नई दिल्ली: साहित्य अकादमी में बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप के मसले पर वरिष्ठ मलयालम लेखक सी. राधाकृष्णन द्वारा अकादमी की सदस्यता से हालिया इस्तीफ़े के बाद इस विवाद ने एक नया मोड़ ले लिया है. अकादमी के अनुसार केंद्रीय संस्कृति राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल हिंदी के प्रमुख लेखक हैं, जबकि तमाम लेखक उनकी लेखकीय उपस्थिति को सिरे से नकारते हैं.
अकादमी की सामान्य परिषद के सदस्य सी. राधाकृष्णन ने एक अप्रैल को दिए अपने त्यागपत्र में बीते महीने अकादमी के एक प्रमुख साहित्य आयोजन का उद्घाटन किसी साहित्यिक हस्ती के बजाय केंद्रीय संस्कृति राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल से कराने को लेकर और इस बात को आखिरी समय तक न बताए जाने को लेकर कड़ा विरोध जताया है.
द वायर से बात करते हुए उन्होंने बताया कि यह निर्णय एक दिन में नहीं लिया गया था. पिछले साल भी एक कनिष्ठ मंत्री साहित्य अकादमी के एक महोत्सव में पहुंचे थे और सदस्यों ने इसका विरोध किया था. अकादमी के प्रशासन ने तब आश्वासन दिया था कि इसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी.
राधाकृष्णन कहते हैं कि वह किसी राजनीतिक दल के ख़िलाफ़ नहीं हैं, लेकिन अकादमी के राजनीतिकरण के ख़िलाफ़ हैं.
अकादमी के सचिव के. श्रीनिवास राव द्वारा जारी आधिकारिक बयान में कहा गया है कि अकादमी की स्वायत्तता का उल्लंघन नहीं हुआ है. मंत्री अर्जुन राम मेघवाल की साहित्यिक योग्यता का बचाव करते हुए अकादमी के अध्यक्ष माधव कौशिक ने कहा है कि वह लेखक हैं और हिंदी और राजस्थानी भाषा में प्रवीण हैं. अकादमी ने अपने बयान में मंत्री मेघवाल की किताबों की भी सूची जारी की है – एक सफ़र हमसफ़र के साथ, दिव्य पथ दांपत्य का, भारतीय मूल्य व परंपरा को सशक्त करने वाला क़ानून इत्यादि.
दिलचस्प है कि केंद्रीय राज्य मंत्री के संसदीय क्षेत्र बीकानेर के वरिष्ठ साहित्यकार और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि नंदकिशोर आचार्य ने संपर्क किए जाने पर मेघवाल के लेखन कर्म के बारे में अनभिज्ञता ज़ाहिर की. मेघवाल की किताबों पर वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी टिप्पणी करते हुए कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कुछ कविताएं लिखी हैं, उन्हें कौन कवि मानता है? यह व्यर्थ का तर्क है. पचास सालों से साहित्यिक परिदृश्य में सक्रिय होने के बावजूद मैंने अर्जुन राम मेघवाल की चर्चा बतौर लेखक कभी नहीं सुनी है. अकादमी ने उन्हें इसलिए नहीं बुलाया था कि वह लेखक हैं, बल्कि इसलिए कि वह मंत्री हैं. राधाकृष्णन की आपत्ति बिल्कुल वाजिब है.’
साहित्य अकादमी से सम्मानित हिंदी लेखक मृदुला गर्ग भी मेघवाल के लेखकीय योगदान से अपरिचित हैं. ‘उनकी किताबों के जो नाम दिए गए हैं मैं उन्हें साहित्यिक पुस्तकें नहीं मानती. यह मेरी कमी हो सकती है, लेकिन मैंने बतौर लेखक उनका नाम नहीं सुना,’ वह कहती हैं.
वरिष्ठ हिंदी आलोचक वीरेंद्र यादव भी मेघवाल के कथित साहित्यिक व्यक्तित्व पर प्रश्न करते हैं. द वायर से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘उनकी दांपत्य जीवन की किताब पर कई हिंदी लेखक पूछ रहे हैं कि क्या इसका कोई साहित्यिक मूल्य है या इससे उन्हें लेखक के तौर पर मान्यता दे दी जानी चाहिए. मंत्री के तौर पर उनका जो बायोडाटा इंटरनेट पर (केंद्रीय मंत्रालय की वेबसाइट) मौजूद है, उसमें तक किसी किताब का कोई उल्लेख नहीं है.’
नए नहीं हैं साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर सवाल
साल 2015 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में कई वरिष्ठ लेखकों ने अकादमी की चुप्पी पर सवाल उठाए थे और देश में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने शुरू किए थे. नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, के. वीरभद्रप्पा जैसे 36 लेखकों ने अकादमी पुरस्कार लौटाए थे, पांच लेखकों ने अकादमी के आधिकारिक पदों से इस्तीफा दे दिया था.
वर्तमान प्रकरण के बारे में अशोक वाजपेयी कहते हैं, ‘अकादमी की स्वायत्तता का अपहरण सरकार द्वारा किया जाता रहा है, यह तो इसी बात से स्पष्ट है कि जब सरकार असहिष्णुता को बढ़ावा दे रही थी, लेखकों-बुद्धिजीवियों की हत्या हो रही थी, जिनमें से कुछ ख़ुद उसके द्वारा पुरस्कृत थे, तब भी अकादमी कुछ नहीं कर रही थी या कहिए कि करना नहीं चाह रही थी. स्वच्छ्ता अभियान के समय अकादमी ने इस पर राष्ट्रीय परिसंवाद आयोजित किया था. मतलब आप सरकार की नीतियों का प्रचार-प्रसार करते रहे! मेरा आशय यह है कि यह धीरे-धीरे हुआ और बीते दस वर्षों में अपने चरम पर पहुंच गया है.’
उन्होंने अकादमी के वर्तमान अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के साहित्यिक क़द पर सवाल उठाते हुए जोड़ा कि ऐसे लोगों से स्वायत्तता बनाए रखने की उम्मीद रखना मूर्खता होगी.
वीरेंद्र यादव भी अकादमी में राजनीतिक हस्तक्षेप का उल्लेख करते हैं. उनका कहना है, ‘पिछले दस सालों में अकादमी के कार्यक्रमों में सरकार के मंत्रियों की आवाजाही यक़ीनन बढ़ी है. पहले ऐसे आयोजन लेखकों के होते थे, लेकिन अब कुछ वर्षों से केंद्रीय मंत्री केंद्रीय भूमिका का निर्वहन करते हैं. इससे लेखकों में रोष का पैदा होना और अकादमी की स्वायत्तता के खंडित होने का अंदेशा होना स्वाभाविक है.’
‘नेताओं को साहित्य के महत्वपूर्ण आयोजनों से बचने की कोशिश करनी चाहिए’
मृदुला गर्ग का मानना है कि राजनीतिज्ञों को साहित्य अकादमी के महत्वपूर्ण अवसरों पर मुख्य अतिथि बनाने से बचना चाहिए. यह दायित्व साहित्यकारों, लेखकों, कलाविदों को देना चाहिए. पिछले दस वर्षों में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर उठते सवालों पर वह कहती हैं, ‘पिछले साल अकादमी ने शिमला में एक बड़ा आयोजन किया था. वहां लेखक थे, साहित्यकार थे लेकिन ज़्यादातर सत्रों में धर्मगुरुओं या राजनीतिज्ञों का वर्चस्व था..’
क्या अकादमी का स्वतंत्र न रहना साहित्य के लिए कोई ख़तरा है? अशोक वाजपेयी कहते हैं, ‘सौभाग्य से साहित्य की स्वायत्तता और अकादमी की स्वायत्तता में अंतर है. वह न उनके पोसने से बनेगी, न उनके आत्मसमर्पण करने से ख़त्म होगी. साहित्य की स्वायत्तता वही है जो सी. राधाकृष्णन ने अपने इस्तीफ़े में व्यक्त की है.’