अमर्त्य सेन समेत शिक्षाविदों ने भारत में आलोचकों को बिना मुक़दमे लंबी क़ैद में रखने की आलोचना की

नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन सहित अंतरराष्ट्रीय शिक्षाविदों ने बड़ी संख्या में लेखकों, पत्रकारों और एक्टिविस्ट्स को बिना मुक़दमे के लंबे समय तक क़ैद में रखने की आलोचना की और कहा कि ऐसे कारावास को भारतीय संसद द्वारा पारित ग़ैरक़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम में संशोधन के माध्यम से विधायी समर्थन दिया गया है.

(फोटो: याक़ूत अली/द वायर)

नई दिल्ली: नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन सहित प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय शिक्षाविदों ने एक बयान जारी कर केंद्र सरकार के आलोचक लेखकों, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को बिना मुकदमे के लंबे समय तक हिरासत में रखने पर चिंता व्यक्त की है.

द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक, सेन ने एक अलग बयान में कहा, ‘ब्रिटिश शासन के तहत भारतीयों को अक्सर गिरफ्तार किया जाता था और बिना मुकदमा चलाए जेल में डाल दिया जाता था और कुछ को लंबे समय तक जेल में रखा जाता था. एक युवा के रूप में मुझे आशा थी कि जैसे ही भारत स्वतंत्र होगा, औपनिवेशिक भारत में उपयोग की जाने वाली यह अन्यायपूर्ण व्यवस्था बंद हो जाएगी. अफ़सोस, ऐसा नहीं हुआ और आरोपी को बिना मुक़दमा चलाए गिरफ़्तार करने और जेल में रखने की असमर्थनीय प्रथा आज़ाद और लोकतांत्रिक भारत में भी जारी है.’

एक अलग घटनाक्रम में सूचना की स्वतंत्रता के अधिकार की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करने वाले पेरिस स्थित गैर सरकारी संगठन रिपोर्टर्स सैन्स फ्रंटियर्स (आरएसएफ) ने यूरोपीय संघ से स्वतंत्र मीडिया न्यूज़क्लिक के साथ काम करने वाले या उसके साथ सहयोग करने वाले दर्जनों पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार दिल्ली पुलिस के चार उच्च-रैंकिंग अधिकारियों पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहा है.

न्यूज़क्लिक पर बयान ‘भारत में प्राथमिक स्वतंत्रता को कमज़ोर करने पर’ केंद्रित है.

बयान पर अन्य हस्ताक्षरकर्ताओं में लेखक अमिताव घोष, प्रिंसटन के प्रोफेसर वेंडी ब्राउन और जान वॉर्नर-मुलर; कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कले के जूडिथ बटलर; कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गायत्री चक्रवर्ती स्पिवक, शेल्डन पोलक, जोनाथन कोल, कैरोल रोवेन और अकील बिलग्रामी; शिकागो यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर मार्था सी. नुसबौम; न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के स्टीवन ल्यूक्स; येल के डेविड ब्रोमविच; थॉमस जेफरसन स्कूल ऑफ लॉ के प्रोफेसर मार्जोरी कोहन; हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के जेनेट ग्यात्सो; मॉन्ट्रियल यूनिवर्सिटी के चार्ल्स टेलर; और यरूशलेम में हिब्रू यूनिवर्सिटी के डेविड शुलमैन शामिल हैं.

शिक्षाविदों ने कहा, ‘इन व्यक्तियों ने जो कुछ भी किया है वह भारत में वर्तमान सरकार की आलोचना करना है. प्रबीर पुरकायस्थ, 75 वर्षीय वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और न्यूज़क्लिक के संस्थापक संपादक, जिनके कार्यालय और घर की लगातार हफ्तों तक तलाशी ली गई. बिना कोई साक्ष्य पाए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है और लगभग छह महीनों से जेल में रहने के बावजूद अभी तक आरोपपत्र जारी नहीं किया गया है; मीडिया की स्वतंत्रता पर इस तरह की कार्रवाई के हानिकारक प्रभाव हर किसी के सामने स्पष्ट हैं.’

बयान में भीमा कोरेगांव-एल्गार परिषद मामले और दिल्ली दंगों की साजिश मामले में गिरफ्तार किए गए उन लोगों का भी उल्लेख है जो कई वर्षों से मुकदमे की प्रतीक्षा में सलाखों के पीछे हैं.

बयान में कहा गया है, ‘मुकदमे के बिना इस लंबे कारावास को भारतीय संसद द्वारा पारित गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम में संशोधन के माध्यम से विधायी समर्थन दिया गया है. लेकिन विधायी समर्थन इस तरह की कैद के लिए कोई औचित्य प्रदान नहीं करता है. वास्तव में इसे औचित्य के रूप में उपयोग करना यह कहने के समान है कि संवैधानिक रूप से गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को विधायी बहुमत के माध्यम से निरस्त किया जा सकता है; संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद विधायी बहुमत प्राप्त सरकार द्वारा किसी को भी लंबे समय के लिए कैद किया जा सकता है. यह संविधान को कमज़ोर करने और लोकतंत्र के ढांचे को उलटने जैसा है.’

आरएसएफ ने पुलिस अधिकारियों का नाम बताए बिना कहा है कि लंदन स्थित गुएर्निका 37 चैंबर्स (मानवाधिकार वकीलों की एक फर्म) के साथ-साथ इसने ‘मामले को यूरोपियन एक्सटर्नल एक्शन सर्विस (यूरोपीय संघ की राजनयिक सेवा) को सौंप दिया है और अनुरोध किया है कि इसे दिल्ली पुलिस की आतंकवाद विरोधी इकाई के चार अधिकारियों के खिलाफ प्रतिबंध लगाने के लिए सदस्य राज्यों को भेजा जाए, जो देश में पत्रकारों पर हो रही अभूतपूर्व कार्रवाई में फंसे हुए हैं.’