साल 2007 के पहले आंध्र प्रदेश में नेत्रहीनों को विज्ञान और गणित की पढ़ाई करने की इजाज़त नहीं थी. ये छात्र केवल कला, भाषा, साहित्य और सोशल साइंस की पढ़ाई कर सकते थे. लेकिन श्रीकांत बोल्ला ने इसके खिलाफ आंध्र प्रदेश के हाई कोर्ट में मामला दायर किया. छह महीने संघर्ष किया और आखिरकार अदालत ने फैसला सुनाया था कि नेत्रहीन छात्र आंध्र प्रदेश राज्य बोर्ड के सभी स्कूलों में विज्ञान और गणित की पढ़ाई कर सकते हैं.
सिनेमाघरों में शुक्रवार (10 मई) को दस्तक दे चुकी अभिनेता राजकुमार राव की नई फिल्म ‘श्रीकांत’ असल में उद्योगपति श्रीकांत बोल्ला की कहानी है. जो अपनी आंखों से दुनिया तो नहीं देख सकते, लेकिन सपने, बड़े सपने जरूर देखते हैं और उन्हें पूरा भी करते हैं.
90 के दशक में आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम के एक गरीब और अशिक्षित परिवार में जन्मे श्रीकांत बोल्ला ने नेत्रहीन होने की चुनौतियों का सामना करते हुए हुए करीब 500 करोड़ रुपये की कंपनी खड़ी की. इस कंपनी के जरिए श्रीकांत ने विकलांगों के लिए रोज़गार के अवसर खोले, उन्हें नौकरी देने का फैसला किया. हालांकि श्रीकांत का ये सफर मुश्किल लेकिन प्रेरणादायी और गर्व करने वाला रहा है.
फिल्म की कहानी की शुरुआत श्रीकांत के जन्म से होती है. जहां उनके पिता बेटे होने की खुशी में खूब झूमते नज़र आते हैं, बेटे का नाम क्रिकेटर श्रीकांत के नाम पर रख देते हैं, लेकिन जैसे ही अगले पल उन्हें पता चलता है कि बेटा देख नहीं सकता उनका दिल टूट जाता है. बहुत से लोग उन्हें ‘अंधे’ बेटे की हत्या तक का सुझाव देते हैं. लेकिन श्रीकांत की मां अपने बेटे को बचा लेती हैं.
‘मैं भाग नहीं सकता सिर्फ लड़ सकता हूं’
स्कूल के शुरुआती दिनों से ही श्रीकांत पढ़ने में तो तेज़ होते हैं, लेकिन आंखों की रोशनी न होने के चलते अक्सर सहपाठियों के बीच उपहास का शिकार बन जाते हैं. हालांकि श्रीकांत कभी डरकर भागते नहीं है, वो हमेशा मुसीबतों का डटकर सामना करते हैं. फिल्म में एक डायलॉग भी है, ‘मैं भाग नहीं सकता सिर्फ लड़ सकता हूं’.
महज़ आठ साल की उम्र में श्रीकांत अपने घर से करीब 400 किलोमीटर दूर हैदराबाद शहर के नेत्रहीनों के बोर्डिंग स्कूल में दाखिला लेते हैं. यहां उन्हें तैराकी, शतरंज और क्रिकेट में भी हाथ आज़माने का मौका मिलता है. हालांकि श्रीकांत की प्राथमिकता पढ़ाई होती है, इसलिए वो अपने करियर पर फोकस करते हुए अपने खेल को बीच में ही छोड़ देते हैं.
श्रीकांत के सपने को तब असल धक्का लगता है, जब दसवीं में अच्छे अंक लाने के बावजूद उन्हें साइंस में दाखिला नहीं मिल पाता. वो विज्ञान और गणित की पढ़ाई के लिए स्कूलों द्वारा अयोग्य बता दिए जाते हैं. लेकिन यहां भी श्रीकांत भागते नहीं है, बल्कि लड़ते हैं. पूरे एजुकेशन सिस्टम से. अपनी टीचर की सहायता से श्रीकांत, आंध्र प्रदेश के हाई कोर्ट में मामला दायर कर नेत्रहीन छात्रों को गणित और विज्ञान की पढ़ाई करने की मंजूरी देने के लिए शिक्षा कानून में बदलाव करने की अपील करते हैं. छह महीने बाद कोर्ट में श्रीकांत अपना केस जीत जाते हैं, सिर्फ अपने लिए नहीं सभी दृष्टिबाधित बच्चों के लिए.
हालांकि श्रीकांत का संघर्ष यहीं नहीं समाप्त होता. उन्हें 12वीं के बाद एक बार फिर से देश के प्रतिष्ठित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) में दाखिले को लेकर निराश होना पड़ता है. यहां भी दृष्टिबाधितों के लिए कोई व्यवस्था नहीं होती. तब श्रीकांत मन बना लेते हैं कि वो अब और सिस्टम से नहीं लड़ेंगे. फिल्म में वो अपनी टीचर से कहते हैं, ‘मेरा काम नहीं है सिस्टम को सुधारना. अगर आईआईटी को मेरी जरूरत नहीं है, तो मुझे भी आईआईटी की जरूरत नहीं.’
वैसे ये भी विडंबना ही है कि जिस श्रीकांत को 98 प्रतिशत अंकों के बावजूद शैक्षणिक स्तर के हिसाब से फ़िट नहीं बैठने के लिए देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिला नहीं मिल पाता, उन्हें मैसाचुसेट्स के कैंब्रिज के एमआईटी सहित तीन और अमेरिकी यूनिवर्सिटियों से दाखिले का प्रस्ताव मिलता है. यहां श्रीकांत के नाम एक और उपलब्धि जुड़ जाती है, वो एमआईटी के पहले नेत्रहीन अंतरराष्ट्रीय छात्र थे.
अमेरिका में नौकरी और ऐशो-आराम की जिंदगी छोड़ श्रीकांत देश वापस लौटे
पढ़ाई के बाद अमेरिका में नौकरी और ऐशो-आराम की जिंदगी छोड़ श्रीकांत साल 2012 में हैदराबाद वापस लौटते हैं. और अपनी टीचर के साथ मिलकर विकलांग लोगों के लिए रोज़गार के नए रास्ते खोलने का प्लान तैयार करते हैं. और यहीं से शुरुआत होती है ‘बोलेंट इंडस्ट्रीज़’ की. जो एक इको-फ़्रेंडली पैकेजिंग कंपनी है. फिल्म के अनुसार, इसके पहले इंवेस्टर भी कोई और नहीं, बल्कि देश के राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम साहब होते हैं. हालांकि इस बात में कितनी सच्चाई है, इसकी जानकारी सार्वजनिक तौर से उपलब्ध नहीं है.
वैसे श्रीकांत और कलाम साहब का कनेक्शन जरूर था. श्रीकांत साल 2005 में एपीजे अब्दुल कलाम के कार्यक्रम ‘लीड इंडिया मूवमेंट’ का हिस्सा रहे थे, वहां उन्होंने कलाम साहब के सामने देश के पहले दृष्टिबाधित राष्ट्रपति बनने की बात कही थी. यहां आपको असली कलाम साहब की क्लीपिंग भी देखने को मिलती है, जो आपके अंदर भावुकता से ज्यादा उत्साह पैदा करती है.
लगभग 2 घंटे 2 मिनट की इस बायोपिक में आपको कई जगह सिस्टम पर कटाक्ष देखने को मिलेगा. सरकारी व्यवस्था से लेकर आम लोगों की राय तक, हर जगह विकलांगों को कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, फिल्म बखूबी दिखाती है. फिल्म के डायलॉग में पुरस्कार लेने पहुंचे श्रीकांत कहते भी हैं, ‘आपने अपने दिमाग में हमारे लिए अलग ही कहानी बना रखी है. बेचारा… कितना बुरा हुआ इसके साथ. कुछ बुरा नहीं हुआ है हमारे साथ. बेचारे तो हम बिलकुल भी नहीं हैं…’
अच्छा होने की गुंजाइश, लेकिन फिर भी बेहतरीन है
निर्देशक तुषार हीरानंदानी ने एक सामाजिक मुद्दे को बेहद गंभीरता और शालीनता से उठाया है. फिल्म देख कर आपको दृष्टिबाधित लोगों पर दया नहीं आएगी बल्कि उनसे प्रेरणा मिलेगी. बीच-बीच में कुछ गुदगुदाने वाले भी अवसर हैं. इसके अलावा राजकुमार राव की एक्टिंग आपका दिल जीत लेगी. देविका टीचर का किरदार निभा रहीं ज्योतिका, साथी के तौर पर अलाया एफ और दोस्त और इंवेस्टर के किरदार में शरद केलकर भी कमाल लग रहे हैं.
फिल्म दूसरे हॉफ में थोड़ी ढीली और खीची हुई जरूर नज़र आती है, लेकिन आखिर आते-आते आपको एक सुखद एहसास दे जाती है. गानों की बात करें, तो ‘कयामत से कयामत’ तक के गाने ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा’ का रिक्रिएशन पूरी फिल्म में एकदम फिट बैठता है. फिल्म में और अच्छा होने की गुंजाइश जरूर है, लेकिन जो बनी है वो भी आपको अच्छी लगेगी.