भारत एक असभ्य-अभद्र-बर्बर युग में प्रवेश कर चुका है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंसा को सार्वजनिक अभिव्यक्ति का लगभग क़ानूनी माध्यम स्वीकार किया जाने लगा है. समाज उसे और उसके फैलाव को लेकर, उसके साथ जुड़े झूठों और घृणा को लेकर विचलित नहीं है. पढ़े-लिखे लोग उसे अवसर मिलते ही, उचित ठहराने लगे हैं.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

चौरासी बरस की उमर में मुझे अगर कोई पूछे कि संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या लगता है तो मैं बेहिचक कहूंगा कि मनुष्य के पास अपनी आदिम बर्बरता से मुक्ति पाने के सभी उपाय और अवसर हैं पर वह इस बर्बरता से मुक्त नहीं हो पाया है. यह, मेरे लिए, सबसे, निश्चय ही दुखद, आश्चर्य लगता है.

हम अपना समय ही देखें. हमें एक-दूसरे को समझने-जानने-सहने के सभी सक्षम साधन सहज ही सुलभ हैं, संचार-यात्रा-आदि ने हमारे बीच बहुत सी दूरियां समाप्त कर दी हैं, हम एक-दूसरे के अधिक नज़दीक आ गए हैं पर हम दूसरों के प्रति, किसी न किसी बहाने, बर्बर होने से बाज़ नहीं आते हैं, न ही हमें अपनी इस सदा सक्रिय बर्बरता से कोई नैतिक संकोच होता है.

यूक्रेन पर रूसी आक्रमण और फ़िलिस्तीन पर इज़रायली आक्रमण दो ताज़ा उदाहरण हैं जो जल्दी ही दृश्य से ग़ायब होते नज़र नहीं आते. दूसरे महायुद्ध में, जो कुछ लगभग 80 वर्ष पहले भयानक बर्बादी, नृशंसता और बर्बरता के बाद ख़त्म हुआ था, जिन यहूदियों का बेहद क्रूर नरसंहार हुआ था, उन्हीं के लिए बना देश इज़रायल अब उतनी ही बर्बरता गाज़ा में हर रोज़ कर रहा है.

यह तो हुई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैल रही बर्बरता की बात. अगर स्वयं अपने यहां राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर जो बर्बरता लगातार हो रही है वह यह साबित करने के लिए काफ़ी है भारत एक शांतिप्रिय अहिंसक समाज नहीं है: उसमें जाति-धर्म-संप्रदाय आदि के नाम पर भयानक हिंसा है जो घर-पड़ोस से लेकर सभी सार्वजनिक जगहों पर फैली हुई है. भौतिक और मरने-मारने की हिंसा से लेकर हम व्यवहार में, वाणी में, प्रतिक्रिया में जितने स्वतः स्फूर्त ढंग से बर्बर आज हैं उतने शायद पहले कभी नहीं थे. निरपराधों और निहत्थों को मारना-घायल करना बहादुरी का नया संस्करण है.

बर्बरता है सो है. पर इससे अधिक डरावनी बात यह है कि उसे, हिंसा को सार्वजनिक अभिव्यक्ति का लगभग क़ानूनी माध्यम स्वीकार किया जाने लगा है. समाज उसे और उसके फैलाव को लेकर, उसके साथ जुड़े झूठों और घृणा को लेकर विचलित नहीं है. पढ़े-लिखे लोग उसे अवसर मिलते ही, उचित ठहराने लगे हैं. नैतिक व्यवहार, नैतिक अभिव्यक्ति और नैतिक दृष्टि को लेकर हिंदी मध्यवर्ग तो रसातल में चला गया है जिसे वह बहुप्रतीक्षित स्वर्ग मानने लगा है.

भारत एक असभ्य-अभद्र-बर्बर युग में प्रवेश कर चुका है. पारंपरिक पदावली में कहें तो यह घोर कलियुग है. एक महान सभ्यता, विकास और नई टेक्नोलॉजी के सहारे, बर्बरता के ऐसे मुक़ाम पर पहुंच जाएगी ऐसा हममें से कई ने न सोचा होगा. लेकिन हम उसके लिए अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते. एक बेहद विचित्र अर्थ में वॉल्टर बेन्यामिन की यह स्थापना कि ‘सभ्यता का इतिहास बर्बरता का भी इतिहास है’ सही साबित हो रही है. हम एक साथ सभ्‍य और बर्बर हैं.

समग्रता की अभिशप्त खोज

जिन मानवीय अभिप्रायों से हम सदियों से, लगभग, संसार की हर सभ्यता में घिरे रहे हैं, उनमें से एक है जीवन की समग्रता. इस समग्रता की समझ और खोज से कई माध्यम अपनाए: धर्म, अध्यात्म, साहित्य, चिंतन, दर्शन आदि. इसमें विज्ञान भी जुड़ा.

लातिन अमेरिकी उपन्यासकार अर्नेस्तो सबेत ने कहा है कि ‘आधुनिक दुनिया में, जिसे दर्शन ने त्याग दिया और वैज्ञानिक विशेषीकरणों ने बिखरा दिया है, उपन्यास ही बचा है आखिरी वेधशाला की तरह जहां से हम मानवीय जीवन का उसकी समग्रता में आलिंगन कर सकते हैं.’

यह दावा है या सचाई इसका निश्चय करना आसान नहीं है. पर इसे ध्यान में रखकर हम उपन्यास की स्थिति और यात्रा के बारे में कुछ सोच सकते हैं.

उपन्यास मुख्यतः पश्चिम का एक रेडिकल आविष्कार रहा है. उसे महाकाव्य का स्थानापन्न भी कहा जाता है. यह मानवीय सचाई, संघर्ष-द्वंद्व, अंतर्विरोधों और विडंबनाओं का आख्यान रहा है. उपन्यास की इतिहास से होड़ ही है और औपन्यासिक सच संशयग्रस्त भी रहता आया है. वह संसार की विचित्रता और बहुलता का दस्तावेज़ भी है और उसमें मिथक, इतिहास, वृतांत, लोकगाथाएं, रोज़मर्रा की ज़िंदगी, विविध मानवीय प्रसंग, क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं, स्वप्न-स्मृति-यथार्थ का संगुम्फन होता रहा है.

उपन्यास परिवार-समाज-व्यक्ति-परंपरा-मानवीय संबंध सबको समेटता और धर्म-राजनीति-नैतिकता-परिवर्तन-क्रांति को संबोधित करता रहा है. वह स्मृति का रंगमंच, कल्पना का घर और विस्मृति का दुर्ग सभी है. मनुष्य की गरिमा और संभावना, उसकी क्षुद्रता-तुच्छता-व्यर्थता सभी उसमें प्रगट होते रहे हैं इतना सब एक उपन्यास नहीं कर सकता, न किसी एक उपन्यास ने ऐसा किया है. पर अच्छे और महान उपन्यासों ने, मिलकर, इतना विपुल वितान रचा है. यह और बात है कि, फिर भी, उपन्यास समग्रता पा सकने का दावा नहीं कर सकते. ऐसी समग्रता एक असंभव लक्ष्य है, रहेगा. याद करें कि कबीर के एक रूपक का उपयोग कर कहें कि कविता शून्य के शिखर पर दिया जलाना चाहती है: ऐसा महान कवियों तक से शायद ही कभी हो पाया हो.

उपन्यास और यथार्थ का संबंध भी काफ़ी उलझन में डालता है. अक्सर उपन्यास को आसानी से यथार्थवादी विधा कह दिया जाता है जबकि यथार्थवाद यथार्थ को देखने की एक विविध भर है, और भी कई विधियां हैं. उपन्यास ने ही अपनायी हैं. यथार्थवाद यथार्थ नहीं होता. साहित्य और कलाओं में यथार्थ शिल्पित यथार्थ होता है और यह कहा जा सकता है कि उपन्यास का यथार्थ विशिष्ट होता है वैसे ही जैसे कि औपन्यासिक विवेक होता है. यह अक्सर निरा-निपट यथार्थ नहीं होता: यथार्थ उपन्यास में भाषा से उपजता है और कल्पना, स्मृति और स्वप्न में बिंधा होता है. उसे उनसे अलगाकर देख सकना अनुचित है.

उपन्यास को लेकर कुछ प्रश्न उठते हैं, उठते रहे हैं. अंततः क्या उपन्यास महाकाव्य का स्थानापन्न बन पाया? क्या उपन्यास आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, क्था-इतर गद्य से प्रतिकूल ढंग से प्रभावित हुआ या उनसे कुछ विधेयात्मक उसके ग्रहण किया? क्या विशाल उपन्यास का युग बीत चुका? क्या उपन्यास में प्रयोगशीलता और नवाचार अब भी संभव है? उपन्यास पर, उसकी भाषा पर अख़बारी और टेलीविजनी भाषा का कितना प्रभाव पड़ा है? क्या हिंदी में उपन्यास का अपना आलोचना-शास्त्र विकसित हो पाया है? क्या कोई भारतीय उपन्यास है पश्चिमी उपन्यास, लातीनी अमरीकी उपन्यास की तरह? विभिन्न विमर्शो से उपन्यास कितना प्रभावित या प्रेरित हुआ है?

इस समय हिंदी अंचल भयानक और शायद अप्रत्याशित रूप से धर्मांधता, सांप्रदायिकता और जातिवाद से आक्रांत है. क्या हमारे उपन्यासों ने इस सचाई को व्यक्त, विन्यस्त और अन्वेषित किया है? उपन्यास, उचित ही, मानवीय स्थिति-विडंबना-विफलता आदि के बारे में तीख़े प्रश्न पूछता है. कभी-कभार हमें उपन्यास से, अपने उपन्यास से भी कुछ तीख़े प्रश्न पूछने चाहिए-यह हक़ स्वयं उपन्यास ही हमें देता है.

पूर्णता की खोज

कई बार लगता है कि ऐसे लोग हमारे आस-पास कम ही नज़र आते हैं जिन्हें अपने जीवन में पूर्णता की ख़ोज हो या जो अपने जीवन की अनिवार्य अपूर्णता का सजग अहसास करते हों. किसी लातिन अमेरिकी उपन्यासकार ने कभी कहा था कि लिखने की तरह पढ़ना भी जीवन की अपर्याप्तताओं के विरुद्ध प्रोटेस्ट होता है. हम गल्प में वह खोजते हैं जो हमें अपने जीवन में नहीं मिलता. हम गल्प गढ़ते ही इसलिए हैं कि हम अपने एक सीमित जीवन में कई जीवन में बिता सकें. यह संभावना होती है और वह सच भी हो सकती है अगर हम गल्प पढ़ने की आदत डाल सकें.

जब मैं आस-पास नज़र डालता हूं, अपनी हाउसिंग सोसाइटी के सदस्यों पर, जो कुछ सौ तो हैं ही, तो मुझे संदेह होता है कि उनमें से शायद एक फ़ीसदी भी अख़बारों के अलावा शायद कुछ नहीं पढ़ते; पुस्तकों से वे दूर हैं और उपन्यास पढ़ने का समय और फुरसत वे नहीं निकाल पाते. इस कारण उन्हें अपने जीवन में कोई कमी रह जाती या गई है इसका कोई एहसास भी नहीं लगता.

शायद उन्हें दूसरे जीवनों का अनुभव पुस्तकों से नहीं, टेलीविजन पर आती झूठी ख़बरों और भावुक धारावाहिकों से मिल जाता होगा. हमारे समाज की अनेक विडंबनाओं में से एक है कि पुस्तकें उसके इतने पास होते हुए भी, वह उनके अधिकांश से इतनी दूर है!

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)