इस 22 फरवरी को चित्रकार सैयद हैदर रज़ा 102 बरस के हुए होते. विदेश में बसा एक कलाकार अपनी कला में धीरे-धीरे अपने छूट गए देश को कैसे पुनरायत्त करता है, इसका रज़ा एक बेहद प्रेरक उदाहरण हैं. उन्होंने, विसंगति-बेचैनी-तनाव से फ्रांस में जूझते हुए जीवन और कला में शिथिल पड़ गए संतुलन, संगति और शांति को खोजने की कोशिश की.
इस 22 फरवरी को चित्रकार सैयद हैदर रज़ा 102 बरस के हुए होते. उनकी अब तक सबसे बड़ी और ऐतिहासिक प्रदर्शनी के पेरिस के पाम्पिदू सेंटर में शुरू हुए को भी एक बरस हो रहा है. इस प्रदर्शनी ने जहां एक ओर रज़ा की विश्व-छवि को चमकाया है, बल्कि लगभग स्थापित किया है, वहीं दूसरी ओर उनकी कलाकृतियों के दाम कला-बाज़ार में बहुत बढ़ा दिए हैं.
अभी कुछ महीनों पहले उनकी एक कृति 52 करोड़ रुपये में बिकी है. इस समय उनकी औसत आकार की कलाकृतियों के दाम भी 1 करोड़ से ऊपर ही लग रहे हैं. स्वयं रज़ा दामों के इस खेल से अप्रभावित रहते थे और उनका ज़ोर दाम पर नहीं कलाकृति की मूल्यवत्ता पर होता था.
विदेश में बसा एक कलाकार अपनी कला में धीरे-धीरे अपने छूट गए देश को कैसे पुनरायत्त करता है, इसका रज़ा एक बेहद प्रेरक उदाहरण हैं. रज़ा रंग, अवधारणा और सृजन की त्रिमूर्ति थे. उन्होंने, विसंगति-बेचैनी-तनाव से फ्रांस में जूझते हुए जीवन और कला में शिथिल पड़ गए संतुलन, संगति और शांति को खोजने की कोशिश की.
उनकी यह खोज उन्हें अनेक द्वैतों के अतिक्रमण की ओर ले गई: घर-बिदेस, रंग और अवधारणा, आधुनिकता और स्मृति, कल्पना और विचार, सृजन और आविष्कार, आवेग और चिंतन, बेचैनी और ख़ामोशी, स्थानीयता और सार्वभौमिकता, समय और अनन्त. उनके बचपन की पवित्र नदी नर्मदा और पेरिस की नदी सैन जैसे उनके अनुभव और कल्पना में लगातार मिलती रहीं.
रज़ा इस्लाम-हिंदू धर्म-ईसाइयत, हिंदी-अंग्रेज़ी और फ्रेंच भाषाओं की त्रिमूर्ति भी थे. उनके यहां अस्वीकार कम, स्वीकार अधिक और स्वाभाविक था. उन्हें कई संदर्भों में रखकर देखा-समझा जा सकता है. वे बंबई के प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संस्थापकों में से थे जिसने भारत में जीवंत, खुली, बहुल आधुनिकता पर बल दिया था.
वे इकोल द’ पारी में प्रशिक्षित और बाद में पेरिस स्कूल के नाम से विख्यात प्रवृत्ति के सदस्य बने. उन्हें पश्चिम की आधुनिक अमूर्त कला के एक अभ्यासी के रूप में देखा जा सकता है.
उन्हें उन भारतीय आधुनिकों की अगली पंक्ति में भी रखा जाना चाहिए, जिन्होंने भारतीय मिनिएचर कला, विशेषत: उसकी राजपूत-पहाड़ी-मालवा कलम से प्रेरित होकर अपना रंगबोध और स्पेस का विभाजन विकसित किया.
रज़ा उन बिरले आधुनिकों में भी गिने जा सकते हैं, जिन्होंने कविता से प्रेरणा प्राप्त की और उसे कई इबारतों में अपने चित्रों में जगह दी. वे उन कलाकारों में से भी हुए जिन्होंने ऐन्द्रियता और अध्यात्म की दूरी को अपनी कला में ध्वस्त किया.
ये सभी संदर्भ रज़ा की कला को समझने में मददगार होंगे और उनसे पता चल सकता है कि एक बड़े कलाकार की कृतियों में कितना जीवन, कितना समय, कितना अनुभव, कितनी कल्पना, कितनी जटिलता और गहराई समाहित होती है. ये सब संदर्भ मिलकर या अकेले भी रज़ा की कला के अर्थों और आशयों को निश्शेष नहीं कर सकते. कुछ और का रहस्य और विस्मय बचा रहता है, रहेगा.
कृष्णा शती
कृष्णा सोबती के जीवन का 100वां वर्ष इसी 18 फरवरी को शुरू हो जाएगा. उन्होंने लंबा जीवन पाया, जिसे जीवट, स्वाभिमान, सक्रियता और एक तरह की दुर्लभ दबंगई से उन्होंने जिया.
इसी संघर्ष में वे हिंदी जगत में एक मूर्धन्य लेखन के रूप में प्रतिष्ठित और मान्य हुईं. वे उनमें अग्रणी थीं, जिन लेखकों ने निर्भीकता और साहस से भारतीय समाज में बढ़ती असहिष्णुता और लोकतांत्रिक संकोच के विरूद्ध लिख-बोलकर अपनी आवाज़ उठाई.
बंटवारे के बाद बनी सरहद के उस पार से वे भारत आई थीं और अपना गांव-पार छोड़ने का विषाद उन्हें था. पर उस सबको अतिक्रमित करती हुई उनकी जिजीविषा थी.
उन्होंने अपने कथा-साहित्य में कई अद्भुत और स्मरणीय चरित्र रचे जो इसी जिजीविषा का सजीव साक्ष्य थे. कृष्णाजी के यहां इस अदम्य और विपुल जिजीविषा की लीला है- उनका एक चरित्र कहती है- ‘यह माया-छलावा नहीं. जन्म/जीना और जीवन छलना नहीं… इस लोक की लीला ही अनोखी है. अद्भुत है.’
इस अनोखेपन की, इस लीला की अद्भुत पकड़ कृष्णा जी का साहित्य है. वे नैतिक को, एक तरह से, मानवीय को अधिक ऊंचा मानती और जगह देती हैं. वे जीवन के लालित्य, भाषा और बखान की लय से जिजीविशा के नक़श गढ़ती हैं.
कृष्णा जी ने जीवन और साहित्य दोनों में अपनी सरहद को कभी पुक की महदूद आने की इजाजत नहीं दी. उन्हें सरहद के पार जो जीवन है, स्थिति है, लोग और अनुभव हैं, व्यथाएं और उत्सुकताएं हैं, उन सबकी ख़बर रहती थी.
हर तरह की सरहद, फिर वह भूगोल की हो या इतिहास की, सजग की हो या सवारा की, शिल्प की हो या व्याकरण की, नैतिकता की हो या मान्यता की, बार-बार कृष्णा जी ने जीवन और मानवीयता के पक्ष में, साहस और कल्पनाशीलता से अतिक्रमित की. हिंदी साहित्य की साहस-गाथा में कृष्णा सोबती एक उजली शबीद हैं- रहेंगी.
पुस्तक मेले
जैसे हर मेला कुछ न कुछ का उत्सव मनाता है, वैसे पुस्तक मेले पुस्तकों का उत्सव मनाते हैं. यह उचित और अपेक्षित है. दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले के शुरू होने के पहले यह ख़बर आई कि कोलकाता पुस्तक मेले में 29 लाख लोग आए और 27 करोड़ रुपये की पुस्तकें बिकीं. मोटे तौर पर 29 लाख लोगों ने कोई न कोई पुस्तक खरीदी.
पुस्तक प्रेमियों की इतनी बड़ी संख्या दिल्ली के मेले में आएगी ऐसी संभावना कम है. बांग्ला समाज ज़माने से पुस्तक प्रेमी रहा है. दिल्ली में ऐसा पुस्तक प्रेमी समाज आज तक नहीं बन पाया: यहां पुस्तक पढ़ने का नहीं, दिखाऊ चमकदार लोकार्पण का मामला है. ऐसे उदाहरण कम नहीं हैं, जब लोकार्पण करने वाले भी संबंधित पुस्तक बिना पढ़े उसका लोकार्पण निस्संकोच करते रहते हैं.
दिल्ली के मेले में पहले दिन गया. लोग कम थे, पहला दिन था. साज-सज्जा सब अच्छी है. मैं हिंदी प्रकाशकों के एक हाल में ही भटकता रहा. एक बड़ी चिढ़ पैदा करने वाली प्रवृत्ति यह है कि लोग आपको पुस्तकें देखने नहीं देते, आपको हथिया कर सेल्फ़ी लेते रहते हैं.
ऐसी तस्वीरों का क्या हश्र होता है पता नहीं. देर-सबेर कूड़ादान में पहुंच जाती होंगी, पर उनका उतारना बढ़ता ही जाता है. यह भी कहना चाहिए कि ऐसे लोग मिलते हैं, जिन्होंने आपकी कोई पुस्तक ख़रीदी है और वे उस पर आपका हस्ताक्षर लेना चाहते हैं. वाजिब बात है. अच्छा लगता है.
कई प्रकाशक अपने ही परिसर में लोकार्पण और कुछ चर्चा वगैरह आयोजित करते हैं. ‘बहुभाषिकता का सुख’ शीर्षक से आयोजित एक चर्चा में मैं भी आमंत्रित था. लगभग एक घंटे देर से शुरू हो पाई. पर आयोजक इस देरी को लेकर परेशान नहीं थे.
फिर एक दूसरी पुस्तकों के लोकार्पण और चर्चा में भी मुझे घसीट लिया गया. मैंने पुस्तक पढ़ी ही नहीं थी. सौभाग्य से पुस्तकें हिंदी में जाति पर विचार करने वाला और कई विचारकों के जाति के लोकतंत्र, आरक्षण आदि से संबंधों पर निबंधों का संचयन भी करती है.
मुझे लगता है कि अरविंद मोहन द्वारा लिखी और संपादित ये पुस्तकें हिंदी की वैचारिक संपदा में इज़ाफ़ा हैं. उनके लोकार्पण से जुड़कर अच्छा ही लगा.
बहुभाषिकता पर सोचते हुए मुझे लगा कि हिंदी के बड़े लेखकों का अधिकांश एक से अधिक भाषाएं जानने वाला रहा है, भले उसने लिखा हिंदी में ही है. बहुभाषिकता भारत में तो लगभग स्वाभाविक है.
अच्छी, सर्जनात्मक हिंदी वही लिख सकता है जिसे संस्कृत, उर्दू और अंग्रेज़ी का कुछ न कुछ ज्ञान हो. बहुभाषिकता सर्जनात्मक नवाचार और बौद्धिक समृद्धि में कई बार निर्णायात्मक अवदान करती है. वह आपको अपनी भाषा की संभावना को चरितार्थ करने में मदद करती है.
मेले में कई और शहरों के लोग दिल्ली आते हैं. उनसे मिलना सुखद होता है और आपका मनोबल बढ़ता है कि आपके लिखे-सोचे को और शहरों के लोग पढ़ते-गुनते हैं.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)