अयोध्या: अब आचार्य नरेंद्रदेव की स्मृतियों का ध्वंस!

‘दिव्य’ अयोध्या में भी बदहाली झेल रहे आचार्य नरेंद्रदेव नगर रेलवे स्टेशन को आख़िर बंद कर दिया गया. विपक्षी दल इसे आचार्य की कर्मभूमि में उनकी स्मृतियों का ध्वंस बताते हुए आरोप लगा रहे हैं कि सत्ताधीशों ने शहर में आचार्य को इतनी-सी जगह न देकर न सिर्फ उनके बल्कि समाजवाद के प्रति भी घृणा प्रदर्शित की है.

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अयोध्या का आचार्य नरेंद्र देव नगर रेलवे स्टेशन. (फोटो साभार: yappe.in)

‘दिव्य’ अयोध्या में भी बदहाली झेल रहे आचार्य नरेंद्रदेव नगर रेलवे स्टेशन को आख़िर बंद कर दिया गया. विपक्षी दल इसे आचार्य की कर्मभूमि में उनकी स्मृतियों का ध्वंस बताते हुए आरोप लगा रहे हैं कि सत्ताधीशों ने शहर में आचार्य को इतनी-सी जगह न देकर न सिर्फ उनके बल्कि समाजवाद के प्रति भी घृणा प्रदर्शित की है.

अयोध्या का आचार्य नरेंद्र देव नगर रेलवे स्टेशन. (फोटो साभार: yappe.in)

अयोध्या में आचार्य नरेंद्रदेव नगर रेलवे स्टेशन खत्म कर दिए जाने से एक नया उद्वेलन पैदा हो गया है. विपक्षी दल इसे आचार्य की कर्मभूमि में उनकी स्मृतियों के साथ ‘एक और इतिहास’ का ध्वंस बता रहे और आरोप लगा रहे हैं कि भाजपाई सत्ताधीशों ने ‘भव्य’ व ‘दिव्य’ अयोध्या में आचार्य की स्मृतियों के लिए इतनी-सी भी जगह न रहने देकर न सिर्फ उनके बल्कि उस समाजवाद के प्रति भी अपनी घृणा प्रदर्शित की है, आचार्य को जिसके भारतीय संस्करण का पितामह व सिद्धांतकार माना जाता है और जो अब तक देश के संविधान का पवित्र मूल्य रहा है.

जहां तक आचार्य की बात है, कहा जाता है कि कांग्रेस में अपनी सक्रियता के दिनों में महात्मा गांधी का भरपूर स्नेह पाने के बावजूद के बावजूद वे ‘गांधीवादी’ नहीं बने थे और कहा करते थे कि कांग्रेस छोड़ सकते हैं, लेकिन मार्क्सवाद और समाजवाद नहीं. महात्मा के निधन के बाद 1949 में उन्होंने देश में लोकतंत्र के भविष्य के व्यापक हित में कांग्रेस के विकल्प के निर्माण के लिए उसे छोड़ भी दिया था.

प्रसंगवश, महर्षि वाल्मीकि इंटरनेशनल एयरपोर्ट और अयोध्या धाम जंक्शन रेलवे स्टेशन के उद्घाटन व रोड शो के लिए प्रधानमंत्री गत 30 दिसंबर को अयोध्या पहुंचे थे, तो द वायर ने ‘प्रधानमंत्री की अयोध्या यात्रा और यहां की चमक-धमक से वंचित आचार्य नरेंद्रदेव नगर रेलवे स्टेशन’ शीर्षक’ रिपोर्ट में कुछ बुजुर्गों की बातचीत के हवाले से बताया था कि अयोध्या की बहुप्रचारित जगर-मगर उसके उतने ही हिस्से तक सीमित है, जिसे न्यूज चैनलों के कैमरे देख सकते हैं और उसके विश्वस्तरीय अयोध्या धाम जंक्शन से महज पांच किलोमीटर दूर स्थित उसका आचार्य नरेंद्रदेव नगर रेलवे स्टेशन सामान्य यात्री सुविधाओं, इर्द-गिर्द फैली कंटीली झाड़ियों की साफ-सफाई, भवनों व बोर्डों के रंग-रोगन से भी वंचित है.

रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि उक्त स्टेशन आचार्य के नाम पर होने की कीमत चुका रहा है. चूंकि आचार्य समाजवादी व मार्क्सवादी थे, इसलिए कांग्रेस ने पार्टी से उनके इस्तीफे के बाद 1949 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के आजादी के बाद के पहले उपचुनाव में उन्हें जीतने लायक नहीं समझा था- ‘अयोध्या में धर्म की ध्वजा ऊंची रखने के लिए’ सांप्रदायिक कार्ड खेला और हरा दिया था. अब भाजपाई सत्ताधीश उनसे कम ‘धार्मिक’ तो हैं नहीं… अतएव उनके लिए यही बहुत है कि वे उनके नाम वाले स्टेशन से उनका नाम हटाकर उसे कोई और नाम नहीं रख दे रहे.

लेकिन 22 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों रामलला की बहुप्रचारित प्राण-प्रतिष्ठा में प्रयुक्त फूल अभी कुम्हलाए भी नहीं थे कि इन सत्ताधीशों द्वारा नियंत्रित रेलवे बोर्ड ने ‘रेलों के बेहतर परिचालन के लिए’ इस रेलवे स्टेशन को खत्म कर बात को ‘यही बहुत है’ से भी बहुत आगे बढ़ा दिया.

गौरतलब है कि कोई सौ साल पुराने इस रेलवे स्टेशन से आचार्य से पहले फैजाबाद के कलेक्टर रहे चार्ल्स रीड का नाम जुड़ा हुुआ था और लोग उसे सिटी स्टेशन भी कहते थे.

प्रसंगवश, रीड ईस्ट इंडिया कंपनी के उन सैन्य अफसरों में से एक था, जिन्होंने 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में दिल्ली पर कंपनी के दोबारा कब्जे के अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. बाद में महारानी विक्टोरिया ने देश की सत्ता कंपनी से छीनकर अपने हाथ में ली तो उसे अवध में नियुक्त कर ‘अशांति का शमन’ करने और उन वायदों को निभाने की जिम्मेदारी सौंपी थी, जो उन्होंने अपने घोषणा पत्र में देश की प्रजा से किए थे.

कहते हैं कि फैजाबाद में अपनी कलेक्टरी के दौरान रीड ने गोरी सत्ता और भारतीय प्रजा के बीच की तल्खियां खत्म करने के लिए कई उल्लेखनीय कदम उठाकर महारानी का अनन्य सहयोगी बन गया था.

आजादी मिली तो नागरिकों द्वारा बार-बार इस स्टेशन से आचार्य का नाम जोड़ने की मांगें की जाने लगीं, क्योंकि फैजाबाद अरसे तक उनकी कर्मभूमि रहा था. 1965 में शहर के कई स्वतंत्रता सेनानी, वकील और पत्रकार भी इन मांग के समर्थन में उठ खड़े हुए.

समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता जयशंकर पांडेय बताते हैं कि कई वर्षों तक इस मांग की लगातार अनसुनी के बीच एक दिन उन्होंने युवजन सभा के कुछ अन्य आंदोलनकारियों के साथ उक्त स्टेशन जाकर उसके बोर्ड पर लिखे रीड के नाम पर कालिख पोत दी. इस पर उन्हें पकड़कर उन पर रेलवे प्रॉपर्टी डिमोलिशन एक्ट लगा दिया गया. लेकिन उनका यह एक्शन रंग लाया और प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त ने विधानमंडल में पारित कराकर रेलवे बोर्ड को प्रस्ताव भेजा कि रीडगंज रेलवे स्टेशन का नाम आचार्य नरेंद्रदेव नगर कर दिया जाये. बोर्ड ने जल्दी ही इस प्रस्ताव को मान लिया.

इस स्टेशन के अचानक खात्मे का त्रास कुछ कम हो सकता था अगर आचार्य की स्मृति से जुड़ी दूसरी संस्थाओं का हाल भी बुरा नहीं कर डाला गया होता. लेकिन कई दशक पहले उनके नाम पर बने शहर के महत्वाकांक्षी प्रेक्षागृह नरेंद्रालय (जो सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था और नाटकों के मंचन व कवि सम्मेलनों वगैरह के लिए जाना जाता था.) का हाल भी अच्छा नहीं है. पिछले कई दशकों से उसमें होने वाली संस्कृति व रंगकर्म से जुड़ी सारी गतिविधियां ठप पड़ी हैं और नगर निगम द्वारा उसमें सबमर्सिबल नलकूप लगाकर पानी का टैंक बना दिया गया है. साथ ही कर्मियों के आवास और कूड़ा लाने, ले जाने व अन्य कामों में प्रयुक्त होने वाले वाहनों का स्टैंड बना दिया गया है.

कामता प्रसाद सुंदरलाल साकेत पोस्ट ग्रेजुएट कालेज में आचार्य के नाम पर बना अपने वक्त के भव्य सभागार की छत भी अब जर्जर हो चली है, जबकि सिविल लाइंस स्थित आचार्य नरेंद्रदेव पार्क सड़क चौड़ीकरण की भेंट हाकर अपनी आभा खो चुका है. उसमें लगी आचार्य की प्रतिमा को बेकदरी से पीछे ले जाकर एक कोने में इस तरह स्थापित कर दिया गया है कि उसका मुंह मुख्य मार्ग की ओर रह ही नहीं गया है.

आचार्य के पुरखों के बारे में कहा जाता है कि वे पंजाब के सियालकोट से आकर फैजाबाद में बसे थे. उनके पिता बलदेव प्रसाद नामी वकील हुए तो उन्होंने फैजाबाद में एक आलीशान कोठी बनवाई. लेकिन यह कोठी भी (जिसमें रहकर अध्ययन व चिंतन करते हुए आचार्य इस निष्कर्ष तक पहुंचे कि मनुष्यमात्र की मुक्ति का एकमात्र रास्ता समाजवाद से होकर गुजरता है) अब न उनकी रह गई है, न कोठी, होटल में बदल गई है.

जानकार बताते हैं कि 1939 में फैजाबाद में पुरुषोत्तमदास टंडन की अध्यक्षता में प्रतिष्ठापूर्ण प्रांतीय साहित्य सम्मेलन हुआ तो 15 नवंबर की शाम यह कोठी सम्मेलन में आमंत्रित कवियों के काव्यपाठ के दौरान आचार्य से लंबी चख-चख के बाद प्रतिष्ठित छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ द्वारा रात के कवि-सम्मेलन के बहिष्कार की गवाह भी बनी और अरसे तक देश-प्रदेश के अनेक समाजवादियों का आश्रयस्थल रही थी.

अब शहर में उनकी इतनी ही निशानी बची है कि नगर निगम का वार्ड नंबर 12 उनके नाम पर है क्योंकि श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रीकाल में स्थापित आचार्य नरेंद्रदेव कृषि व प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय शहर से बाहर कुमारगंज में स्थित है.

ऐसे में क्या आश्चर्य कि उनके नाम वाले रेलवे स्टेशन के खात्मे से क्षुब्ध समाजवादी विचार मंच के प्रदेश संयोजक अशोक श्रीवास्तव कहते हैं कि भाजपाई सरकारों को संभवतः एक ही नरेंद्र (मोदी) स्वीकार है, दूसरा नरेंद्र (देव) नहीं और यह मामला समाजवाद से उनकी घृणा तक जाता है.

अशोक के मुताबिक, इतिहास उनकी इस घृणा को उसी तरह उनके कलंक के तौर पर दर्ज करेगा, जैसे आचार्य को उपचुनाव हराने के लिए सांप्रदायिक कार्ड खेलने का कलंक कांग्रेस के नाम दर्ज है. स्थानीय दैनिक जनमोर्चा के संपादक रहे स्मृतिशेष शीतला सिंह ने अपनी पुस्तक ‘अयोध्या रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच’ में इस कलंक का विस्तार से जिक्र किया है.

दूसरी ओर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डॉ. निर्मल खत्री व राजेंद्र प्रसाद सिंह आचार्य के नाम वाले रेलवे स्टेशन के खात्मे को आचार्य की यादों से बड़ी नाइंसाफी करार देते और इस नाइंसाफी से खुद को बेहद व्यथित बताते हैं. कई रेल यात्रियों ने भी इसके विरुद्ध प्रधानमंत्री कार्यालय, स्थानीय सांसद और उत्तर रेलवे के डिवीजनल मैनेजर को ज्ञापन दिया और पुनर्विचार की मांग की है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है.)