देश में चल रहे लोकसभा चुनावों को देखकर एक पुरानी स्मृति उमड़ आती है. मेरे लिए यह स्मृति उस अद्भुत प्रशासनिक परिघटना से जुड़ी है, जिसे उन दिनों ‘शेषन इफेक्ट’ कहा जाता था. वर्ष 1991 के दौरान मैं बारासात में कार्यरत था. वह मेरा प्रशासनिक सेवा में दूसरा वर्ष था. मार्च 1991 में कांग्रेस ने चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा गठबंधन सरकार से समर्थन वापस ले लिया, जिसके बाद 12 अप्रैल 1991 को निर्वाचन आयोग ने दसवें लोकसभा के गठन के लिए चुनाव की घोषणा कर दी.
तीन चरणों में होने वाले इस चुनाव का पहला चरण 20 मई को निर्धारित हुआ. सारे देश में 1991 में आम चुनाव तो थे ही, पश्चिम बंगाल में विधानसभा के भी चुनावों का ऐलान हुआ. चुनाव का प्रबंधन ज़िला प्रशासन के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में शामिल है. एक प्रशिक्षणार्थी के लिए इस प्रक्रिया को जानने का यह दुर्लभ मौक़ा था.
चुनाव की घोषणा के अगले ही दिन एक बैठक के अंत में ज़िला मजिस्ट्रेट ने तीन पुस्तिकाएं मेरी तरफ़ सरकाते हुए कहा, ‘इन्हें ठीक से पढ़ डालो.’ ये पुस्तिकाएं थीं- ‘लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951,’ ‘रिटर्निंग अधिकारियों के लिए हैंड्बुक’ और ‘पीठासीन अधिकारियों के लिए हैंड्बुक.’ निर्वाचन के क्रियान्वयन की विधियां और नियम इन तीनों पुस्तिकाओं से सीखे जा सकते हैं. इनके बग़ैर ज़िला निर्वाचन अधिकारी और चुनावों से जुड़े अन्य अधिकारियों का गुज़ारा नहीं है. इन्हें तैयार करने में भारत के पहले निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन का सबसे बड़ा योगदान था. वे स्वाधीनता के बाद पश्चिम बंगाल के प्रथम मुख्य सचिव भी रह चुके थे.
साल 2006 में आधिकारिक काम से मैं सूडान गया और वहां के ‘जनरल इलेक्शन अथॉरिटी,’ जो ‘भारतीय निर्वाचन आयोग’ का समकक्ष था, के अध्यक्ष पूर्व जस्टिस अब्दुल्ला से मुलाक़ात की. जस्टिस अब्दुल्ला यह जानकर बहुत खुश हुए कि मैं प्रशासनिक सेवा का अधिकारी हूं. उन्होंने कहा, ‘वाह! सुकुमार सेन की तरह. सुकुमार सेन सूडान के भी प्रथम मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे. उन्होंने ही निर्वाचन के हमारे सारे विधि और नियम भी बनाए थे और 1953 में हमारा प्रथम आम चुनाव भी करवाया था. खारतूम में एक सड़क भी उनके नाम से है.’
भारत में उस ऐतिहासिक आम चुनाव को अंजाम देने के कुछ ही समय बाद सेन साहब एक सुदूर देश में यह दायित्व संभाल रहे थे. भारत में 1952 के आम चनाव की सफलता के बाद सूडान सरकार ने उन्हें अपने देश में निर्वाचन करवाने के लिए विशेष आमंत्रण दिया था. अफ़्रीका के इस देश में 53 साल बाद भी एक भारतीय का इतना सम्मान देखकर मैं गर्व से भर उठा.
1991 में चुनाव की अधिसूचना जारी होते ही बारासात चुनावी तैयारी का केंद्र बिंदु बन गया. भारत का आम चुनाव विश्व की संभवतः सर्वाधिक विस्तृत और गहन प्रशासनिक कवायद है. विभिन्न राजनीतिक पार्टियों, पुलिस अधीक्षक और अन्य विभागों के ज़िला स्तरीय अधिकारियों और निर्वाचन अधिकारियों के साथ बैठकें शुरू हो गईं. चुनाव के विभिन्न कार्यों के लिए कलेक्टरेट में भिन्न अनुभाग बना दिए गए- मतदान सूची का परीक्षण एवं संशोधन, मतदान केंद्रों का निरीक्षण, मतदान कर्मियों का प्रबंधन, बैलेट पेपर का मुद्रण एवं वितरण.
उन दिनों तमाम अधिकारी यह कहते सुनाई देते थे कि चुनावी प्रक्रिया के दौरान ‘गलती की गुंजाइश बिल्कुल नहीं है.’ लेकिन सबसे सर्वव्यापी चर्चा जो उन दिनों हो रही थी, वह थी- ‘शेषन इफ़ेक्ट’.
सुकुमार सेन के कार्यकाल के बाद कई अधिकारियों ने निर्वाचन आयोग को सुचारू रूप से परिचालित किया. पर एसएल शकधर और पेरी शास्त्री जैसे कुछ निर्वाचन आयुक्तों के प्रयास के बावजूद 1980 के दशक के अंत तक निर्वाचन आयोग एक संविधानिक संस्थान की जगह सरकार के विभाग की तरह देखा जाने लगा था. 12 दिसंबर 1990 को टीएन शेषन ने भारत के दसवें निर्वाचन आयुक्त का पदभार ग्रहण किया. उन्होंने निर्वाचन आयोग को एक नया स्वरूप ही नहीं दिया, बल्कि भारत की संपूर्ण निर्वाचन प्रक्रिया को परिष्कृत कर दिया. 1996 में टीएन शेषन को मैग्सासे पुरस्कार भी मिला लेकिन उनके जनमानस में बस जाने का कारण यह नहीं है.
निर्वाचन आयुक्त बनने के कुछ ही दिनों में शेषन ने ज़ाहिर कर दिया कि भारत के संविधान ने सिर्फ़ निर्वाचन आयोग को चुनावों के कार्यान्वयन का दायित्व दिया है. उन्होंने कई भुला दिए गए नियमों को सक्रिय कर दिया और संपूर्ण प्रशासनिक यंत्र और राजनीतिक व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया. उन दिनों निर्वाचन आयोग ने नियमित रूप से कई आदेश पारित किए- आदर्श आचार संहिता का कड़ाई के साथ पालन, समूचे चुनावी ख़र्चों का रोज़ाना का हिसाब, पर्यवेक्षकों की पहले हर लोकसभा क्षेत्र में और बाद में हर विधानसभा क्षेत्र में चुनावी प्रक्रिया के हर चरण की नज़रदारी, और धर्म के नाम पर मत मांगने पर निषेध.
शेषन ने ऐलान कर दिया था कि वह किसी के द्वारा भी नियमों की अवमानना बर्दाश्त नहीं करेंगे चाहे वह राजनीतिक पार्टी हो या सरकारी अधिकारी. ऐसे लोगों से निर्वाचन आयोग कठोरता से पेश आएगा. शेषन ने कठोर कदम उठाने शुरू कर दिए. उन्होंने राज्यों में ग़ैरक़ानूनी असलहों की बरामदी का अभियान चलवाया, प्रचार सामग्री से मैली हुई दीवारों की पुताई के लिए राजनीतिक दलों को बाध्य किया, कुछ केंद्रीय मंत्रियों द्वारा टेलीफोन और रसोई गैस कनेक्शन के अनियमित आवंटन पर आपत्ति व्यक्त की और कई राज्यों के वरिष्ठ और कनिष्ठ अधिकारियों का तबादला या निलंबन किया. चुनाव के मध्य में भी वह कठोर कार्रवाई करने से नहीं चूके. बिहार में बड़े पैमाने पर बूथ कैप्चरिंग के कारण शेषन ने पांच लोकसभा क्षेत्रों का चुनाव रद्द कर दिया.
ऐसी दृढ़ कार्रवाई का असर मेरे ज़िले में भी दिखाई देने लगा. मैं जिस चुनाव-संबंधित बैठक में जाता- चाहे वह ज़िला मुख्यालय में हो या किसी ब्लॉक में, टीएन शेषन का नाम अधिकतर विवादों का अंत कर देता था. चाहे राजनीतिक पार्टियों के कायकर्ताओं द्वारा किसी नियम पर उठाया प्रश्न या संदेह हो या किसी कार्रवाई की आलोचना, कर्मचारी संघों की बड़बोली बातें हों, या अकर्मण्य अधिकारियों द्वारा असहयोग- निर्वाचन आयुक्त का नाम लेते ही सभी प्रश्न मिट जाते थे, मांगें सिमट जाती थीं और लोग हरकत में आ जाते थे.
जनता के बीच भी शेषन की चर्चा हो रही थी. मैंने लोगों को बाज़ार, बैंक और बस स्टैंड पर टीएन शेषन का कभी श्रद्धा, तो कभी सराहना के साथ ज़िक्र करते सुना था. एक दिन सुबह बारासात स्टेशन के पास ‘लोकनाथ स्वीट्स’ से छेना के सिंघाड़े ख़रीदते वक्त मैंने किसी को बोलते हुए सुना, ‘शेषन सोब्बई के टाइट दिए दिएचे (शेषन ने सभी को टाइट कर दिया है).’
वर्तमान चुनावों में भी निर्वाचन आयोग काफ़ी चर्चा में है और शायद इस चुनाव को निर्वाचन आयोग की ख़ास भूमिका के लिए अरसे तक याद किया जाएगा. आज गलियों से लेकर सोशल मीडिया तक तमाम लोग निर्वाचन आयोग की कथित सक्रियता या निष्क्रियता पर, कृत्यों-अकृत्यों पर टिप्पणी करते दिखाई दे जाते हैं. अमूमन इन टिप्पणियों में आयोग के प्रति व्यंग्य, उसके कर्मों से उपजी निराशा, और कभी उसके खिलाफ़ क्षोभ व तिरस्कार भी झलकता है. शायद इन्हीं वजहों से लोगों को इन दिनों टीएन शेषन याद आ रहे हैं.
(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)
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