नई दिल्ली: लंदन स्थित संगठन आईप्रोबोनो (iProbono) के एक अध्ययन से पता चला है कि भारत में 1 जनवरी 2016 से 31 दिसंबर 2021 के बीच छह वर्षों में लगभग 9,681 बच्चों को गलत तरीके से वयस्क जेलों में कैद रखा गया. वहीं, औसतन 1,600 से अधिक बच्चों को सालाना इन जेलों से बाहर स्थानांतरित किया जाता है.
हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, यह अध्ययन शोध और सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत प्राप्त जानकारी पर आधारित है.
एक ‘कानून से संघर्षरत बच्चे (सीसीएल)’ नेहा ने कहा, ‘छह साल तक मैं सोचती रही कि जेल ही मेरे जीवन का अंत होगा. मैंने अपना बचपन खो दिया.’
नेहा का मुश्किल वक्त साल 2018 में शुरू हुआ, जब 17 साल की किशोर उम्र में उसके पिता ने उस पर मां की हत्या का आरोप लगाया था. उसका मामला किशोर न्याय (जेजे) अधिनियम के तहत आता था. इसके बावजूद वह वर्षों तक वयस्क जेल में बंद रही.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट किशोर न्याय समिति के अध्यक्ष रवींद्र भट ने इस हालात के लिए राज्यों को जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा कि राज्य ‘पैरेंस पैट्रिया’ हैं यानी उन लोगों के कानूनी संरक्षक, जो खुद की रक्षा नहीं कर सकते. राज्य विफल हो गए हैं क्योंकि वे बच्चों की सुरक्षा करने में असमर्थ रहे हैं.
दिल्ली में शनिवार (11 मई) को जारी हुआ यह अध्ययन भारत की कुल 570 जिला और केंद्रीय जेलों में से 50 फीसदी पर आधारित है.
विशेष रूप से, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, नागालैंड और लद्दाख जैसे राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के जवाबों में महत्वपूर्ण चूक पाई गईं. इन चारों जगह कुल 85 जिला और केंद्रीय जेलों से डेटा गायब मिला.
प्रयास जेएसी सोसायटी के संस्थापक महासचिव अमोद कांत ने कहा, ‘मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि पूरे भारत में जेलों में इतने सारे बच्चे कैसे बंद हैं, मुझे लगता है कि सभी हितधारकों और पुलिस के पास इसका समाधान खोजने के लिए अनेक अवसर हैं.’
कुछ विशेष जेलों से प्राप्त अतिरिक्त जानकारी जेल से स्थानांतरित किए जाने से पहले बच्चों द्वारा वहां हिरासत में बिताई गई अवधि पर प्रकाश डालती है. उदाहरण के लिए दिल्ली के तिहाड़ केंद्रीय कारागार की जेल नंबर 5 के आंकड़े इशारा करते हैं कि छह वर्षों में जेल से स्थानांतरित किए गए 730 बच्चों में से केवल 22 को एक सप्ताह या उससे कम समय के लिए वहां रखा गया था, जिनमें से अधिकांश ने हिरासत में तीन महीने से कम समय बिताया था.
इसी तरह के रुझान झुंझुनू जिला जेल में देखे गए, जहां जेल से स्थानांतरित किए गए 16 बच्चों में से केवल 3 ऐसे थे जिन्होंने एक सप्ताह या उससे कम समय हिरासत में बिताया.
इस संबंध में दिल्ली उच्च न्यायालय कानूनी सेवा समिति के अरुल वर्मा ने कहा कि जेजेबी (किशोर न्याय बोर्डों) के लिए जेलों के नियमित दौरों पर जाना कठिन होता है क्योंकि जेलों की संख्या काफी ज्यादा है और बोर्ड के ऊपर जरूरत से अधिक मामले संभालने का भी बोझ है.
अध्ययन में आरटीआई अधिनियम के माध्यम से जानकारी प्राप्त करने में आने वाली चुनौतियों पर भी ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की गई है. ऐसे उदाहरणों का हवाला दिया गया जहां प्रारंभिक आवेदनों को गलत आधार पर खारिज कर दिया गया था.
आरटीआई आवेदन दाखिल करने में आने वाली प्रक्रियात्मक बाधाओं के बारे में भी चिंताएं व्यक्त की गईं, जिनमें से कुछ को गलत प्रारूप या भुगतान विसंगतियों के कारण खारिज कर दिया गया. उदाहरण के लिए,ओडिशा में आवेदनों को शुरू में निर्धारित प्रारूप का पालन नहीं करने के कारण खारिज कर दिया गया था, जबकि बाद के प्रयासों में भुगतान प्रतिबंधों के कारण बाधा उत्पन्न हुई, जिसमें नकद या मनीऑर्डर के अलावा कुछ भी स्वीकार करने से इनकार करना शामिल था.
अपने प्रेस बयान में आईप्रोबोनो ने कहा कि ये अध्ययन, किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम- 2015 (जेजे अधिनियम) के प्रभावी कार्यान्वयन की जांच करता है, जो कानूनी तौर पर यह अनिवार्य करता है कि किसी बच्चे पर अपराध करने का आरोप है या उसे दोषी पाया गया है, तो उसे उचित किशोर गृह में रखा जाना चाहिए.