अगर विश्वविद्यालय सार्वजनिक तौर पर विचारों की अभिव्यक्ति रोके तो वह अपने उद्देश्य से विमुख है

सार्वजनिक हित और सत्ता में हमेशा तनाव रहता है. बल्कि कई बार सत्ता अपने हित को ही सार्वजनिक हित मानने के लिए बाध्य करती है. जनता को इस द्वंद्व के प्रति सजग रखना ज्ञान के क्षेत्र में काम करने वालों का काम है. उनका सार्वजनिक बोलना या लिखना उनके लिए नहीं जनता के हित के लिए ज़रूरी है.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Pixabay)

सार्वजनिक हित और सत्ता में हमेशा तनाव रहता है. बल्कि कई बार सत्ता अपने हित को ही सार्वजनिक हित मानने के लिए बाध्य करती है. जनता को इस द्वंद्व के प्रति सजग रखना ज्ञान के क्षेत्र में काम करने वालों का काम है. उनका सार्वजनिक बोलना या लिखना उनके लिए नहीं जनता के हित के लिए ज़रूरी है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Pixabay)

‘तक़रीबन दो साल बाद… कृपा हुई. पिछले 6 साल में तीसरी बार सेवामुक्त हो रहा हूं.’ कवि, पत्रकार मुकेश कुमार का संदेश सुबह-सुबह आया. किसकी कृपा, समझना बहुत मुश्किल नहीं था. मुकेशजी कोई सवा दो साल से लवली यूनिवर्सिटी में मीडिया विभाग में अध्यापक और डीन थे. कल वे वहां से सेवा मुक्त हुए. हुए या होने को मजबूर किए गए. या उनकी यूनिवर्सिटी ने महसूस किया कि उनका और वहां होना उसके हित में नहीं है.

पिछले 6 साल में तीसरी बार सेवामुक्ति. लवली यूनिवर्सिटी के पहले वे श्री गुरुगोविंद सिंह ट्राइसेंटटेनरी यूनिवर्सिटी(एसजीटी यूनिवर्सिटी), गुड़गांव और माखललाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से हटाए जा चुके हैं. इन संस्थानों से उन्हें बाहर किए जाने की वजह भी समझी जा सकती है. भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को वे किसी तरह रास नहीं आ रहे थे. इन संस्थानों के प्रबंधन को बाध्य किया गया कि वे मुकेश कुमार को मुक्त करें.

हिंदी के लोग उन्हें पहचानते हैं. पहले दूरदर्शन पर नामवर सिंह के साथ उनकी साहित्यिक चर्चा ‘सुबह सवेरे’ किए याद सबको है. राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर उनके द्वारा ‘सत्य हिंदी’ के मंच पर किए जानेवाले कार्यक्रम ख़ासे लोकप्रिय हैं.

मुकेश कुमार शांतिपूर्वक अपनी बात कहते हैं. लेकिन उनकी धर्मनिरपेक्षता दृढ़ है. इसके कारण भारतीय जनता पार्टी की राजनीति से उनका विरोध स्वाभाविक ही है. वे उस निष्पक्षता का ढोंग नहीं रचते जो कई पत्रकारों की ख़ासियत है. ऐसे पत्रकारों का कहना है कि वे धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता में से किसी का पक्ष नहीं लेते. सिर्फ़ उन दोनों के बीच के मल्लयुद्ध की रिपोर्टिंग करते हैं. वे मात्र पर्यवेक्षक हैं. मुकेशजी यह नहीं मानते.

राजनीतिक दलों से निरपेक्षता तो समझ में आती है, पत्रकार को किसी राजनीतिक दल का पैरोकार नहीं होना चाहिए लेकिन वह सभ्यता, परिष्कार का पक्षधर तो होगा ही. वरना पत्रकारिता ही क्यों की जाए? ऐसे पत्रकार भारतीय जनता पार्टी को अपने विरोधी जान पड़ते हैं.

लवली यूनिवर्सिटी ने जब उन्हें बुलाया तो उसे उनका यह इतिहास मालूम था. उनके विचार से भी संस्थान परिचित था. धर्मनिरपेक्ष होने के कारण आप भाजपा या आरएसएस के विरोधी या आलोचक होंगे ही. यह जनाते हुए लवली यूनिवर्सिटी ने उन्हें आमंत्रित किया. इसका मतलब यह है कि उसने उन्हें स्वेच्छा से कार्यमुक्त नहीं किया होगा.

यूनिवर्सिटी में आने के पहले मुकेशजी ने साफ़ कर दिया था कि वे अपनी पत्रकारिता नहीं छोड़ेंगे. प्रबंधन को इससे एतराज न था. लेकिन इधर उसने उन्हें कहना शुरू किया कि वे क्यों नहीं अपने चर्चा के कार्यक्रम बंद कर देते. मुकेशजी को यह स्वीकार नहीं था. फिर यूनिवर्सिटी भी मजबूर हो गई.

इधर ही यह हुआ इसकी वजह समझना कठिन नहीं है. चुनाव क़रीब हैं. भाजपा अपनी आलोचना की हर जगह बंद करना चाहती है. लवली यूनिवर्सिटी अभी भाजपा से अदावत मोल नहीं ले सकती. उसके संचालक आम आदमी पार्टी के राज्यसभा के सांसद हैं. उन्हें मालूम है कि भाजपा की नाराज़गी की क़ीमत उनके लिए कितनी भारी हो सकती है. क्या हुआ कि अपनी सुरक्षा के लिए मुकेश कुमार की बलि दे दे जाए. आख़िर अशोका यूनिवर्सिटी ने प्रताप भानु मेहता को बाहर का रास्ता दिखा ही दिया था.

आज संस्थानों के बचे रहने की शर्त एक ही है: भाजपा सरकार से वफ़ादारी का ऐलान. अगर वह न हो तो खामोशी. मुकेश कुमार की मुखरता लवली यूनिवर्सिटी के संचालकों के लिए ख़तरनाक हो सकती थी. उनके सामने विकल्प था: वे अपने कार्यक्रम बंद कर दें और यूनिवर्सिटी में बने रहें या बोलना जारी रखें और सेवामुक्त हों. मुकेशजी ने दूसरा विकल्प चुना.

यह आर्थिक असुरक्षा का रास्ता है. लेकिन स्वाधीनता और सुरक्षा में क्या चुनना चाहिए? मुकेशजी ने उसका उत्तर दे दिया है.

उनसे ठीक विपरीत लवली यूनिवर्सिटी ने क्या विश्वविद्यालय कहलाने का अपना अधिकार खो नहीं दिया है? कह सकते हैं कि एक आदमी के आने-जाने से किसी संस्थान को बहुत फ़र्क नहीं पड़ता. लेकिन उसे जिस वजह से जाना पड़ा, वह वजह बतलाती है कि विश्वविद्यालय अपने धर्म का निर्वाह कर पा रहा है या नहीं. वह धर्म है स्वतंत्र विचारों के लिए खुली जगह मुहैया कराना. अगर विश्वविद्यालय आपको सार्वजनिक तौर पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने से रोके तो वह अपने उद्देश्य से विमुख हो रहा है.

यह बता दोहराना ज़रूरी है कि विश्वविद्यालय के अध्यापकों का एक काम समाज से लगातार संवाद करना है ताकि वह ख़ुद को और जो कुछ भी उसके साथ हो रहा है उसे समझ सके. अध्यापक समाज को तथ्य भी प्रदान करते हैं और वे वैचारिक औज़ार भी देते हैं जिनके सहारे वह घटनाओं और परिस्थितियों का विश्लेषण कर सके. यह अध्यापक का सामाजिक दायित्व है.

जो कहते हैं कि अध्यापकों को सिर्फ़ कक्षा से मतलब होना चाहिए और उन्हें ख़ुद को पाठ्यक्रम पूरा करने तक सीमित रखना चाहिए वे अध्यापकों की भूमिका के बारे में कुछ नहीं जानते.

मुकेश कुमार के साथ जो हुआ, वह अन्य विश्वविद्यालयों में, ख़ासकर निजी विश्वविद्यालयों में चुपचाप घटित हो रहा है और उसकी हमें प्रायः खबर नहीं हो पाती. निजी विश्वविद्यालय पत्रकारिता या जनसंचार जैसे विषयों में प्रायः कम अवधि के अनुबंध पर अध्यापकों को बहाल करते हैं. अनुबंध को जारी रखना न रखना उनकी मर्ज़ी है.

लेकिन पिछले दिनों ऐसे अस्थायी अध्यापकों के अनुबंध ख़त्म कर दिए गए हैं जो भाजपा के लिए असुविधाजनक माने जाते हैं. वे सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं बोल पाते क्योंकि इससे आगे की हर संभावना समाप्त हो जाने का ख़तरा है.

निजी विश्वविद्यालयों की नकेल कसना सरकार के लिए आसान है. उनके संरक्षक प्रायः उद्योगपति, व्यवसायी होते हैं. सरकार किसी बहाने उनके व्यवसाय पर चोट कर सकती है. वह ज़मीन, पानी, बिजली, इमारत को लेकर विश्वविद्यालय को तरह तरह से तंग कर सकती है. क्या कोई संस्थान किसी एक अध्यापक की सार्वजनिक अभिव्यक्ति के लिए इतनी झंझट मोल ले सकता है? क्या यह बहुत महंगा सौदा नहीं?

इसलिए भली मंशा वाले संचालक अध्यापकों को कहते हैं कि उन्हें अपनी क्लास में पूरी छूट है लेकिन बाहर वे मुंह बंद रखें. इससे कम से कम विश्वविद्यालय तो बचा रहेगा. इसी कारण आप अख़बारों और दूसरी जगहों पर निजी विश्वविद्यालयों के अध्यापकों के लेख शायद ही देखेंगे. ऐसा नहीं कि उन्होंने अपने विचार बदल दिए हैं या वे डर गए हैं. अपने संस्थान के हित में वे चुप हैं.

यह अभी दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थान के साथ नहीं हो रहा. लेकिन सरकार कोशिश कर रही है कि वह अध्यापकों की सेवा की शर्तों में तब्दीली करके उनके सार्वजनिक लेखन या गतिविधि पर पाबंदी लगा दे. कई केंद्रीय संस्थान यह कर चुके हैं.

समाज में उसके इस क़दम को समर्थन मिलता है क्योंकि आम समझ है कि सरकार के पैसे से तनख़्वाह पाने वालों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार नहीं. लेकिन यह समझ ही भ्रामक है.

सार्वजनिक संसाधन को सार्वजनिक हित में इस्तेमाल किया जाना चाहिए. सार्वजनिक हित और सत्ता में हमेशा तनाव रहता है. बल्कि कई बार सत्ता अपने हित को ही सार्वजनिक हित मानने के लिए जनता को बाध्य करती है. ज्ञान के क्षेत्र में काम करने वालों का काम है जनता को इस तनाव और द्वंद्व के प्रति सजग रखना. उनका सार्वजनिक बोलना या लिखना उनके लिए नहीं जनता के हित के लिए आवश्यक है. जो तथ्य सरकार देती है और अपने निर्णयों का जो कारण देती है, उनकी जांच कैसे होगी? अध्यापक इसी जगह समाज की मदद करते हैं.

ताज्जुब नहीं कि प्रायः सत्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच संबंध मधुर नहीं होते. लेकिन सर्वसत्तावादी तो उनके शत्रु ही होते हैं. अभी भारत में ऐसे ही सर्वसत्तावादी शासन कर रहे हैं. वे अपनी आवाज़ के अलावा और कोई आवाज़ देश में नहीं रहने देना चाहते. मुकेश कुमार जैसे व्यक्ति की तो क़तई नहीं. मुकेश कुमार ने नौकरी की जगह अपनी आवाज़ की आज़ादी चुनी. लवली यूनिवर्सिटी ने क्या चुना? और उसके छात्रों को क्या इसका एहसास हुआ कि उनसे क्या छीन लिया गया?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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