अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के एक वर्किंग पेपर में कहा गया है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की शुरुआत और विस्तार से न्यूनतम वेतन नियमों के अनुपालन की दर में वृद्धि हुई, औपचारिक वेतनभोगी श्रमिकों और आकस्मिक श्रमिकों के बीच ग्रामीण मजदूरी में अंतर कम हो गया और ग्रामीण क्षेत्रों में लैंगिक वेतन अंतर में भी गिरावट आई.
नई दिल्ली: अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने पाया है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के कार्यान्वयन और विस्तार के परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में न्यूनतम मजदूरी नियमों के अनुपालन में वृद्धि के अलावा लिंग आधारित वेतन के अंतर में कमी आई है.
ये निष्कर्ष आईएलओ के नवीनतम कार्य पत्र (वर्किंग पेपर) ‘ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच रोजगार और वेतन असमानताएं’ में सामने आए हैं.
पत्र के मुताबिक, रोजगार गारंटी योजना के कारण औपचारिक वेतनभोगी श्रमिकों और आकस्मिक श्रमिकों के बीच ग्रामीण मजदूरी का अंतर भी कम हो गया है.
बिजनेस स्टैंडर्ड ने पत्र के हवाले से लिखा है, ‘जैसे-जैसे मनरेगा की शुरुआत हुई और विस्तार हुआ, न्यूनतम वेतन नियमों के अनुपालन की दर में वृद्धि हुई, औपचारिक वेतनभोगी श्रमिकों और आकस्मिक श्रमिकों के बीच ग्रामीण मजदूरी में अंतर कम हो गया और इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में लैंगिक वेतन अंतर में गिरावट आई. अन्य कारकों के साथ-साथ, मनरेगा ने इन सकारात्मक रुझानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’
यह देखते हुए कि यह योजना ग्रामीण आबादी के जीवन को बदलने में सफल रही है, क्षेत्रीय स्तर पर इसके कार्यान्वयन के आधार पर देश भर में प्रभाव की स्थिति अलग-अलग है.
मनरेगा योजना 2005 में पारित की गई थी और मांग-संचालित यह योजना प्रत्येक ग्रामीण परिवार के लिए प्रति वर्ष 100 दिनों के अकुशल काम की गारंटी देती है. 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता संभालने के बाद से इस योजना के लिए बजटीय आवंटन में भारी कमी कर दी गई है.
2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मनरेगा को ‘कांग्रेस सरकार की विफलता का जीवित स्मारक’ बताया था. संसद में एक भाषण में उन्होंने कहा था, ‘इतने वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद भी आप एक गरीब आदमी को केवल महीने में कुछ दिन गड्ढे खोदने का काम दे पाए.’
आईएलओ वर्किंग पेपर हाल के वर्षों में ग्रामीण भारतीय मजदूरी की क्रय शक्ति में नकारात्मक रुझानों की ओर भी इशारा करता है.
पेपर में कहा गया है, ‘भारतीय श्रम ब्यूरो द्वारा प्रकाशित ग्रामीण मासिक वेतन सूचकांक के साथ मुद्रास्फीति के आंकड़ों के आधार पर वित्त मंत्रालय ने हाल के वर्षों में ग्रामीण भारतीय मजदूरी की क्रय शक्ति में नकारात्मक रुझान देखा है. इसलिए अपने आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 में मंत्रालय ने अप्रैल और नवंबर 2022 के बीच बढ़ी हुई मुद्रास्फीति के कारण वास्तविक ग्रामीण मजदूरी (यानी मुद्रास्फीति को ध्यान में रखकर समायोजित ग्रामीण मजदूरी) में नकारात्मक वृद्धि पर प्रकाश डाला.’
यह अध्ययन ग्रामीण आबादी की विशिष्ट सामाजिक-जनसांख्यिकीय विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण और शहरी श्रमिकों के श्रम बाजार परिणामों की तुलना करने के लिए दुनिया भर के 58 देशों के घरेलू सर्वेक्षण के डेटा का उपयोग करता है.
58 देशों के सांख्यिकीय प्रमाण से पता चलता है कि हालांकि, ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की शहरी लोगों की तुलना में रोजगार पाने की अधिक संभावना है, लेकिन उनके पास ऐसी नौकरियां भी हैं, जिनमें अपर्याप्त श्रम सुरक्षा के साथ-साथ कम वेतन है.
पत्र में कहा गया है, ‘ग्रामीण श्रमिकों को प्रति घंटे के आधार पर उनके शहरी समकक्षों की तुलना में औसतन 24% कम भुगतान किया जाता है और इस अंतर के आधे हिस्से का कारण शिक्षा, नौकरी के अनुभव और व्यावसायिक वर्ग में ग्रामीण-शहरी विसंगतियों से समझा जा सकता है (बाकी अस्पष्ट है).
इसके अनुसार, ‘विकासशील देश अपेक्षाकृत व्यापक अंतर प्रदर्शित करते हैं, जहां कम भुगतान के अस्पष्ट कारणों का हिस्सा भी बड़ा है. इसके अलावा कई देशों में ग्रामीण श्रमिकों के कुछ समूह अधिक नुकसान में हैं, जैसे कि महिलाएं, जो औसतन ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में कम कमाती हैं.’
पत्र में कहा गया है, ‘संस्थागत और नियामक ढांचे, विशेष रूप से वे जो न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करते हैं या समान अवसरों को बढ़ावा देना चाहते हैं, ग्रामीण-शहरी विभाजन में श्रम बाजार से संबंधित असमानताओं को कम करने में मदद कर सकते हैं.’
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