शीर्ष अदालत ने 2011 के एक फैसले में इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि वन संबंधी 1996 के उसके फैसले का पालन किया जाए और राज्य 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के तहत सभी वनों का दस्तावेज़ीकरण करने के लिए ‘भू-संदर्भित जिला वन-मानचित्र’ तैयार करें. हालांकि केंद्र सरकार द्वारा इन दोनों निर्णयों का पालन नहीं किया गया है.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के 1996 के एक फैसले के अनुसार, राज्यों को उन वनों की पहचान करने के लिए विशेषज्ञ समितियां बनानी थीं, जो इस शब्द (वन) के शब्दकोषीय अर्थ को पूरा करते हों, भले ही उन इलाकों को आधिकारिक तौर पर जंगलों के रूप में दर्ज नहीं किया गया हो (उदाहरण के लिए, हरियाणा में अरावली पहाड़ी श्रृंखला जैसे वनों को आधिकारिक तौर पर वन के रूप में मान्यता नहीं दी गई है).
शीर्ष अदालत के ही 2011 के एक फैसले में इस बात पर जोर दिया गया था कि 1996 के फैसले का पालन किया जाए और राज्य 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के तहत सभी वनों का दस्तावेजीकरण करने के लिए ‘भू-संदर्भित जिला वन-मानचित्र’ तैयार करें.
इन दोनों निर्णयों का पालन नहीं किया गया है. 21 फरवरी की हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, एक पर्यावरणवादी द्वारा प्राप्त आरटीआई जवाब के अनुसार केंद्र सरकार के पास राज्य विशेषज्ञ समितियों की रिपोर्टों का कोई रिकॉर्ड नहीं है और भू-संदर्भित वन भूखंडों का कोई दस्तावेज नहीं है.
रिपोर्ट के अनुसार, यह भी पर्यावरण मंत्रालय के दावों के विपरीत है कि राज्यों द्वारा पहचाने गए डीम्ड (मानित) वनों को ‘वन संरक्षण संशोधन विधेयक-2023 पर संयुक्त संसदीय समिति’ को दिए उसके जवाब में दर्ज किया गया है, जो पिछले साल जुलाई में लोकसभा में प्रस्तुत किया गया था.
गैर-मान्यता प्राप्त वनों की पहचान, दस्तावेज़ीकरण के लिए दो निर्णय
1980 का वन संरक्षण अधिनियम देश में कई तरीकों से वनों के संरक्षण का प्रावधान करता है, जिसमें वन सलाहकार समिति द्वारा मंजूरी न मिलने तक परियोजनाओं के लिए वन भूमि के डायवर्जन को प्रतिबंधित करना भी शामिल है.
हालांकि, मार्च 2023 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस अधिनियम में संशोधन करने की मंशा जताई. संशोधन में अधिनियम के नाम सहित कई बदलाव किए गए – इसे अब वन (संरक्षण एवं संवर्धन) अधिनियम-2023 कहा जाता है.
हालांकि, विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने संशोधन के बारे में कई चिंताएं व्यक्त कीं, जिनमें यह तथ्य भी शामिल था कि यह 1996 में सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले द्वारा निर्धारित वनों की परिभाषा को सीमित कर देगा और इस तरह बहुत सारी वन भूमि – जैसे कि मानित वन और सामुदायिक वन – को कानूनी संरक्षण से छूट दे दी जाएगी.
1996 के फैसले (जिसे गोदावर्मन आदेश भी कहा जाता है) के अनुसार, जंगल के शब्दकोश अर्थ को पूरा करने वाली भूमि को भी जंगलों के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए और 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के संरक्षण में लाया जाना चाहिए.
अदालत ने आदेश दिया कि राज्यों को वन के रूप में पहचानी गई ऐसी सभी भूमि पर राज्य-वार रिपोर्ट देने के लिए राज्य विशेषज्ञ समितियों या एसईसी का गठन करना चाहिए. इसके बाद इस रिपोर्ट को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के साथ साझा किया जाना था.
शीर्ष अदालत के 2011 के फैसले (जिसे लाफार्ज आदेश कहा जाता है) ने भी इस बात पर जोर दिया कि 1996 के फैसले का पालन किया जाए और राज्य ‘भू-संदर्भित जिला वन-मानचित्र’ भी तैयार करें, जिसमें ऐसी भूमि के प्रत्येक भूखंड के स्थान और सीमा का विवरण शामिल हो जिसे ‘वन’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है (जैसे कि मानित वन, जिन्हें आधिकारिक तौर पर वन के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है, लेकिन अगर इन दोनों आदेशों का पालन किया जाता है तो वह वन कहलाएंगे).
इसमें यह भी निर्दिष्ट किया गया कि एक भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) आधारित ‘डिसीजन सपोर्ट डेटाबेस’ बनाया जाए, जिसमें भूमि के प्रत्येक भूखंड के जिलेवार विवरण शामिल हों और उन्हें नियमित रूप से अपडेट किया जाए.
हालांकि, सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार, एक दशक से भी अधिक समय बाद पर्यावरण मंत्रालय के पास अभी तक राज्य विशेषज्ञ समितियों द्वारा तैयार की गईं रिपोर्ट नहीं हैं, जो 1996 के आदेश के अनुसार हर राज्य में मानित वनों की पहचान करतीं.
पर्यावरण मंत्रालय का ‘झूठा आश्वासन’?
मंत्रालय ने यह जानकारी भारतीय वन सेवा की पूर्व अधिकारी (पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक, केरल) और पुराने वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनी गईं कई याचिकाओं में से एक की सह-याचिकाकर्ता प्रकृति श्रीवास्तव को आरटीआई कानून के तहत दी.
हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, पर्यावरण मंत्रालय ने इस साल 25 जनवरी को श्रीवास्तव को बताया कि ‘अपेक्षित जानकारी मंत्रालय के वन संरक्षण प्रभाग में उपलब्ध नहीं है.’ इसने उनके सवाल को सभी राज्यों के पीसीसीएफ (प्रधान मुख्य वन संरक्षक एवं वन बल प्रमुख) को उत्तर प्रदान करने के लिए स्थानांतरित कर दिया. ‘’
इस साल 20 जनवरी को श्रीवास्तव ने मंत्रालय से 2011 के लाफार्ज आदेश के अनुसार निम्न विवरण मांगे थे: सभी भू-संदर्भित जिला वन मानचित्र; सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए नवीनतम जीआईएस मानचित्र जिनमें भूमि के भूखंडों का स्थान विवरण शामिल हो, जो जंगल के रूप में परिभाषित किए जा सकते हैं और क्या सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार जीआईएस-आधारित डिसीजन डेटाबेस बनाया गया है, अगर हां, तो उसका लिंक.
श्रीवास्तव ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया कि मंत्रालय ने जो वेबलिंक दिया, उसमें इन वनों के भू-संदर्भित मानचित्र उपलब्ध नहीं कराए गए थे.
यह मंत्रालय द्वारा ‘वन संरक्षण संशोधन विधेयक-2023 पर संयुक्त संसदीय समिति’ से अपनी रिपोर्ट में कही गई बात के विपरीत है. रिपोर्ट पिछले साल जुलाई में लोकसभा में प्रस्तुत की गई थी.
रिपोर्ट के अनुसार, मंत्रालय ने कहा कि ‘राज्यों की विशेषज्ञ समितियों द्वारा पहचाने गए वनों को रिकॉर्ड पर ले लिया गया है और इसलिए अधिनियम के प्रावधान ऐसी भूमि पर भी लागू होंगे.’ – इसने कई पर्यावरण समूहों पर यह प्रभाव डाला कि उन्हें लगा कि डेटा पहले से ही केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के पास उपलब्ध है.
श्रीवास्तव ने हिंदुस्तान टाइम्स से कहा कि यह ‘चौंकाने वाला’ और ‘भयावह’ है कि मंत्रालय ने ऐसे ‘झूठे आश्वासन’ दिए हैं.
बीते 19 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने पुराने वन संरक्षण अधिनियम में बदलाव (जो कानून को कमजोर बनाते थे) के खिलाफ समूहों और संगठनों की कई याचिकाओं पर सुनवाई के बाद एक अंतरिम आदेश पारित किया था.
इसमें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को सुप्रीम कोर्ट के 1996 के फैसले में निर्धारित वनों की परिभाषा को बरकरार रखने, उन भूमियों की पहचान करने जो जंगल के शब्दकोषीय अर्थ को तो पूरा करती हैं, लेकिन कानूनी रूप से वनों के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं हैं, और एसईसी रिपोर्ट इस साल 31 मार्च तक मंत्रालय को सौंपने, मंत्रालय द्वारा इन रिकॉर्ड को संभालने, इन्हें डिजिटाइज करने और अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर 15 अप्रैल 2024 तक उपलब्ध कराने के लिए कहा था.
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