डेमॉगॉग, जो शुरुआत लफ़्फ़ाज़ के तौर पर करता है और तानाशाह में बदल जाता है

डेमॉगॉग लोगों के भीतर छिपी अश्लीलताओं को उत्तेजित करता है, समाज में विभाजन पैदा करता है और जो अंतर लोगों में है, उनका इस्तेमाल कर उनके बीच खाई खोदता है, वह एक के हित को दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करता है, ख़ुद को अपने लोगों के रक्षक के तौर पर पेश करता है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

देखा आप ने?
अभी-अभी आपके सामने से एक औरत गुजरी
उसने छत की ओर अपनी मुट्ठियां उछालीं
कठपुतलियों की डोरियां खींचने की तरह
उसने उंगलियां नचाईं
और इस बीच उसके मुंह से लगातार
कड़वे और शर्मनाक शब्दों की धारा बहती रही
हम आप सब इस तमाशे को देखते रहे
हममें से किसी ने कुछ न कहा
न उसकी ज़बान पकड़ी
आख़िर ऐसा क्यों हुआ?
गहरी नफ़रत में शायद सम्मोहन का जादू होता है
जब तक वह बोलती रही
हम उसी सम्मोहन में डूबे रहे
जैसे उसने हमें एक ऐसी दुनिया में पहुंचा
दिया हो
जहां पहुंचना हमारे लिए ज़रूरी हो
आख़िर ऐसा क्यों हुआ?
आप अपनी बांहों की रोमावली को छू कर देखें
क्या आप में कोई फ़र्क तो नहीं पैदा हो गया है?
आप अंगड़ाई ले कर देखें
आंखों को सहलाएं
खड़े हो कर आस्तीनों की गर्द झाड़ दें
आप की आस्तीनें साफ़ हैं
त्वचा नर्म है

रोमावली मुलायम है
जैसी हरेक आदमी की होनी चाहिए
सम्मोहन टूटने के बाद आप सोच रहे हैं
कि आप वही हैं
जो आप घर से चले थे
आपकी तरफ़ से कोई और
नफ़रत की उस आकर्षक दुनिया में चला
गया था—
आख़िर ऐसा क्यों हुआ?
एक बात और आपने देखी होगी
मेरा इशारा उसी औरत की ओर है
जो अभी आपके सामने से गुजरी
आख़िरी गालियां बकते बकते
उसकी आंखें सूज गई थीं
उसके ओंठ टेढ़े हो गए थे
लेकिन धीरे धीरे उसका शरीर
निराकार होता गया
पहले उसके पैर ग़ायब हुए फिर
हाथ फिर धड़
यहां तक कि कुछ देर वह पसलियों और मुंह के सहारे
इस तमाम माहौल को कोसती रही
आख़िरकार सब कुछ काफ़ूर की तरह
उड़ गया
सूजी हुई आंखें भी ग़ायब हो गईं.

देखा आप ने?
इतने बड़े विशाल कक्ष में
इतनी देर तक सुई गिरने की आवाज़ भी नहीं हुई
आप सब बुत की तरह देखते रहे
चारों ओर दहशत भरा सन्नाटा छा गया.
आख़िर ऐसा क्यों हुआ?

शायद गहरी नफ़रत से सम्मोहन उपजता है
शायद सम्मोहन से दहशत
और दहशत से सन्नाटा उपजता है
तब वह समय आता है
जब शरीफ़ आदमी यह नहीं सोचता
कि क्या हो रहा है
सिर्फ़ इतना ही सोचता है
कि आगे क्या होगा.
तमाशबीन सज्जनो,
नाटक ख़त्म हो गया है.
अब इस कक्ष के दरवाज़े खोल दिए जाएंगे
आप सब इस दहशत के बारे में
दबी ज़बान बातें करते
उस ग़ायब औरत को भुलाने की कोशिश करते
घर चले जाएंगे.
लेकिन मेहरबान सज्जनो!
बाहर जाने के पहले
कृपया अपने को टटोलकर
अच्छी तरह देख लें
कहीं ऐसा तो नहीं हुआ नाटक के दौरान
कि आप ख़ुद काफ़ूर की तरह ग़ायब हो गए हैं.
और अब जो आप की तरफ़ से घर वापस जा रहा है.
वह नहीं है जो यहां आया था.
उपस्थित या अनुपस्थिति सज्जनो
जवाब देने की जल्दी न कीजिए
घर जा कर
मेरी तरह देर तक पूछते रहिए
आख़िर ऐसा क्यों हुआ?

(‘अंत में सूत्रधार का वक्तव्य’)

विजयदेव नारायण साही की यह कविता पिछले 10 सालों में रह रहकर याद आती रही है. लेकिन इससे यह न सोचा जाना चाहिए कि जो अभी हमारे यहां हो रहा है, वह इस कविता की याद दिलाता है. हिंदी में लिखी जाने की वजह से इस कविता का रिश्ता सिर्फ़ हिंदी इलाक़े से या भारत से होना चाहिए, यह मान लेना ठीक न होगा. यह कविता पूरी दुनिया के किसी भी इलाक़े या किसी भी ज़बान के लोगों के बारे में हो सकती है.

इस कविता को अंग्रेज़ी में पढ़कर अमेरिकी डोनाल्ड ट्रंप के बारे में सोच सकते हैं, जर्मन एडोल्फ़ हिटलर के बारे में. या इटली के लोगों को मुसोलिनी की याद सकती है. लेकिन वे इतना पीछे क्यों जाएं. अभी हाल ही में उन्होंने जार्जिया मिलोनी को अपना प्रधानमंत्री चुना है. यूरोप में इस तरह के लफ़्फ़ाज़ों का इतिहास रहा है और आज भी वे कसरत से पैदा हो रहे हैं. उन मुल्कों में जो ख़ुद को इंसानी तहज़ीब और संस्कृति एक मुहाफ़िज़ के तौर पर देखते और पेश करते रहे हैं.

यह कविता साही की उन चंद कविताओं में है जो अपनी व्याख्या ख़ुद करती हैं. यह भी दिलचस्प है कि इसकी पात्र एक औरत है. कुछ आलोचकों का ख़याल है कि यह शायद इंदिरा गांधी को ध्यान में रखकर लिखी गई कविता है. यह संभव है. आख़िर उन्होंने आपातकाल लगाया था और जनतंत्र को स्थगित किया था. लेकिन तब की याद जिन्हें है वे पूछ सकते हैं कि क्या वे वह कर रही थीं जो इस कविता की औरत कर रही है?

यह भी हो सकता है कि साही को एक ऐसे जनतांत्रिक नेता की कल्पना की सूझ उस परिघटना से मिली हो. कविता की औरत इसलिए अनिवार्यतः औरत नहीं है. वह एक प्रतिनिधि काव्यात्मक चरित्र है. और जैसा हमें दुनिया का इतिहास बतलाता है, ऐसे चरित्र प्रायः पुरुष ही होते हैं.

कविता जनतंत्र में लफ़्फ़ाज या मज़मेबाज़ और लोगों के रिश्ते की है. इसमें पात्र सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ नेता नहीं, जनता भी है. बल्कि एक लिहाज़ से यह उस जनता पर अधिक केंद्रित है जो ऐसा नेता न सिर्फ़ चुनती है, बल्कि उसके कारण ख़ुद भी बदल जाती है.

जनतंत्र ही लफ़्फ़ाज़ पैदा करता है. इसलिए कि वह भाषा के ज़रिये काम करता है. जन समर्थन भाषा के माध्यम से हासिल किया जाता है. जनता को प्रभावित करना आवश्यक है, उसे ख़ुद से सहमत कराना उसका नेतृत्व लेने के लिए अनिवार्य है.

लफ़्फ़ाज़ या डेमॉगॉग जनतंत्र के लिए आरंभ से ही समस्या रहा है. वह जो जनतांत्रिक तरीक़े से सत्ता में आता है और फिर जनतंत्र को ही ख़त्म कर देता है. जैसा कहा जाता है, ऐसा नेता अपनी शुरुआत करता है एक लफ़्फ़ाज़ के तौर पर और बदल जाता है तानाशाह में. यह कोई 100 साल का मामला नहीं. जनतंत्र के बिल्कुल आरंभिक दौर से ही दार्शनिकों और विचारकों के लिए डेमॉगॉग का उभरना चिंता का विषय रहा है. ईसा से 5 सदी पहले यूनान में इस शब्द की ईजाद हुई. ऐसे नेताओं के लिए जो लोगों की भावनाओं को उत्तेजित करके और उनके भीतर के पूर्वग्रहों को सक्रिय करके उनका समर्थन हासिल करते हैं.

430 ईसा पूर्व एथेंस के लोगों पर ऐसे लफ़्फ़ाज़ों का राज हुआ जो उन्हें यह यक़ीन दिला रहे थे कि वे दुनिया जीत लेंगे. इनमें सबसे कुख्यात था क़्लियोन. उसके जीवनीकार प्लूटार्क ने उसके बारे में लिखा कि उसमें बदज़बानी और बेशर्म अंदाज़ के अलावा कुछ नहीं था.

प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में डेमॉगॉग के ख़तरे की चर्चा की. डेमॉगॉग लोगों के भीतर छिपी अश्लीलताओं को उत्तेजित करता है, समाज में विभाजन पैदा करता है और जो अंतर लोगों में है, उनका इस्तेमाल करके उनके बीच खाई खोदता है, वह एक के हित को दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करता है, ख़ुद को अपने लोगों के रक्षक के तौर पर पेश करता है. जो समस्याएं हैं उनके लिए एक समुदाय के लोगों को वह बलि के बकरे के तौर पर चिह्नित करता है.

सबसे कारगर हथियार है नफ़रत. डेमॉगॉग इसे पैदा करता है, अगर उसके बीज समाज में हैं तो खाद पानी देता है और अपने लोगों को समझाता है कि दरअसल नफ़रत वे नहीं कर रहे, उनसे नफ़रत की जा रही है.

नफ़रत से बेहतर कोई अस्त्र नहीं, कोई ज़रिया नहीं. उसमें जादू होता है:

गहरी नफ़रत में शायद सम्मोहन का जादू होता है
जब तक वह बोलती रही
हम उसी सम्मोहन में डूबे रहे
जैसे उसने हमें एक ऐसी दुनिया में पहुंचा
दिया हो
जहां पहुंचना हमारे लिए ज़रूरी हो
आख़िर ऐसा क्यों हुआ?

कविता का ध्यान जितना उस औरत पर नहीं उतना उन लोगों पर है जो उसके सम्मोहन में डूब जाते हैं और उसे अपने लिए अनिवार्य मानने लगते हैं: वह हमें वहां पहुंचा देती है, वहां पहुंचना हमें ज़रूरी लगने लगता है. कविता पूछती है, ऐसा क्यों होता है?

यह भी कि जो इस नफ़रत या कड़वाहट के सम्मोहन में पड़ते हैं, वे कोई और नहीं, हम सब हो सकते हैं:

आप अपनी बांहों की रोमावली को छू कर देखें
क्या आप में कोई फ़र्क तो नहीं पैदा हो गया है?
आप अंगड़ाई ले कर देखें
आंखों को सहलाएं
खड़े होकर आस्तीनों की गर्द झाड़ दें
आप की आस्तीनें साफ़ हैं
त्वचा नर्म है
रोमावली मुलायम है
जैसी हरेक आदमी की होनी चाहिए

जर्मनी में हिटलर और फासीवाद के अवसान के बाद साही की तरह सबने एक दूसरे से पूछा, ‘आख़िर ऐसा क्यों हुआ?’ उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी से इनकार किया:

सम्मोहन टूटने के बाद आप सोच रहे हैं
कि आप वही हैं
जो आप घर से चले थे
आप की तरफ़ से कोई और
नफ़रत की उस आकर्षक दुनिया में चला
गया था

यह सिर्फ़ ख़ुद को धोखा देना ही है. वह हम ही थे जो उस कक्ष में गए, हम ही थे जो नफ़रत के सम्मोहन में पड़े और हमने ही उसकी जय जयकार की.

हम ज़िम्मेदार हैं क्योंकि
उसके मुंह से लगातार
कड़वे और शर्मनाक शब्दों की धारा बहती रही
हम आप सब इस तमाशे को देखते रहे
हममें से किसी ने कुछ न कहा
न उसकी ज़बान पकड़ी

जब यह तमाशा ख़त्म होता है, नफ़रत का सम्मोहन टूटता है और मजमा भी तब हम शायद यह सोचकर कंधे झाड़ लेते हैं कि वे हम न थे, कोई और था जो इस घृणा को पी रहा था.

जब हम एक डेमॉगॉग को चुनते हैं तो ख़ुद को यह भी समझाते हैं कि यह तात्कालिक है, इससे हम बदल नहीं जाएंगे. लेकिन यह नहीं होता. नफ़रत हमें, समाज को बदलती है:

मेहरबान सज्जनो!
बाहर जाने के पहले
कृपया अपने को टटोलकर
अच्छी तरह देख लें
कहीं ऐसा तो नहीं हुआ नाटक के दौरान
कि आप ख़ुद काफ़ूर की तरह ग़ायब हो गए हैं.

नफ़रत से जो चोट लगती है, जो ज़ख़्म पैदा होता है, उसका दर्द देर तक रहता है. वह नफ़रत करनेवाले और जिससे नफ़रत की जाती है, दोनों को ही बदल देती है. इसलिए जब यह शुरू हो रहा हो, तभी ज़बान पकड़ना ज़रूरी है. क्यों हमें नफ़रत आकर्षक लगती है, क्यों हम एक लफ़्फ़ाज को चुनते हैं? कविता सावधान करती है कि इसके जवाब की हड़बड़ी करने से फिर हम वजह तक नहीं पहुंच पाएंगे:

उपस्थित या अनुपस्थिति सज्जनो
जवाब देने की जल्दी न कीजिए
घर जाकर मेरी तरह देर तक पूछते रहिए
आख़िर ऐसा क्यों हुआ?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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