सीएए के विरोध में बंद का आह्वान करने वाली पार्टियों का रजिस्ट्रेशन रद्द हो सकता है: असम सीएम

असम में विपक्षी दलों, छात्रों और अन्य संगठनों ने सीएए के ख़िलाफ़ तीव्र विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है. मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने कहा कि हर किसी को विरोध करने का अधिकार है, पर यदि कोई राजनीतिक दल हाईकोर्ट के बंद पर रोक के आदेश की अवहेलना करता है, तो उसका पंजीकरण रद्द किया जा सकता है.

हिमंता बिस्वा शर्मा. (फोटो साभार: फेसबुक)

असम में विपक्षी दलों, छात्रों और अन्य संगठनों ने सीएए के ख़िलाफ़ तीव्र विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है. मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने कहा कि हर किसी को विरोध करने का अधिकार है, पर यदि कोई राजनीतिक दल हाईकोर्ट के बंद पर रोक के आदेश की अवहेलना करता है, तो उसका पंजीकरण रद्द किया जा सकता है.

हिमंता बिस्वा शर्मा. (फोटो साभार: फेसबुक)

नई दिल्ली: असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने 10 मार्च को कहा कि अगर राजनीतिक दल अदालत के आदेशों का उल्लंघन करके बंद बुलाते हैं तो वे अपना पंजीकरण खो सकते हैं.

एनडीटीवी की रिपोर्ट के मुताबिक, उन्होंने कहा कि नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (सीएए) के किसी भी विरोध को सुप्रीम कोर्ट में ले जाया जाना चाहिए और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन से कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि कानून पहले ही बन चुका है.

उन्होंने कहा, ‘हर किसी को विरोध करने का अधिकार है. लेकिन अगर कोई राजनीतिक दल अदालत के आदेश की अवहेलना करता है, तो उसका पंजीकरण रद्द किया जा सकता है.’

उन्होंने कहा, हालांकि छात्र संगठनों के लिए बंद का आह्वान करना स्वीकार्य है, लेकिन गौहाटी हाईकोर्ट के इस पर रोक के आदेश के कारण राजनीतिक दल राज्य में ऐसा नहीं कर सकते.

द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, मार्च 2019 के एक आदेश में उच्च न्यायालय ने कहा था कि सड़क और रेल नाकेबंदी सहित सभी प्रकार के बंद अवैध और असंवैधानिक हैं. इसने असम सरकार को एक बंद हानि मुआवजा कोष गठित करने का भी निर्देश दिया था और बंद का आह्वान करने वालों से नुकसान की वसूली का रास्ता खोल दिया था.

उन्होंने सीएए लागू होने पर विपक्ष द्वारा तीव्र आंदोलन की घोषणा का जिक्र करते हुए कहा, ‘अगर कोई राजनीतिक दल उच्च न्यायालय के आदेश का उल्लंघन करता है, तो हम चुनाव आयोग के पास जाएंगे.’

मुख्यमंत्री ने कहा कि सीएए का विरोध करने वालों को अपनी बात सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रखनी चाहिए क्योंकि वही एकमात्र प्राधिकारी है जो अब इस कानून को रद्द कर सकता है.

शर्मा ने कहा, ‘यदि अधिक तीव्र आंदोलन होना ही था, तो यह कानून पारित होने से पहले किया जाना चाहिए था. अब यह केवल नियमों को अधिसूचित करने का मामला है, जिसे करने के लिए सरकार बाध्य है. अगर अब कुछ आंदोलन होता भी है, तो मैं इसकी गारंटी देता हूं. कोई नया व्यक्ति इसमें शामिल नहीं होगा.’

विपक्षी दलों, छात्रों और अन्य संगठनों ने सीएए के खिलाफ तीव्र विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है.

16-पार्टी यूनाइटेड अपोजिशन फोरम असम (यूओएफए) ने शुक्रवार को राज्य के कलियाबोर में धरना प्रदर्शन किया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य के दो दिवसीय दौरे पर पहुंचे.

मंच ने कहा कि विवादास्पद अधिनियम लागू होने के अगले ही दिन राज्यव्यापी बंद बुलाया जाएगा, जिसके बाद जनता भवन- सचिवालय का ‘घेराव’ किया जाएगा. इसने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक ज्ञापन भी सौंपा, जिसमें कहा गया कि अगर सीएए को रद्द नहीं किया गया तो वे राज्य भर में ‘लोकतांत्रिक जन आंदोलन’ करेंगे.

यूओएफए में 16 पार्टियां- कांग्रेस, रायजोर दल, असम जातीय परिषद, आम आदमी पार्टी, असम तृणमूल कांग्रेस, सीपीआई (एम), सीपीआई, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक, सीपीआई (एम-एल), एनसीपी- शरद पवार (असम), समाजवादी पार्टी (असम), पूर्वांचल लोक परिषद, जातीय दल, एपीएचएलसी (असम), शिव सेना (असम) और राष्ट्रीय जनता दल (असम) शामिल हैं.

उल्लेखनीय है कि 11 दिसंबर, 2019 को राज्यसभा द्वारा सीएए पारित करने के बाद राज्य में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे, जिसमें आंदोलनकारियों की सुरक्षा बलों के साथ तीखी झड़प हुई, जिससे प्रशासन को कई कस्बों और शहरों में कर्फ्यू लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा था.

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बीते दिनों कहा था कि सीएए नियमों को लोकसभा चुनाव से पहले अधिसूचित और लागू किया जाएगा.

गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार सीएए के तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के उन गैर-मुस्लिम प्रवासियों (हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी, ईसाई) को भारतीय नागरिकता प्रदान करना चाहती है, जो 31 दिसंबर 2014 तक भारत आए थे.

सीएए को दिसंबर 2019 में भारत की संसद द्वारा पारित किया गया था और बाद में राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई. हालांकि, मुस्लिम संगठनों और समूहों ने धर्म के आधार पर भेदभाव का आरोप लगाया और इसका विरोध किया.

इस कानून के बनने के बाद देशभर में महीनों तक विरोध प्रदर्शनों का दौर चला था, जो कोविड-19 महामारी के कारण थम गया. कानून को आलोचकों द्वारा मुस्लिम विरोधी और असंवैधानिक बताया जाता रहा है.