ऐरोन बुशनेल का आत्मदाह इज़रायली क्रूरता के प्रति अमेरिकी शासन के अंधे समर्थन का परिणाम है

अमेरिकी सैनिक ऐरोन बुशनेल ने वॉशिंगटन डीसी में इज़रायली दूतावास के सामने 'फ्री फ़िलिस्तीन' का नारा लगाते हुए ख़ुद को ज़िंदा जला लिया ताकि दुनिया की नज़रें गाजा की ओर मुड़ जाएं. क्या बुशनेल जैसे लोग भुला दिए जाएंगे? क्या कोई युद्ध के विरोध में प्रतिबद्धता दिखाएगा और गाजा से लेकर यूक्रेन तक मानवीय नरसंहार का विरोध करने के लिए खड़ा हाेगा?

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अमेरिकी वायुसैनिक ऐरोन बुशनेल. (फोटो साभार: ट्विटर/@ms3_99)

अमेरिकी सैनिक ऐरोन बुशनेल ने वॉशिंगटन डीसी में इज़रायली दूतावास के सामने ‘फ्री फ़िलिस्तीन’ का नारा लगाते हुए ख़ुद को ज़िंदा जला लिया ताकि दुनिया की नज़रें गाजा की ओर मुड़ जाएं. क्या बुशनेल जैसे लोग भुला दिए जाएंगे? क्या कोई युद्ध के विरोध में प्रतिबद्धता दिखाएगा और गाजा से लेकर यूक्रेन तक मानवीय नरसंहार का विरोध करने के लिए खड़ा हाेगा?

अमेरिकी वायुसैनिक ऐरोन बुशनेल. (फोटो साभार: ट्विटर/@ms3_99)

अमेरिकी वायुसैनिक ऐरोन बुशनेल ने सोमवार को अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी में इज़रायली दूतावास के सामने ‘फ़िलिस्तीन को मुक्त करो’ का नारा गुंजाते हुए ख़ुद को जिंदा जला लिया ताकि पूरी दुनिया की नज़रें गाजा की ओर मुड़ जाएं. जलकर ख़ाक़ होते हुए ऐरोन बुशनेल का वह वीडियो मनुष्य को भीतर तक हिला देने वाला है. आग लगाने की तैयारियां करने से लेकर ख़ाक़ होकर ज़मीन पर ढेर हो जाने तक का वह वीडियो मेरे दिमाग़ से कभी नहीं हटेगा.

ऐरोन बुशनेल जल नहीं रहा, अग्नि की लपटों में बेहद मज़े से ऐसे नहा रहा है, मानो वह आग नहीं, किसी झरने की आनंददायी जलधारा है. उसके इस तरह जलते समय एक इज़रायली सैनिक उसकी तरफ़ स्टेनगन ताने हुए उछलकूद रहा है. यह दृश्य बताता है कि इज़रायल हो जाना नृशंसता, उन्माद और पथराएपन का एक नया विशेषण है.

यह वीडियो जड़ता और यथास्थितिवाद के शिकार लोगों को पश्चिमी डिस्टोपिया (Dystopia) की उस दिमाग़ी उलझन और विचलित स्तब्धता से बाहर निकालने के लिए काफ़ी है. ऐरोन बुशनेल का यह आत्मदाह इज़रायली क्रूरता के प्रति अमेरिकी शासन के अंधे समर्थन का परिणाम है.

आज धरती पर हर जगह अन्यायी, पक्षपाती और अलोकतांत्रिक शासकों का ही नहीं, तकनीकी या पूंजी की शक्ति से अतुल बालवान हुए लोगों के अन्याय और अत्याचार समा नहीं रहे हैं. इज़रायल के सैनिक और शासक गाजा में जिस तरह ज़ुल्म कर रहे हैं, उससे कम यूक्रेन में भी नहीं हो रहे हैं. कहीं किसी को चीन का समर्थन है तो कहीं किसी को फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका का. इनके आम नागरिक भले इससे ख़फ़ा हों; लेकिन वे क्या कर सकते हैं?

सत्ता कोई भी हो, वह जब नृशंस होकर शासन करने उतरती है तो उन देशों से अधिक उनसे बाहर उन्हें रोमांसनुमा प्रेम करने वाले लोगों का बड़ा समर्थन मिलने लगता है. लेकिन न्याय और मनुष्यता ऐसे मूल्य हैं, जिसके लिए संवेदनशील लोग सैकड़ों साल से अपना बलिदान देते आए हैं. इसलिए जलते हुए ऐरोन बुशनेल के उस दृश्य से अधिक ऐरोन बुशनेल की आत्मा से निकलकर आसमान तक गूंजती पुकारों की ध्वनियां हम सबके साथ रहती हैं.

ऐरोन बुशनेल को जाने कितने ही लोगों ने देखा होगा; लेकिन सैनिक होने के कारण उसके भीतर की संवेदनाएं और कोमलताएं शायद ही कभी किसी को दिखी होगी. लेकिन उसकी आवाज़ माइकल सेरा की तरह गूंजती है और ऐसी ध्वनि पैदा करती है, मानो अभी-अभी सुदूर से आया धातु का कोई टुकड़ा लोहे के किसी कंटेनर से जा टकराया है.

ऐरोन बुशनेल के ‘फ्री फ़िलिस्तीन’ कहने की आवाज़ें गूंज रही हैं. अब लगता है कि उस समय वॉशिंगटन डीसी के पूरे आसमान पर शब्दहीन चीखों के बादल तैर रहे थे; लेकिन इस्लामिक कट्‌टरपंथियों की घृणा से लबरेज़ अमेरिकियों के विवेक पर पड़े पर्दे ने शायद उनके कानों के पर्दों पर पिघला सीसा डाल दिया था और वे इन्हें सुन नहीं सके.

ऐरोन बुशनेल हंसते हुए अग्नि की लपटों में नहा रहा है और एक पुलिस वाला बार-बार ज़मीन पर गिरते हुए चिल्ला रहा है और बंदूक ताने हुए है. ऐरोन बुशनेल आग के झरने के नीचे नहाते हुए अपने प्रतिरोध के आत्मबल का आनंद ले रहा है और इज़रायली सुरक्षा बल का यह जवान आग बुझाने वाले यंत्र को लाने के बजाय अभी भी अपने अंधे प्रतिक्रियावाद में लिपटे भय की क्रूरता को जीवंत कर रहा है. इज़रायली दूतावास में ऐसा कोई नहीं है, जो उसे बचाने के लिए कूदकर आ सके.

सोमवार की शाम वॉशिंगटन डीसी में इज़रायली दूतावास के बाहर जाने कितनी सारी अविश्वसनीयताएं तैर रही थीं. शायद यह कभी किसी को पता नहीं चलेगा कि ऐरोन बुशनेल को आत्मदाह करते हुए किसी तपस्वी की तरह खड़े रहने की ताक़त मिली कहां से? वह जल रहा है और उसका बोलना बंद हो जाता है तो भी वह किस तरह इतनी देर तक खड़ा रहा? वह आत्मदाह की जलन से चीखा क्यों नहीं? उसने बचाओ-बचाओ का शोर क्यों नहीं मचाया? इज़रायली दूतावास के भीतर से कोई भागकर क्यों नहीं आया? क्यों इतने आधुनिक देश में उसकी सेना का एक जवान इस तरह धू-धू कर कैसे जल मरा? क्यों इस महाशक्ति के पास वह शक्ति नहीं रही, जिससे वह अपने इतने संवेदनशील सैनिक को बचा पाता?

बुशनेल को अस्पताल ले जाया गया, जहां पहुंचने से पहले ही संभवत: उसकी मृत्यु हो चुकी थी. लेकिन यह सामान्य नहीं, भयानक से भी भयानक मौत थी, जिसकी गहराई और गंभीरता के साथ-साथ भयावहता को सैन्य बल के सहारे चलने वाले क्रूर शासकों का समर्थक इंसान शायद ही कभी महसूस कर सके. यह न तो क्षणिक आत्मदाह है और न ही मूर्खता से विरोध में मन जाना.

दरअसल, यह करोड़ों लोगों के सामने शासकीय पद्धति से डिज़ाइन की गई वह हत्या है, जो आने वाले समयों में कभी किसी के हिस्से किसी रूप में आएगी और कभी किसी के हिस्से किसी के समय में. शासकीय युद्धों की संतानों को न तो गाजा की पीड़ा समझ आ सकती है और न ही यूक्रेन के नागरिकों पर रूस के विमानों से गिराए जा रहे बमों की अमानुषिक मौत.

आज हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जहां जाने कब, कैसे, कहां, क्यों और किस तरह की मौत आ जाए. आप कोरोना जैसी अप्रत्याशित बीमारी से मर सकते हैं. किसी कृत्रिम विषाणु हमले में आपकी जान जा सकती है. आप सड़क पर नियमों का पालन करते हुए चल रहे हैं और हो सकता है कि सामने से डिवाइडर के पार उस तरफ से आता हुआ कोई वाहन आपको कुचल डाले. आप युवा हैं और ट्रेडमिल पर दौड़ रहे हैं तो संभव है कि वहीं ढेर हो जाएं. आप कहीं कुछ खा रहे हों और संभव है कि उसमें कोई ऐसा पदार्थ आ जाए, जो आपको धीमी मौत की गोद में पटक दे. आपकी जान किसी बम धमाके में जा सकती है.

हो सकता है, आप सोचते हों कि आप लोकतांत्रिक मुल्क़ में आंदोलन का हक़ रखते हैं और आप तिरंगा ध्वज लेकर नारे लगा रहे हों और पुलिस की गोली आपके कपाल पर अपनी शक्ति का निशान छोड़ते हुए आपको मिट्‌टी में मिला दे.

संभव है आप पुलिस में हों और आपकी तरफ उछला पत्थर आपकी जान ले ले या आप ट्रैफ़िक कंट्रोल कर रहे हों और कोई सरकारी बस आपको कुचलते हुए निकल जाए. आप सेना में हो सकते हैं और हो सकता है कि आप किसी राह से गुज़र रहे हों और आपका वाहन किसी ख़राब सड़क के कारण गह्वर में जा गिरे. हो सकता है, आप एक ज़हीन-शहीन और ख़ूबसूरत लड़की हों और कोई दुष्ट अपना शिकार बनाने की कोशिश करे और जब होश में आए तो फांसी से बचने के लिए आपकी हत्या करना ज़रूरी समझे. हो सकता है, आपने जीवन भर देश सेवा में लगे रहे हों और अब आप बैंक में अपने जीवित होने का प्रमाण पत्र देने पहुंचे हों और वहां लूट की वारदात अंजाम दी जा रही हो और उनकी गोली आपके ही सीने में उतरने की प्रतीक्षा कर रही हो. बुशनेल का आत्मदाह ऐसे प्रश्नों की झड़ी लगा रहा है.

इस दुनिया में अपने अंतिम कदम से कुछ समय पहले बुशनेल ने फ़ेसबुक पर लिखा था: ‘हममें बहुतेरे लोग अपने आप से पूछना पसंद करते हैं, ‘अगर मैं ग़ुलामी के दौरान जीवित होता तो मैं क्या करता? अगर मेरा देश नरसंहार कर रहा हो तो मैं क्या करूंगा?’ ‘जवाब है, आप यह कर रहे हैं. अभी.’ ऐरोन बुशनेल ने इस चुनौती का अपना उत्तर स्वयं प्रदान किया है. हम सभी अभी अपना स्वयं का प्रावधान कर रहे हैं.

लेकिन यहां यह समझना भी ज़रूरी है कि सरकारें ऐरोन बुशनेल जैसे लोगों को किसी आतंकवादी दस्ते के प्रभाव में भी बता सकती हैं. वे कह सकती हैं कि ऐसे लोग भटके हुए हैं और उनकी मानसिक अवस्था स्वस्थ नहीं. यह भी संभव है कि उन्हें विकृत चित्त का बता दिया जाए.

आज क्या असंभव है? आज हर जगह ट्रोल्स की बाढ़ है. वे ऑनलाइन चर्चा में कुछ भी ला सकते हैं. अब संवेदनहीनता की पराकाष्ठा हो गई है और सच्चे से सच्चे और ईमानदार से ईमानदार व्यक्ति को झूठे से झूठा और बेईमान से बेईमान घोषित किया जा सकता है. अब किसी भी व्यक्ति का ऐसा इतिहास खंगाला जा सकता है, जो न सच है और न तथ्याधारित; लेकिन अब आपके बारे में ऐसी गंदगी की तलाश संभव है, जैसी कभी आपने अपने शत्रु के बारे में भी कल्पना न की हो. ऐसा एक तथ्यहीन तथ्य आपको दुनिया भर में कुछ का कुछ साबित कर सकता है.

इस तरह की बातें ऐरोन बुशनेल के बारे में भी सोशल मीडिया और एक्स पर पढ़ने को मिल रही हैं. इसलिए यह चिंता न करें कि एक्स पर जो पतनशीलता छाई हुई है, वह सिर्फ़ भारतीय ही करते हैं, अब अमेरिकी भी किसी से पीछे नहीं.

क्या कभी किसी ने सोचा होगा कि इतिहास के इस बिंदु पर हम सब यही करना चुनेंगे? यह कौन-सी मानसिकता है कि युद्धों के नरसंहार के बाद जब अशोक जैसे सम्राट हिंसा से तौबा कर महात्मा बुद्ध की राह पर चल दिए और अब शांति और करुणा के धर्मों के भीतर पले-बढ़़े शिशु जवान होकर नरसंहारों को किसी अश्वमेध यज्ञ से कमतर रूपों में नहीं देख रहे हैं.

ऐरोन बुशनेल के आत्मदाह का वीडियो यह बताता है कि किस तरह हम एक आत्महंता कालखंड की ओर धकेले जा रहे हैं, जो सिर्फ़ गाजा ही नहीं, पूरी दुनिया के भस्मीकरण की राह तैयार कर रहा है. ऐसे भस्मीकरण की राह, जो संत्रास नहीं, एक बुरे सुख वाली पीढ़ी को जन्म दे रहा है. इससे सिर्फ़ मनुष्यता ही नहीं, प्रकृति और उसके समग्र जीव-वैभव का आत्मविनाशी पथ ही प्रशस्त होगा.

क्या कभी किसी ने यह कल्पना की थी कि जब लोकतांत्रिक युग आए तो लोग युद्धों, टकरावों और नरसंहारों के समर्थन में खड़े मिलेंगे? घोर निर्धनता से लड़ने के उन सपनों का क्या हुआ, जो लोकतंत्र की अवधारणा आने के समय हमारे पुरखों ने देखे थे?

क्या कारण है कि लोकतांत्रिक संस्थाएं कमज़ोर पड़ती जा रही हैं या की जा रही हैं और सेनाएं, पुलिस, रक्षाबल, सरकारी एजेंसियां, हर क़दम पर नागरिकों की छानबीन करने वाले संगठन और आपके कदम़ों से लेकर वैचारिक पदचिह्नों तक की टोह रखने वाले तंत्र ने एक सशक्त रूप ले लिया है? किसान दिल्ली जाता है तो सरकार क्यों रास्तों पर अंतरराष्ट्रीय सीमा से भी अधिक कड़े पहरे बिठा देती है? आख़िर जनता के सबसे निकट दिखने और जनता के सबसे प्रिय दिखाई दे रहे शासकों को उसी जनता से इतना भय क्यों लग रहा है?

आख़िर वह कौन-सी बात है, जो एक सैनिक होने के बावजूद ऐरोन बुशनेल को तो कुरेदती है; लेकिन लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को वही बात भयानक लगती है. उनकी आंखें सब कुछ देखते हुए ही क्यों अनजान बनी रहती हैं?

युद्ध के गोलों निरीह शिशुओं, सहृदय महिलाओं और सिसकते बीमारों पर गिराए जा रहे हों तो भी महाशक्तियों के हृदय स्तब्ध क्यों नहीं होते? वे उस तरह सहसा किसी उद्वेग से क्यों गोले फेंकती तोपों या बम बरसाते विमानों को रोकने की कोशिशें करते? वे क्यों लोकतंत्र के पिछवाड़े अंधेरे में बैठकर नृशंस नरसंहारों को देखकर मंद-मंद मुस्कुराते हैं और इसे अपनी विजय के रूप में एक रमणीय स्वप्न के पूरे होने की तरह महसूस करते हैं?

इज़रायल और फ़िलीस्तीन के बीच चल रहे युद्ध में आज हर दस मिनट में एक शिशु मारा जा रहा है. सात अक्टूबर 2023 से अब तक 29,954 लोगों को इज़रायल सैनिकों ने मार डाला है और 70,325 को घायल कर दिया है. फ़िलिस्तीन के नागरिक अपनी ही मातृभूमि से बेदख कर दर-दर भटकने को मज़बूर कर दिए गए हैं और उनकी तादाद 19 लाख से कम नहीं. फ़िलीस्तीनियों के हमलों में इज़रायल के 814 लोग मारे गए हैं और 10,580 घायल हुए हैं. इज़रायल के 254 नागरिकों का अपहरण कर लिया गया है और दो लाख से पांच लाख नागरिक आज मारे-मारे फिर रहे हैं. उनके पास अपना कोई ठिकाना नहीं है.

ऐसा लगता है कि इज़रायली सेना को आम फ़िलीस्तीनी नागरिक अपना वैध शिकार लग रहा है और इज़रायल की इस मानसिकता को अमेरिकी शासन से पूरा समर्थन मिल रहा है.

मनुष्य एक पशु है; लेकिन वह मूलत: एक जैव सामाजिक प्राणी है. हम आए दिन देखते हैं कि जंगल में किसी वन्य जीव पर कोई हिंसक और आक्रामक जानवर हमला करता है तो उसके साथ उसे छोड़कर भागते नहीं, बल्कि उसे बचाने और अतुल बल वाला होने के बावजूद कमज़ाेर से कमज़ोर जानवर भी उसे खदेड़कर दम लेते हैं. लेकिन मनुष्य इस तरह वन्यजीवों से क्यों सबक नहीं लेता?

अगर उनकी संवेदना ऐरोन बुशनेल के भीतर प्रवेश करती है तो उसके साथी या उस जैसे बाकी लोग इस अमेरिका में ही नहीं, पूरी दुनिया में क्यों छटपटाते नहीं और क्यों चुप रह जाते हैं? वे क्यों अपनी कमज़ोरियों के बावज़ूद वन्यजीवों जैसे अपने आत्मबल से जीवट के साथ अनवरत रूप से नहीं लड़ते हैं? आख़िर मनुष्यों को दुष्टों से क्यों इतना प्रेम है और क्यों सत्ता में आते ही उन्हें वे मोहक लगने लगते हैं?

आख़िर ऐरोन बुशनेल जैसे लोग क्या सिर्फ़ आत्मदाह करके मर जाएंगे और भुला दिए जाएंगे? उसकी मूल भावना को कौन समझेगा? कौन होगा जो हालात से कतराएगा नहीं और डरेगा नहीं? लोग कब तक शोचनीय स्थितियों में जीते रहेंगे? क्या कोई युद्ध के विरोध में अपनी प्रतिबद्धता दिखाएगा और गाजा से लेकर यूक्रेन तक मानवीय नरसंहार का विरोध करने के लिए उठ खड़ा हाेगा? यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद वहां पांच लाख से अधिक लोग हताहत हो चुके हैं, जिनमें एक लाख 80 हज़ार तो सैनिक ही हैं. इसी तरह रूस के एक लाख 20 हज़ार से अधिक सैनिक मारे गए हैं और एक लाख 80 हज़ार से अधिक सैनिक घायल हुए हैं.

क्या हम यह सोच पा रहे हैं कि ऐरोन बुशनेल ने तो एक सैनिक होकर भी गाजा को लेकर आत्मदाह कर लिया; क्योंकि उसके भीतर चेतना और संवेदनाओं की ध्वनियों के बुलबुले लगातार उठ रहे थे और वह एक ऐसी निर्णायक स्थिति पर पहुंच गया था, जहां उसके लिए हृदय के भीतर से उठ रहे बिजली के झटकों को सहन कर पाना संभव नहीं था.

गाजा हो, यूक्रेन हो या ईरान या इराक की दहलती धरती हो, आख़िर लोग उठते क्यों नहीं हैं? देशों के भीतर इतना अंधेरा बढ़ता क्यों जा रहा है? लोकतंत्र और सहअस्तित्व के पांव इतने लड़खड़ा क्यों रहे हैं? राहें सूनी और सर्द अंधेरे के आगाेश में क्यों हैं? हमारे सिरों पर नभ में सितारे कब तक उदास दिखाई देंगे और संगीनों की नोकों का चमकता हुआ जंगल कब तक हमारे डराता रहेगा? कब तक शासकों की अलाेकतांत्रिक पदचाप का तालबद्ध स्वरपुंज हमें सिर्फ़ अस्थि-रूप में ही बदलता रहेगा?

ऐरोन बुशनेल का आत्मदाह साफ़ बता रहा है कि अन्याय के अंधेरे में लोकतंत्र का दिखावा कर रहे शासकों के भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब नए रूप में सामने आ गया है. ऐसा लगता है, कोई जागे न जाने; लेकिन ऐरोन बुशनेल का जलता हुआ भूत पूरी दुनिया में घूमता रहेगा और चेताता रहेगा कि तुम जितना ज़ल्द संभव हो जाग उठो. नहीं जागे तो तुम्हें पाषाण मूर्ति बनकर अपनी आत्मा के पिंजर से निकलती अपनी संततियों के लिए नए-नए रक्तकुंड तैयार करने के काम से शायद ही कभी फ़ुरसत मिले!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)