है’.
उन्होंने कहा, ‘इस परिदृश्य में ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने अपने व्यवसाय (कामकाज) से संबंधित नकली, झूठी और भ्रामक जानकारी के खतरे को रोकने के लिए लागू नियम तैयार किया है. नियम की सटीक समझ पर, आपत्तिजनक होने वाली जानकारी को इस ज्ञान के साथ साझा किया जाना चाहिए कि यह वास्तविक नहीं है और दुर्भावनापूर्ण इरादे से साझा की गई है.’
अपने आदेश में जस्टिस नीला गोखले ने स्वीकार किया कि एक ‘जीवंत’ और ‘दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र’ में फैक्ट-चेक इकाई संबंधी नियम जैसे प्रावधान को पेश करने में सरकार की मंशा के बारे में ‘संदेह’ होना स्वाभाविक है.
उन्होंने कहा, ‘याचिकाकर्ताओं की आशंकाएं भी उचित हैं और इन्हें तुच्छ या प्रेरित कहकर खारिज नहीं किया जा सकता.’
उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन एक तरह से नकली, झूठी और भ्रामक जानकारी की सीमित सीमा तक मुक्त भाषण को विनियमित करने से नागरिकों के लिए तथ्यों को फर्जी से अलग करने के लिए बेहतर स्थितियां बनाएं और शुद्ध जानकारी प्राप्त करने के अवसर के आधार पर वे अपने समाज को क्या और कैसा बनाना चाहते हैं, इसके बारे में निर्णय लें.
उन्होंने अपने फैसले में लिखा, ‘देश के प्रतिनिधि और सहभागी लोकतंत्र में भाग लेने का नागरिकों का अधिकार तब तक निरर्थक है, जब तक कि उनके पास प्रामाणिक जानकारी तक पहुंच न हो और वे गलत सूचना से गुमराह न हों, ऐसी जानकारी जो स्पष्ट रूप से असत्य, नकली, झूठी या भ्रामक है, जान-बूझकर दुर्भावनापूर्ण इरादे से संचारित की जाती है.’
जस्टिस गोखले ने यह भी कहा कि सरकार द्वारा अपनाए गए उपाय ‘कानून के उद्देश्य के अनुरूप हैं और मौलिक अधिकार पर अतिक्रमण का प्रभाव उस लाभ से असंगत नहीं है, जो होने की संभावना है’.
हालांकि, जस्टिस पटेल ने कहा कि ‘यह अकल्पनीय है कि कोई भी एक इकाई – चाहे वह सरकार हो या कोई और – एकतरफा ‘पहचान’ सकती है, (अर्थात चुनी और तय की गई) नकली, गलत या भ्रामक हो सकती है.’
जस्टिस गोखले को मनाने में सक्षम नहीं होने पर खेद व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘यह निश्चित रूप से सरकार का एकमात्र अधिकार नहीं हो सकता है.’
उन्होंने फैसले में अपनी अंतिम टिप्पणी में लिखा, ‘मुझे खेद है कि मैं जस्टिस गोखले को अपने नजरिये से मनाने में असमर्थ रहा हूं, न ही मैं उनके नजरिये को साझा करने में समर्थ रहा हूं.’
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