ये बहुत कम लोगों को पता होगा कि एक समय भारतीय फुटबॉल टीम को ‘एशिया का ब्राजील’ कहा जाता था. मेलबर्न 1956 ओलंपिक में भारत एशिया की पहली ऐसी फुटबॉल टीम बनी, जिसने सेमीफाइन तक का सफर तय किया. भारत 1951 में एशियन गेम्स के पहले संस्करण का चैंपियन बना. 1962 जकार्ता में हमने सबसे मजबूत टीम दक्षिण कोरिया को 2-1 से हराकर गोल्ड मेडल जीता. हालांकि उस गोल्ड के बाद तीसरे गोल्ड का इंतज़ार अब भी जारी है.
ये विडंबना ही है कि फुटबॉल में भारत का शानदार इतिहास होने के बाद भी ये खेल आज न तो लोगों के दिलों में है और न ही मैदान में अपने स्वर्णिम विरासत को आगे लेकर बढ़ पाया है. शायद देश ने फुटबॉल को भुला दिया है, या यूं कहें कि ये खेल राजनीति की भेंट चढ़ गया है.
अजय देवगन की फिल्म ‘मैदान’ भारत में भुला दिए गए खेल फुटबॉल से जुड़ी सत्य घटना पर आधारित फिल्म है. इस स्पोर्ट्स बॉयोपिक के केंद्र में महान कोच सैयद अब्दुल रहीम हैं, जिनकी भूमिका पर्दे पर अजय देवगन ने निभाई है.
फिल्म की कहानी 1952 के समर ओलंपिक्स से शुरू होकर 1962 के एशियन गेम्स पर ख़त्म होती है. इस एक दशक में कोच सैयद अब्दुल रहीम कैसे फुटबॉल फेडरेशन, क्लब्स और राज्यों की राजनीति और बजट की कमी से जूझने के बावजूद भी वह कर दिखाते हैं, जिसकी देश में किसी ने कल्पना भी नहीं की होती. पूरी फिल्म इसी कॉन्सेप्ट के इर्द गिर्द बुनी गई है.
एशियन गेम्स 1962 के गोल्ड के बाद आज लगभग छह दशक बीत जाने के बाद भी भारतीय फुटबॉल टीम मेडल के इंतज़ार में है. हाल ही में जारी फीफा रैंकिंग में भारत शीर्ष 100 टीमों में भी अपनी जगह नहीं बना पाया था और 117वें स्थान पर पहुंच गया. फिल्म के आख़िर में लिखा ये संदेश आपको मौजूदा समय में देश में फुटबॉल की स्थिति पर सोचने को ज़रूर मजबूर कर देगा.
भारत में फुटबॉल के इतिहास की बात करें, तो साल 1937 में ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (एआईएफएफ) की स्थापना की गई, जो आगे चलकर देश में फुटबॉल के शासी निकाय के रूप में भारतीय फुटबॉल संघ (आईएफए) बना. आज़ादी के बाद भारत ने अपना पहला मैच फ़्रांस के खिलाफ साल 1948 में लंदन ओलंपिक में खेला. इस मैच में तालीमेरेन एओ ने भारत की कप्तानी की और सारंगापानी रमन आज़ादी के बाद भारत के पहले गोल स्कोरर बने. हालांकि, भारत को इस मैच में 2-1 से हार मिली. लेकिन इसके बाद जीत की एक नई पटकथा शुरू हुई.
सैयद अब्दुल रहीम भारतीय फुटबॉल इतिहास में सबसे लंबे समय तक कोच रहे हैं. उनके नेतृत्व में भारतीय फुटबॉल का सुनहरा दौर शुरू हुआ और एशियाई खेल 1951 और 1962 में टीम ने स्वर्ण पदक जीता. इसके अलावा कोच सैयद रहीम की अगुवाई में भारतीय टीम मेलबर्न 1956 ओलंपिक में चौथे स्थान पर रही. ये वह समय था जब भारतीय टीम को ‘एशिया का ब्राजील’ कहा गया, क्योंकि ये पहली बार था, जब एशिया की कोई टीम टॉप चार में जगह बनाने में कामयाब रही थी.
फिल्म में 1950 से 1960 के दशक के खिलाड़ियों के संघर्ष को भी बखूबी दिखाया गया है. संसाधनों के आभाव में भी इन खिलाड़ियों ने कमाल का ज़ज्बा दिखाया था. इस दौर में खेलने वाले पीके बनर्जी, नेविल डि’सूज़ा और पीटर थंगराज भारतीय फुटबॉल टीम के महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी थे. इनका नाम आज भी भारत के ऑल टाइम रिकॉर्ड लिस्ट में दर्ज है.
इस फिल्म में 1962 का वह दौर भी दिखाया गया है जब भारत ने आर्थिक तंगी के चलते एशियन गेम्स से फुटबॉल के दल को हटा दिया था. तब ये कोच रहीम ही थे जिन्होंने वित्त मंत्रालय से लड़कर टीम को बेहद कम खर्चे पर छोटे दल के साथ जकार्ता भेजा. वहां राजनीति की अलग दिक्कतों ने टीम का सफ़र और मुश्किल कर दिया. लेकिन कोच रहीम और उनकी टीम ने देश गोल्ड लेकर ही लौटी.
भारतीय फुटबॉल टीम के कोच और मैनेजर रहे सैयद अब्दुल रहीम को फुटबॉल जगत में खासा सम्मान हासिल है. भारतीय फुटबॉल के स्वर्णिम काल में ऊंचाई तक पहुंचाने के लिए उन्हें ही श्रेय दिया जाता है. रहीम को एक फाइटर माना जाता है क्योंकि उन्होंने कैंसर से जूझते हुए भी 1962 में भारत को अपनी बेहतरीन रणनीति के दम पर गोल्ड मेडल दिलवाया था.
आज देश के युवाओं को शायद ही इस बात की जानकारी हो कि जिस समय 1962 में जकार्ता एशियन गेम्स खेले जा रहे थे तब भारतीय टीम के कोच सैयद अब्दुल रहीम कैंसर से जूझ रहे थे. भारतीय टीम का फाइनल मैच साउथ कोरिया की टीम से होना था. यह टीम बहुत मज़बूत थी और भारतीय टीम के दो खिलाड़ी घायल और गोलकीपर बीमार थे. हलांकि यह कोच का ही जुझारूपन था कि ये तीनों ही खिलाड़ी फाइनल खेलने उतरे और भारत ने मैच 2-1 से अपने नाम करते हुए गोल्ड मेडल जीत लिया. भारतीय टीम की जीत के अगले साल 1963 में ही सैयद अब्दुल रहीम की कैंसर से जूझते हुए गुजर गए.
आज देश में सैयद अब्दुल रहीम को कुछ गिने चुने फुटबॉल प्रेमी ही जानते होंगे. ये विडंबना है कि कभी देश गर्व रहा फुटबॉल आज महज़ कुछ लोगों की ही ज़ुबान पर बचा है. कभी-कभी कुछ खिलाड़ी जैसे बाईचुंग भूटिया या सुनील छेत्री के नाम भले ही सुर्खियों में आ जाएं, लेकिन सच्चाई यही है कि आज भी पूरी भारतीय फुटबॉल टीम के खिलाड़ियों के नाम शायद ही किसी को पता हों. अमित शर्मा के निर्देशन में बनी ये फिल्म आपकी आंखों में आंसू लाती है, तो वहीं गर्व के पल भी देती है. ‘मैदान’ देखकर आप खेलों में फुटबॉल की अहमियत और देश में इस खेल की स्थिति दोनों के बारे गंभीरता से सोचने लगते हैं और एक सवाल ख़ुद से तो ज़रूर ही पूछते हैं कि आख़िर अब तक आपने भारतीय फुटबॉल के इतिहास और इस खेल में रुचि क्यों नहीं दिखाई.
आखिर में अगर इस फ़िल्म की तुलना दूसरी स्पोर्ट्स बॉयोपिक या ड्रामा फ़िल्म से करें, तो आप इसे फिल्म दंगल, ‘भाग मिल्खा भाग’ और ‘मैरी कॉम’ की तरह ही एक बेहतरीन फ़िल्म कह सकते है. हालांकि खेल का रोमांच आपको इसमें ऑल टाइम पॉपुलर फ़िल्म ‘चक दे इंडिया’ का ही मिलेगा. किसी भी अच्छी स्पोर्ट्स फिल्म का सबसे जरूरी पहलू उस खेल से दर्शकों का कनेक्शन है, जो आपको ‘मैदान’ के एक-एक गोल पर बखूबी महसूस होगा. मनोरंजन, ज्ञान और रोमांच से भरी इस फ़िल्म को दर्शक शायद दशकों तक नहीं भूल पाएंगे.