1957 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में वाराणसी दक्षिणी निर्वाचन क्षेत्र से एंटी-इंकंबेंसी झेल रहे प्रदेश के मुख्यमंत्री डाॅ. संपूर्णानंद के सामने स्वतंत्रता सेनानी व वामपंथी नेता रुस्तम सैटिन खड़े हुए थे. हालांकि उनकी हिंदू-मुस्लिम एकता की पैरोकारी पर मुस्लिम सांप्रदायिकता की तोहमत लगाकर उन्हें हरा दिया गया.
चुनावों में हासिल जीत या हार हमेशा यश या अपयश का कारण नहीं बनती. बात नीतियों व सिद्धांतों की हो तो कई बार दृढ़ रहकर उनकी कीमत चुकाने वाले नेता हारकर भी अपनी कीर्ति पताका और ऊंची कर लेते हैं, जबकि उन्हें हराने में गिरावट की कोई सीमा न रखने वालों की कलंक कथा पीढ़ियों तक उनका पीछा नहीं छोड़ती.
स्वतंत्रता संघर्ष की आंच से तपकर निकले उत्तर प्रदेश के कम से कम दो नेता दुनिया को अलविदा कह जाने के बाद भी इसकी जीती-जागती मिसाल बने हुए हैं. पहले आचार्य नरेंद्र देव, जिन्हें भारतीय समाजवाद का पितामह कहा जाता है और दूसरे अनूठे स्वतंत्रता सेनानी व वामपंथी नेता रुस्तम सैटिन.
1948 में उत्तर प्रदेश विधानसभा की आजादी के बाद के पहले उपचुनाव में आचार्य नरेंद्र देव को हराने के लिए कांग्रेस किस तरह धार्मिक-सांप्रदायिक कार्ड खेलने पर उतर आई थी, ‘द वायर हिंदी’ के पाठक इसे 12 नवंबर, 2019 को ‘1948 में जब समाजवादी नेता को हराने के लिए फैजाबाद कांग्रेस ने राम जन्म भूमि कार्ड खेला था’ शीर्षक से प्रकाशित शीतला सिंह की बहुचर्चित पुस्तक के अंश में पढ़ चुके हैं.
आज पढ़ें कि इसी कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के 1957 के चुनाव में वाराणसी दक्षिणी निर्वाचन क्षेत्र से एंटी-इंकंबेंसी झेल रहे उत्तर प्रदेश के अपने मुख्यमंत्री डाॅ. संपूर्णानंद के विरुद्ध ताल ठोंक रहे रुस्तम सैटिन को कैसे रातोंरात ‘हिंदू-मुसलमान’ करके हराया था- हिंदू-मुस्लिम एकता की उनकी हरदिल अजीज पैरोकारी पर मुस्लिम सांप्रदायिकता की बेसिरपैर की तोहमत लगाकर.
जुझारू स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर कम्युनिस्ट नेता
लेकिन पहले एक नजर सैटिन के जीवन और स्वतंत्रता संघर्ष में उनके योगदान पर. वर्ष 1910 में 18 जून को कराची के एक व्यापारिक पृष्ठभूमि वाले धर्मनिष्ठ पारसी परिवार में जन्म के बाद उनका ज्यादातर बचपन अमृतसर में बीता. अभी वे नौ साल के ही थे कि वहां जलियांवाला बाग में हुए नृशंस नरसंहार ने उनकी चेतना को झकझोर कर रख दिया. फिर तो एक दिन उनका क्षोभ इस सीमा तक जा पहुंचा कि उन्होंने ड्यूक ऑफ कैनोट के भारत आगमन पर स्कूल में मिला मेडल अपने जूते के फीते से बांध लिया, साथ ही साथी छात्रों को भी ऐसा करने को कहा. फिर खुशी-खुशी मारकुटाई के रूप में मिली इसकी सजा भी भोग ली.
फिर कई उतार-चढ़ावों के बीच उनका परिवार झांसी चला आया, जहां स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रियता ने उन्हें महात्मा गांधी व जवाहरलाल नेहरू के अलावा कम्युनिस्ट नेताओं बीटी रणदिवे व पीसी जोशी आदि से भी मिलने का मौका दिलाया. महात्मा गांधी स्वतंत्रता संघर्ष की बाबत देशवासियों को बताने, विश्वास में लेने और सहयोग जुटाने के लिए देश भर का दौरा करते हुए 22 नवंबर, 1929 को झांसी आए तो कांग्रेस के गरम दल के वालंटियर के रूप में सैटिन ने एक सभा में उन्हें एक सौ एक रुपयों की थैली भेंट की.
लेकिन जब उन्होंने सभा को संबोधित करने की इच्छा जताई तो संचालक ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी. तब महात्मा ने हस्तक्षेप कर उनकी यह साध पूरी कराई. लेकिन इसके बाद लोग भौचक रह गए, जब सैटिन ने अपने संबोधन में महात्मा को ही चेतावनी दे डाली कि कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पास नहीं किया गया तो उनका विरोध किया जाएगा. इस पर महात्मा ने मुस्कराकर उनकी पीठ ठोंकी और कहा कि ‘जैसा तुम लोग चाहते हो, वैसा ही होगा’.
बाद में लाहौर अधिवेशन में उक्त प्रस्ताव पास हुआ तो झांसी में उसका प्रतिज्ञा पत्र पढ़ने के ‘जुर्म’ में सैटिन को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और उनकी इंटर की परीक्षा छूट गई. ‘प्रतिबंधित’ कांग्रेस ने 1933 में कलकत्ता में अपना अधिवेशन बुलाया तो सैटिन झांसी के वालंटियरों के साथ पूर्ण स्वराज्य के लिए प्रदर्शन करने वहां गए.
अधिवेशन स्थल पर अलसुबह मारे गए छापे में पुलिस की ज्यादतियों के प्रतिरोध में घायल होने के बावजूद उन्हें गिरफ्तार कर दमदम जेल भेज दिया गया तो अधिवेशन के प्रस्तावित अध्यक्ष महामना मदनमोहन मालवीय, जिन्हें कलकत्ता के रास्ते में गिरफ्तार कर लिया गया था, रिहा होते ही उनसे मिलने जेल गए. उन्हें पता चला कि गिरफ्तारी के कारण सैटिन की इंटर की परीक्षा छूट गई है, तो यह जानते हुए भी कि वे कम्युनिस्ट हैं, उन्हें वाराणसी आकर अपनी पढ़ाई पूरी करने का निमंत्रण दिया.
इससे आह्लादित सैटिन वाराणसी आए तो मालवीय ने न सिर्फ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में उनका प्रवेश कराया, बल्कि आर्थिक तंगी उनके आड़े न आए, इसके लिए छात्रवृत्ति दिलाने में शिवप्रसाद गुप्त पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल भी किया.
अनंतर कुछ ऐसा हुआ कि वाराणसी की धार्मिक प्रवृत्ति और राजनीति में सवर्ण हिंदू तत्वों के बोलबाले के बावजूद वामपंथी सैटिन वाराणसी के ही होकर रह गए. उन्होंने पढ़ाई-लिखाई तो खूब मन लगाकर की, लेकिन उसे स्वतंत्रता संघर्ष में भागीदारी की राह की बाधा नहीं बनने दिया. ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में तो भाग लिया ही, जेलों की यातनाएं भी सहीं.
सरकारी व सामंती जोर-जुल्मों के खिलाफ किसानों-मजदूरों, बुनकरों-दस्तकारों और रेलवे के कुलियों आदि को संगठित करने में लगे तो आजादी के बाद भी उनसे मुंह नहीं मोड़ा. उनका मानना था कि जब तक इन वर्गों को आर्थिक स्वतंत्रता भी नहीं मिल जाती, उनके लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है. इसलिए इन्हें पहले की ही तरह अपने हकों की लड़ाई लड़नी पड़ेगी.
1952 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में वह वाराणसी दक्षिणी सीट से वरिष्ठ कांग्रेसी नेता डाॅ. संपूर्णानंद (प्रतिष्ठित साहित्यकार व संपादक) के खिलाफ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी बने तो मुकाबले को भरपूर दिलचस्प बनाने के बावजूद हार गए. संपूर्णानंद द्वारा खुद अपने लिए वोट न मांगने की प्रतिज्ञा निभाने के बावजूद.
‘कब्र में दो मुट्ठी ख़ाक’ को लेकर…!
1957 के चुनाव में दोनों प्रतिद्वंद्वी फिर आमने-सामने हुए तो संपूर्णानंद प्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके थे. लेकिन सैटिन के पक्ष में उभरे व्यापक समर्थन ने उनको नाकों चने चबवा दिए. इस कदर कि सैटिन के प्रति मतदाताओं की दीवानगी देखकर वे अपने लिए वोट न मांगने की प्रतिज्ञा तोड़ने और ‘मगरूर संपूर्णानंद… हारेगा-हारेगा’ जैसे नारे सुनने को मजबूर हो गए.
क्या पता, सैटिन के व्यक्तित्व-कृतित्व का जादू था या संपूर्णानंद के खिलाफ एंटी-इंकंबेंसी, छात्र-अध्यापक, किसान-मजदूर, बुनकर-दस्तकार, मराठी-दक्षिण भारतीय प्रवासी और साहित्यकार-पत्रकार सबके सब सैटिन के पक्ष में लामबंद हो गए थे. इस कदर कि कांग्रेस के समर्थकों को भी लगने लगा था कि ‘अबकी तो पंडित (यानी संपूर्णानंद) गयो’.
दिलचस्प बात यह कि सैटिन की पत्नी मनोरमा कांग्रेस की लोकप्रिय स्थानीय नेता पिस्ता देवी की बेटी थीं और उनके चुनाव प्रचार ने सैटिन को कई ‘अभेद्य’ कांग्रेसी क्षेत्रों में पहुंच और पिस्ता व उनके समर्थकों का आशीर्वाद भी दिला दिया था.
लेकिन मतदान से दो दिन पहले बेनियाबाग में हुई भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सभा में डॉ.फरीदी नामक एक मुस्लिम नेता, जो बिना बुलाए मेहमान की तरह लखनऊ से आ धमके थे, के भाषण के बहाने ‘हिंदू-मुसलमान’ पर उतरकर कांग्रेस ने सारे पासे पलट दिए.
सैटिन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि डॉ. फरीदी बोलने को खड़े हुए तो उपस्थित लोगों की संख्या व उत्साह देखकर जोश में आकर कह दिया कि ‘मैं बेनियाबाग की मिट्टी की कसम खाकर कहता हूं, संपूर्णानंद की हार और सैटिन की जीत पक्की हो चुकी है. मरे हुए आदमी की क़ब्र में दो मुट्ठी ख़ाक डालना धार्मिक कार्य है. इसलिए मैं भी मरी हुई कांग्रेस की क़ब्र में दो मुट्ठी ख़ाक डालने आ गया हूं.’
फिर क्या था, कांग्रेसियों ने उनकी बात को लपककर उसे सांप्रदायिक रंग देने में देर नहीं की. कहने लगे कि अभी सैटिन जीते भी नहीं है और उनकी पार्टी के बददिमाग मुस्लिम नेता हिंदू संपूर्णानंद को कब्र में दफनाने और उस पर बेनियाबाग की खाक डालने की कसमें खाने लगे हैं. उन्होंने रातोंरात पूरे क्षेत्र को इस तोहमत का प्रचार करने वाले पोस्टरों से पाट दिया.
इसके बावजूद संपूर्णानंद की जीत का भरोसा नहीं हुआ तो मतगणना में धांधली का रास्ता भी अपनाया. मतगणना के दौरान अचानक बिजली कटी (आरोप है कि काट दी गई) तो सैटिन के हजारों वोट संपूर्णानंद के वोटों की ढेरी में मिला दिए गए.
गौरतलब है कि तब मतदाताओं द्वारा मतपत्रों पर मुहर नहीं लगाई जाती थी. बस, उन्हें ले जाकर अपनी पसंद के प्रत्याशी की मतपेटी में डालना होता था. इसलिए एक बार मतपेटी से निकलने के बाद कतई पता नहीं लग पाता था कि कौन-सा मतपत्र किस मतपेटी से निकाला गया है.
बहरहाल, मतगणना में संपूर्णानंद सैटिन के 16,578 के मुकाबले 29,002 मत पाकर जीत तो गए, लेकिन चुनावी राजनीति से तौबा कर ली और राजस्थान के राज्यपाल बन गए. दूसरी ओर मतदाताओं में सैटिन का सम्मान तो बढ़ा, लेकिन उनके ‘कांग्रेसियों से पार पाने’ का विश्वास जाता रहा. इस कारण वे अगले, 1962 के चुनाव में 1957 जैसा टेंपो नहीं बना सके और हार की हैट्रिक बनाने को अभिशप्त हो गए.
लेकिन 1967 में न सिर्फ वे चुन लिए गए, बल्कि थोड़े ही दिनों बाद चौधरी चरण सिंह के पाला बदल से कांग्रेस प्रदेश की सत्ता से बेदखल हो गई. उसकी जगह संयुक्त विधायक दल ने सरकार बनाई तो वे उसमें उपगृहमंत्री बने. लेकिन यह कहकर पुलिस की सुरक्षा नहीं ली कि वे जनता के बीच ही सबसे निर्द्वंद्व व सुरक्षित महसूस करते हैं.
संविद सरकार ज्यादा दिन नहीं चली और वे मंत्री पद से निवृत्त हो गए तो अपनी पार्टी के कैडर व संगठन निर्माण के काम में लग गए. वे वाराणसी में रामपुरा स्थित अपने आवास से पार्टी कार्यालय तक पैदल ही आते-जाते थे.
अनुदारवादी चेतना को चुनौती
नाना संघर्षों के रास्ते उन्होंने अपनी नैतिक, ईमानदार और प्रतिबद्ध मजदूर नेता व हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पैरोकार की छवि बना ली और वाराणसी की बौद्धिक जमातों की पहली पांत में आ गए तो उनकी लोकप्रियता ने पार्टी की सीमाएं तोड़ डालीं. उन दलों के नेता भी, जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के आलोचक थे, उनकी तारीफ में कम से कम इतना कहते थे कि पारसी होने के बावजूद वह इतनी अच्छी हिंदी लिखते हैं कि प्रेमचंद के ‘हंस’ में उनके लेख छपते हैं और रामचंद्र शुक्ल, जयशंकर ‘प्रसाद’ और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे साहित्यकार उनके घर आते हैं.
कांग्रेस में भी ऐसे कार्यकर्ताओं की कमी नहीं थी, जो मानते थे कि कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिए उन पर मुस्लिम सांप्रदायिकता की तोहमत चस्पां करके उन पर बहुत बड़ा अत्याचार किया.
सच पूछिए, तो सैटिन ने उन दिनों वाराणसी के कुछ हलकों में जड़े जमाए बैठी धार्मिक व सांप्रदायिक अनुदारवादी चेतनाओं को चुनौती देकर उनके बीच एक वैकल्पिक परिसर का निर्माण किया और तत्कालीन मजदूर आंदोलनों को स्वतंत्रता संघर्ष से जोड़ा.
उन्होंने अपने निजी जीवन में अनेक गांधीवादी मूल्यों को अंगीकार कर रखा था और उनकी अपनी जरूरतें बहुत कम थीं. अरसे तक गरीबी में गुजर-बसर करने के बावजूद उन्होंने कभी अपनी गरीबी का प्रदर्शन कर सहानुभूति जुटाने की कोशिश नहीं की. फिर भी 1999 में 20 सितंबर को उन्होंने अंतिम सांस ली तो वाराणसी में शायद ही कोई आंख नम न हुई हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)