बस्तर में शिकार इंसान का नहीं, लाशों का होता है

पुस्तक अंश: 'मैं मरने के लिए एक शांत जगह तलाश रहा था. किसी ने सुझाया ब्रुकलिन, और अगली सुबह यहां चला आया.'

/
बस्तर का एक नक्सली कैंप. (फोटो: आशुतोष भारद्वाज)

पुस्तक अंश: ‘मैं मरने के लिए एक शांत जगह तलाश रहा था. किसी ने सुझाया ब्रुकलिन, और अगली सुबह यहां चला आया.’

बस्तर का एक नक्सली कैंप. (फोटो: आशुतोष भारद्वाज)
बस्तर का एक नक्सली कैंप. (फोटो: आशुतोष भारद्वाज)

आशुतोष भारद्वाज ने अगस्त दो हज़ार ग्यारह से सितंबर दो हज़ार पंद्रह तक द इंडियन एक्सप्रेस अख़बार के लिए मध्य भारत के माओवादी इलाक़ों में पत्रकारिता की थी.

उन्होंने फ़र्ज़ी मुठभेड़, आदिवासी संघर्ष, माओवादी विद्रोह पर नियमित लिखा जिसके लिए उन्हें पत्रकारिता के तमाम पुरस्कार मिले. इस दौरान आशुतोष ने अनेक दिन और रातें माओवादियों, सुरक्षा बलों और उनके अनाम मुखबिरों के साथ बीहड़ जंगलों में स्थित उनके ख़ुफ़िया अड्डों पर, बंदूकों और बारूदी खंदकों के बीच बिताए थे, जहां जीवन और मृत्यु का फर्क सिर्फ एक संयोग रह जाता है, जहां महुआ और ताड़ी सुरूर नहीं प्रतिरोध का रूपक बनते हैं.

दो बरस बाद वे मुड़ कर देखते हैं, अपनी पुरानी डायरियां, ख़बरें टटोलते हैं, अपने भीतर दर्ज लहू की अनगिनत कथाएं वर्तमान की उंगलियों से पलटते हैं, और यह हासिल करते हैं कि यह अंतराल मृत्यु को देखने की नई दृष्टि देता है, पिछली निगाह और दर्ज हुए शब्द का इस्लाह भी करता है.

मृत्यु के इस इस्लाह पर उनकी आगामी किताब ‘दंडकारण्य: एक मृत्यु कथा’ के कुछ अंश. 

मृत्यु कथा 1

शुरुआत में तुम सबको नहीं मालूम होगा कि तुम वहां एक तलाश में आए होगे. युद्ध में बहे बेहिसाब लहू से सनी उस विराट जंगल की धरती तुम्हारी असंभव हसरतों को पूरा करने का जरिया होने जा रही होगी.

कोई गुरिल्ला लड़ाका था, कोई ख़ाकी वर्दीधारी सिपाही, तो कोई ख़बरनवीस. महज़ एक बात थी जो तुम सभी साझा करते थे- तुम यहां आने से पहले अपना अतीत बुझा कर आए थे, वे सभी लकीरें जो मनुष्य को बांधती हैं उन्हें अपनी नियति से खुरच कर मिटा आए थे.. कुछ जो यूं ही चले आए थे. उन्होंने भी यहां आकर जल्दी ही जान लिया था कि यह जंगल सबसे पहले तुम्हारे अतीत को अपनी गिरफ्त में लेता है, उसके बाद कोई और मोहलत देता है.

विचित्र था यह दंडकारण्य का जंगल. कई राज्यों तलक पसरा हुआ. पिछले तीस वर्षों में यह एक बेहिसाब क़ब्रगाह में तब्दील होता गया था. इसकी पगडंडियों के नीचे बारूद सोया हुआ था. यही बारूद तुम्हारे ख्वाब सहेजे हुआ था. इसी बारूदी धरती से गुजर तुम सबको अपने ख्वाबों तलक पहुंचना था.

क्रांति, कथा, उन्माद, अखबारी ख़बर या उपन्यास. हथियार, नारा, लाश, लहू के कुछ क़तरे- कुछ भी ऐसा जो तुम्हारे डगमगाते जीवन को कोई अर्थ दे जाए. तुम्हें जीने की कोई, कमजोर ही सही, लेकिन वजह दे जाए. तुम्हारे लिए यह लाशों से भरा जंगल एक विराट रूपक बन गया था जिसमें खुद को डुबो कर, खुद को मिटा कर तुम खुद को हासिल करना चाह रहे थे. इस तरह तुम सभी कथाकार थे जो अपने जीवन की अंतिम कथा की तलाश में यहां आए थे. लेकिन कथा कब, कहां, किसकी हुई है. कथाकार होने के गुमान में जीते तुम दरअसल इस मृत्यु कथा के महज किरदार थे.

कारतूस की गोली से ध्वस्त हुई किसी ताजा मुर्दे की आंख में तुम अपनी सांसों का अर्थ खोज रहे थे- क्या इससे भीषण छलावा भी कुछ हो सकता था? किसी बच्ची की फर्जी पोस्टमार्टम रिपोर्ट को तुम जीवन का सबसे बड़ा सत्य माने बैठे थे- क्या इससे भीषण फरेब भी कुछ हो सकता था?

क्योंकि कथाकार होने के अहंकार में तुम सबने भुला दिया था कि तुमसे बहुत पहले, समय के आरंभ से भी पहले इस जंगल में जीवन धड़कता था. इस जंगल के वे आदिनिवासी तुम्हारी यात्रा के साथी तो न बन पाए थे लेकिन इसके मौन साक्षी जरूर थे.

इस छल और इस फरेब की कथाएं इस जंगल की आदिम उपस्थिति यानी महुए की हरेक शाख पर दर्ज होने वाली थीं, किसी असाध्य बेताल की तरह आगामी कई जन्मों तलक तुम्हारे ऊपर सवार रहने वालीं थीं.

विस्थापन 1

जो मैं कहने जा रहा हूं, मैं किसी बाहर वाले से नहीं कहता. यह हमारे विभाग की ख़ुफ़िया फाइलों में भी नहीं दर्ज होता.

हां, मैं बस्तर में कई सारे सरेंडर करवाता हूं. सरेंडर नक्सलियों को सहायक आरक्षक बनाकर पुलिस में भर्ती भी कर लेता हूं. कइयों को सिर्फ़ गोपनीय सैनिक यानी मुखबिर बनाए रखता हूं. कुछ को अपने साथ ऑपरेशन पर जंगल भी ले जाता हूं. नक्सली को सरेंडर करने के बाद तुरंत काग़ज़ पर सरेंडर दिखाना होता है, रायपुर पीएचक्यू (पुलिस हेड्क्वॉर्टर) में बताना होता है. वहां से वो लोग दिल्ली गृह मंत्रालय को रिपोर्ट भेजते हैं.

लेकिन मैं ऐसा कुछ नहीं करता. दरअसल मैं ऐसा कुछ कर ही नहीं सकता. जो लोग बोलते हैं कि मैं ऐसा न करके क़ानून तोड़ता हूं वो क़ानून को समझते ही नहीं. दंतेवाड़ा में पुलिस उस तरह से काम नहीं कर सकती जैसे दिल्ली में करती है. दंतेवाड़ा दिल्ली नहीं है. सीआरपीसी कहती है किसी को गिरफ़्तार करने के चौबीस घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाए. बस्तर में वो हो ही नहीं सकता. मेरी पार्टी जंगल में ऑपरेशन पर गई है. गोंपाड या कुतुल. वहां अगर मेरी फ़ोर्स किसी को पकड़ती है तो उसे बाहर तक लाने में ही दो दिन लग सकते हैं. अगर कोई हाथ आता है तो पहले मैं उससे पूछताछ करूंगा, सारी चीज़ें निकलवाऊंगा या मजिस्ट्रेट के सामने ले जाऊंगा?

कल को अगर गणपति (सीपीआई माओवादी की सेंट्रल कमेटी का जनरल सेक्रेटरी यानी माओवादियों का सबसे बड़ा नेता) या भूपति (सीपीआई माओवादी की सेंट्रल कमेटी का सदस्य) मेरे हत्थे चढ़ते हैं तो क्या मैं उन्हें तुरंत अदालत ले जाऊंगा या एक ख़ुफ़िया जगह पर कई महीने रख कर उनसे उनकी पूरी हिस्ट्री निकलवाऊंगा? अगर कोई डीवीसी (माओवादियों की डिविज़नल कमेटी) मेंबर भी हाथ आएगा तो भी किसी को कोई भनक नहीं लगने दूंगा. उससे हफ़्तों तलक पूछताछ करूंगा, जब मैं उसे पूरा निचोड़ लूंगा, वो किसी काम का नहीं रह जाएगा तब जाकर उसे अदालत और मीडिया के सामने ले जाऊंगा.

सरेंडर नक्सली के साथ भी यही होता है. जिस दिन नक्सली मेरे पास आया, उसी दिन उसका सरेंडर कैसे दिखा सकता हूं? मैं हफ़्तों तक, कई बार महीनों तक उसे अपने पास रखता हूं, उसे कस कर निचोड़ता हूं, जब वो ख़ाली हो जाता है, इंटेरोगेशन पूरी हो जाती है तब जाकर मैं उसका सरेंडर दिखाता हूं.

मुझे यह भी मालूम है वो सभी लोग जिनका मैं सरेंडर दिखाता हूं, नक्सली नहीं होते. कई सारे गांव वाले, संघम सदस्य वग़ैरा भी होते हैं. लेकिन इसमें किसी को क्या दिक़्क़त है? क्या मैं किसी को मार रहा हूं? किसी को थाने में बंद कर रहा हूं? कुछ लोगों को मैं उनके गांव से लाता हूं, उनकी फ़ोटो खिंचवाता हूं, उन्हें दो हज़ार रुपये और एक दारू की बोतल देकर वापस भेज देता हूं. इस तरह यह संभावना बनती है कि गांव वाले मुझे याद रखेंगे. नक्सलियों की सूचना मुझे दे देंगे, और नहीं तो नक्सली इन गांव वालों पर शक करना शुरू कर देंगे ये सोच कर कि वो ज़िला मुख्यालय गए थे, सरेंडर के नाम पर पैसे और दारू लेकर लौट आए. इस तरह मैं गांव वालों और नक्सलियों में फूट डलवाता हूं.

युद्ध सिर्फ़ मैदान में ही नहीं लड़ा जाता, एक दिमाग़ी जंग भी होती है. जो मैं कर रहा हूं, मुझे करने दिया जाए तो मैं बस्तर से नक्सली ख़त्म कर दूंगा.

कुछ लोग कहते हैं कि इतना तक तो ठीक है, लेकिन मैं इन सरेंडर नक्सलियों को अपनी फ़ोर्स में क्यों भर्ती करता हूं, उन्हें ऑपरेशन पर क्यों भेजता हूं. अगर किसी नक्सली ने हमें धोखा देने के लिए सरेंडर किया हो, और ऑपरेशन के दौरान जंगल में वह अचानक से पलट जाए, मुखबिर बन जाए तो मेरी पार्टी का सफ़ाया हो जाएगा. कई बार सरेंडर नक्सली पुलिस की एके-47 लेकर भाग जाते हैं. कई सारे एम्बुश में जिनमें मेरी बहुत सारी फ़ोर्स मारी गई, बतलाते हैं कि सरेंडर नक्सली जो हमारे साथ ऑपरेशन पर चल रहे थे बीच जंगल में धोखा कर गए.

बस्तर का एक नक्सली कैंप. (फोटो: आशुतोष भारद्वाज)
बस्तर का एक नक्सली कैंप. (फोटो: आशुतोष भारद्वाज)

हो सकता है ऐसा कभी हुआ हो लेकिन मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है. मुझे सरेंडर नक्सली को फ़ोर्स में भर्ती करना ही पड़ेगा, उसे ख़ुफ़िया सिपाही बनाना ही पड़ेगा, उसे ऑपरेशन पर भेजना ही होगा. मुझे मालूम है सरेंडर नक्सली की पुनर्वास नीति जो काग़ज़ पर लिखी है इसके खिलाफ जाती है.

मुझे मालूम है सरेंडर नक्सली को रायफल पकड़ा कर ऑपरेशन पर भेजना एक शैतानी काम है. मुझे मालूम है कि मुझे सरेंडर नक्सली को फ़ोन मरम्मत, बाग़वानी, हथकरघा, बढ़ईगिरी, बिजली मिस्त्री जैसे काम सिखाने चाहिए. उसे पुलिस लाइन में नहीं रखना चाहिए, उसे एक ऐसी जगह घर दिलवाना चाहिए जहां वह सुरक्षित भी रहे और उसकी रोजी भी चलती रहे.

मुझे यह भी मालूम है कि नक्सली सिर्फ़ उन सरेंडर नक्सली को मारते हैं जो पुलिस में भर्ती हो जाते हैं. जो सरेंडर के बाद खेती किसानी या कोई और काम करने लगते हैं, उन्हें नक्सली कुछ नहीं कहते. मुझे मालूम है कि सरेंडर नक्सली को फ़ोर्स में भर्ती कर मैं उनकी ज़िंदगी ख़तरे में डाल देता हूं, सरेंडर और पुनर्वास का मतलब ही ख़त्म कर देता हूं.

लेकिन बस्तर में ज़िंदगी बहुत सस्ती है. यह ज़िंदगी सरकारी काग़ज़ से नहीं चलती, बंदूक़ की गोली पर टिकी रहती है. एक कारतूस भी अगर ठीक जगह छुए इंसान को, तो उसे चुपचाप लाश बनाता है. कारतूस इसलिए क्रूर नहीं होता. बंदूक के घोड़े को दबाती उंगली भी बेरहम नहीं, दरअसल बड़ी सहमी हुई होती है.

अंंधेरे जंगल की रात में फंसा सिपाही सेकेंडों में दसियों कारतूस उगल देने वाली अपनी रायफल अगर बेतहाशा घुमाता है, सत्रह, चौदह, तेरह, उन्नीस और बाईस साल की निर्दोष काया को लाश में तब्दील करता है तो वह फ़कत ख़ुद को लाश होने से बचा रहा है. क़त्ल शुरू होता है जब वह लाश की छाती अपनी छुरी से चीर, छुरी पर रिसता लहू लाश के लहंगे से पोंछता है.

बस्तर में इंसान और लाश का फ़र्क फ़क़त एक संयोग है. बस्तर में शिकार इंसान का नहीं, लाशों का होता है.

मेरी फ़ोर्स ऐसा कम ही करती है, लाश का शिकार नहीं करती. लेकिन वह एक दूसरी कहानी है. फिर कभी.

सरेंडर नक्सली को अंदर के सारे रास्ते, सारे राज मालूम हैं. उसे मालूम है कौन सा कमांडर कहां हो सकता है, किसको कैसे घेर कर मारा जाए. वह नक्सली के ख़िलाफ़ लड़ाई में मेरा सबसे बड़ा सिपाही है. हां, इससे उसे ख़तरा है, लेकिन ख़तरा मुझे भी है कि कहीं वह बीच जंगल में पाला न बदल ले. लेकिन बस्तर में किसकी जान उलटी हथेली पर नहीं है. वह तो दसेक साल से इसी तरह जीता आया है कि कभी भी मारा जा सकता था. मेरे साथ तो उसे अंदर के मुक़ाबले कम ही ख़तरा है. अगर गोली लगी, घायल हुआ तो इलाज भी अच्छा करवाऊंगा मैं. मर गया तो उसकी औरत को पैसा भी मिलेगा.

मुझे जोखिम लेना ही होगा- अपने लिए, उसके लिए, बस्तर की जनता की मुक्ति के लिए, भारतीय संविधान की रक्षा के लिए. लेकिन मैं संभल कर जोखिम लेता हूं. उसे तब तक ऑपरेशन पर नहीं भेजता जब तक उस पर पूरा यक़ीन न हो जाए. सरेंडर के बाद महीनों उस पर निगाह रखता हूं. कहां जाता है, किससे मिलता है. क्या खाता है. ढेर सारी दारू उसे नियमित पिलाता हूं, मुर्ग़ा और बकरा खिलाता हूं जिससे कि उसकी इंद्रियों की सख़्ती, जो उसने जंगल में हासिल की थी, हल्की पड़ जाए. उसे मोबाइल फ़ोन देता हूं लेकिन उसका नंबर सर्विलांस पर रखता हूं.

ऑपरेशन पर भेजते वक़्त भी मैं उसे जानबूझ कर सबसे आगे रखता हूं, ख़ुद पीछे से उस पर निगाह रखता हूं कि अगर वह कभी पलटी मारे तो…

और हां, जब वह ऑपरेशन पर जाता है, पूरा समय उसकी औरत पुलिस की निगरानी में रहती है. यह बात उसे भी मालूम रहती है कि वह भले ही अबुझमाड़ में मेरी फ़ोर्स के साथ ऑपरेशन पर गया है, उसकी औरत पुलिस लाइन में है.

मुझे एक क़िस्सा याद आता है. एक बार मैं छुट्टी में अपने घर गया. वहां किसी शाम अपने कॉलेज के दोस्त के घर गया. उसके कमरे में बैठे हम चाय पी रहे थे लेकिन मेरी निगाह चारों और कुछ टटोल रही थी. मेरा दोस्त बोला क्या देख रहा है. यहां कितने दरवाज़े हैं, मैंने पूछा. ये है तो सही सामने. सिर्फ़ यही है? हां, एक कमरे में और कितने दरवाज़े होंगे. लेकिन अगर यहां हमला हुआ, हमलावर इस दरवाज़े से आ रहे हों तो पीछे से निकल भागने के लिए कोई दूसरा, चोर दरवाज़ा नहीं है?

मेरा दोस्त मुझे भौंचक देखता रहा. यहां कौन हमला करने आ रहा है? हमला तो कोई कहीं भी कर सकता है. मुझे याद है जितनी देर मैं उसके साथ बैठा रहा, मेरी निगाह दरवाज़े पर, कान किसी भी आहट पर और उंगलियां मेरी पैंट में दबी रिवॉल्वर पर टिकी रहीं.

मेरे आइपीएस बैचमेट दूसरे राज्यों में हैं. गोवा या तमिलनाडु मसलन. उनके साथ ऐसा नहीं होता. दिल्ली के मेरे दोस्त अक्सर सिनेमा हॉल में फ़िल्म देखने जाते हैं, पूरे मॉल में घूमते हैं. मैं लेकिन जब कभी बस्तर से रायपुर आता हूं, मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म देखने जाता हूं, मेरे कमांडो गार्ड एके-47 लिए पूरे तीन घंटा हॉल के गेट पर खड़े रहते हैं.

ख्वाब 1

मेरी मैडम. मैं उसको बोलता था. उसके साथ बच्चा करना चाहता था. मैं अब मारा जा चुका हूं. पता नहीं उसके साथ बच्चा कौन करेगा अब. कोरसा जोगा नाम था मेरा, अभी भी है. मरने के बाद नाम थोड़े बदल जाएगा. पुलिस का रजिस्टर बोलता है- कोरसा जोगाराम उर्फ़ रंजीत मड़कम उर्फ़ शिवाजी. उमर पैंतीस. मुरिया आदिवासी.

चौदह दिन पहले मेरी हत्या हुई. एक जनवरी, दो हजार पंद्रह. जिला बीजापुर. फिर पुलिस वाले मेरा पोस्टमार्टम कराए. काग़ज़ पर लिखे मैं कैसे मारा गया. जख्म कहां और कितने लगे. मैं ग्यारह बरस पार्टी में रहा. एके-47 चलाया, पूरे बस्तर में घूमा. पुलिस के ऊपर इतने एम्बुश किए, इतने पुलिस वाले मारे मैंने. कभी कुछ नहीं हुआ. लेकिन पुलिस में भर्ती के डेढ़ साल बाद ही मेरे पुराने कमांडर लोग मेरे को मार दिए. कई सारे लोग मेरे पर हमला किए. एक तो वो ही लड़का था जिसे मैंने ढाई साल पहले गंगालूर में भर्ती किया था. मेरे गांव के नजदीक ही था, मैं ही उसको पार्टी में लेकर आया था. उसी ने पहला चाक़ू मारा. मेरे को मार कर सड़क पर फेंक दिया.

मुझे मालूम था वो मेरे को मारने वाले हैं. एडिशनल साहब (तत्कालीन बीजापुर एडिशनल एसपी कल्याण एलेसेला) भी बोले थे बचकर रहना नक्सली लोग ढूंढ रहे हैं मुझको. यह भी बोले थे मैं पुलिस लाइन से बाहर न निकलूं. सरेंडर नक्सली पुलिस लाइन में रहते हैं, सुरक्षित रहते हैं. लेकिन मेरे को लगा था मैं निबट लूंगा उनसे. मैं अपने गांव में रहना चाहता था. अपनी मैडम के साथ. अपने गांव में अपना घर बनवा रहा था. घर देखने जा रहा था जब मेरे पर हमला हुआ.

अगर बाहर आने के बाद भी पुलिस लाइन में रहना पड़े, फोर्स और हथियार के साथ, तो फिर अंदर से बाहर क्यों आते. जब भी पुलिस साहब लोग बुलाते थे, पूछताछ के लिए या जंगल और ऑपरेशन की जानकारी के लिए तो साहब के पास चला जाया करता था. लेकिन अभी ये लोग मुझे ऑपरेशन के लिए नहीं ले जाते. गोपनीय सैनिक बोलते थे मुझको.

मैंने साहब लोगों को बहुत बताया था, अंदर पार्टी के बारे में. नक्सली एम्बुश को बताया. मैंने कौन सा एम्बुश लगाया, यह भी बताया. मैंने बहुत बड़ा बड़ा एम्बुश किया था. मुरकीनार में बस को रोक कर पुलिस पर एम्बुश किया था. नौ फरवरी दो हजार छह को बैलाडीला के एनएमडीसी गोदाम से बारूद लूटा था. उन्नीस टन बारूद, चौदह एसएलआर रायफल और 2430 कारतूस. इतना ज्यादा बारूद हम माओवादियों ने पहले कभी नहीं लूटा था.

इसके बाद हमने पूरे दंडकारण्य में जमीन के नीचे बारूद बिछाना शुरू कर दिया. ये बारूदी खंदक छोटी सी बैटरी या दवाब से बम सी फूट जाती थी. पुलिस का लैंड माइन गाड़ी (एंटी लैंडमाइन उर्फ़ बख्तरबंद गाड़ी) भी इस बारूद ने फोड़ कर बिखरा दी. फ़ोर्स ने डर कर बाहर निकलना बंद कर दिया. पूरा इलाका हमारा हो गया.

मैं पार्टी में आया था 2002 में. बीजापुर के सिलगेर में रहता था. गंगालूर के पूरब में. वही सिलगेर गांव जहां फ़ोर्स वाले 17 आदिवासी मार दिए थे जून 2012 में. लेकिन मेरे को 2012 किसी और वजह से याद है. मैं उस वक्त दक्षिण बस्तर डिवीजन कमेटी का मेंबर था. एके-47 रखता था. एक बार मैं अपने दस्ते के साथ पेंकराम गांव में रुका. वो वहां एक सरकारी स्कूल में गुरुजी थी. मैंने उसे पहली बार देखा… और मेरे को लगा…

अगले दिन हम पेंकराम से आगे चल दिए. मैं लौटना चाहता था. लेकिन मैं बड़ा कमांडर था, अकेला वापस कैसे जाता. मैंने फिर एक काम किया. कमांडर लोग सरपंच, गुरुजी, स्वास्थ्य कर्मचारियों की मीटिंग बुलाते हैं. मैंने उस इलाके के गुरुजी लोगों की मीटिंग करना शुरू किया. वो आया करती थी…और फिर…

इससे आगे मेरे को बताने को नहीं होगा.

मरा हुआ आदमी को चुप रहना चाहिए. वो मेरे को बोली थी कि हमें मैसूर में ही रह जाना चाहिए. वापस नहीं लौटना चाहिए. लेकिन मेरे को उसकी बात समझ नहीं आई थी. अगर हम मैसूर में ही रहते, तो मैं धीरे-धीरे कुछ सीख लेता. मैं मारा नहीं जाता. मेरे को उसको बात मान लेनी थी. वो गुरुजी थी. मेरी मैडम.

विस्थापन 2

‘मैं मरने के लिए एक शांत जगह तलाश रहा था. किसी ने सुझाया ब्रुकलिन, और अगली सुबह यहां चला आया.’

कुछ उपन्यास आपकी ज़िंदगी में इस क़दर प्रवेश करते हैं, उसे परिभाषित और निर्धारित करते हैं कि आप अचंभित रह जाते हैं. क्या यह उपन्यास उस लेखक ने लिखा था जिसका तुमसे कोई वास्ता नहीं, जो तुमसे कई समंदर पार रहता है.

वे कौन से कारक थे जिन्होंने तुम्हें डेथ रिपोर्टर बनाया, जो किसी को डेथ रिपोर्टर बनाते हैं? आख़िर तुम्हारी यह डेथ स्क्रिप्ट उर्फ़ मृत्यु कथा कहां शुरू हुई? 15 अगस्त, 2011 की घनघोर बरसती सुबह जब तुम दिल्ली से इस जंगल के लिए चले थे, या 17 अगस्त जब तुम ढाई दिन कार चलाकर रायपुर पहुंचे थे? या 19 अगस्त की शाम जब तुम अभी होटल में ही थे, सामान कार में था, लेकिन तुम्हें भद्रकाली में नक्सली हमले में ग्यारह सिपाहियों के मारने की सूचना मिली थी, लहू ने आते ही तुम्हारा इस्तक़बाल किया था और तुम अपनी कार, जो तुम्हारे लिए आशियाने की तरह रही है, एक अनजाने शहर में छोड़ कर क़रीब चौबीस घंटा दूर भद्रकाली के जंगल को चल दिए थे? या जून 2011 की वह शाम जब अचानक एक दिन तुमसे तुम्हारे संपादक ने कहा था: ‘क्या तुम वहां जाना चाहोगे? इस वक़्त हिंदुस्तान में इससे बड़ी रिपोर्टिंग पोस्टिंग कोई नहीं. मैं ख़ुद वहां जाना चाहूंगा लेकिन अख़बार मुझे भेजेगा नहीं, इसलिए तुम्हें भेज रहा हूं.’

नहीं. यह मृत्यु कथा उससे भी पहले शुरू हुई थी. फ़रवरी में जब तुमने नेहरू प्लेस की एक सैकेंड हैंड किताबों की दुकान से एक उपन्यास ख़रीदा था, जिसे लेकिन तुम आगामी कुछ महीनों तक पढ़ नहीं पाए थे, जिसको तुमने दिल्ली से रायपुर के लिए निकलते समय अपनी कार की बग़ल की ख़ाली सीट पर रख लिया था, रास्ते में पढ़ने के लिए, और जिसे झांसी से पहले किसी ढाबे पर खाना खाते पलटा था तो सन्न रह गए थे क्योंकि उसका पहला ही वाक्य यह था- ‘मैं मरने के लिए एक शांत जगह तलाश रहा था, किसी ने सुझाया ब्रुकलिन, और अगली सुबह यहां चला आया.’

तुमने तुरंत उस उपन्यास को ख़त्म किया और इसके बाद जब भी तुमने वह पढ़ा तो बेइंतहा हैरान होते रहे कि आख़िर तुम्हारे पास वह उपन्यास ठीक उसी वक़्त क्यों आया. इस जंगल के लिए निकलने से पहले, इस जंगल का न्योता आने से पहले तुम अपनी ज़िंदगी से एकदम बेज़ार हो चुके थे. कई रूपों में लपलपाती मृत्यु का ख़ूंखार शिकंजा तुम्हारे ऊपर अरसे से मंडरा रहा था. तुम कहीं दूर भाग जाना चाहते थे.

तुम्हें वहां चार साल बिता कर लौटने के बाद अब दो बरस हो चुके हैं, यानी वह शाम जब तुमने वह वाक्य पहली बार पढ़ा था आज से क़रीब दो हज़ार दो सौ शाम पहले घटित हुई थी. इस दरमियां तुम अक्सर अपने जंगल के दिनों को टटोलते-खूंदते रहे हो, ख़ुद से पूछते रहे हो कि आख़िर वह जंगल तुम्हारे पास किस तरह आया, तुम वहां मृत्यु की इन बेशुमार कथाओं के गवाह कैसे बने, किस तरह ख़ुद को इतने बीहड़ ख़तरे में डालते रहे, हर बार बच कर निकलते भी रहे. हरेक मर्तबा वही जवाब आता है जो पॉल ऑस्टर के उपन्यास ‘द ब्रुकलिन फोलीज’ के पहले वाक्य में दर्ज हुआ है.

मृत्यु 1

मुझसे मिलने के दो साल के भीतर ही उसका क़त्ल हो गया. क्या मैं उसे बचा सकता था? क्या मैं एक अनूठी प्रेम कथा को इस दुर्दांत अंजाम से बचा सकता था?

मार्च, 2013 में, छत्तीसगढ़ पुलिस के इंटेलीजेंस विभाग के किसी दफ़्तर में बेवजह भटकते हुए मेरी निगाह एक आदमी और औरत पर अटक गई. दोनों एक कमरे के बाहर बेंच पर बैठे थे. आदमी ने पैंट कमीज और एक लाल से रंग का आधी बांह का स्वेटर पहना हुआ था. उस स्वेटर का रंग कुछ इस तरह से था कि उसके बाक़ी कपड़ों पर निगाह नहीं जा रही थी. बाल उसके छोटे और घुंघराले. उसके बगल में बैठी औरत साड़ी पहने थी.

मैं उनके सामने से दो तीन बार गुज़रा, उन को पर्याप्त निगाह करने के लिए और उनका ध्यान खींचने के लिए भी कि किस तरह शायद हमारी आंखें टकराएं और बातचीत शुरू हो सके. लेकिन उनका मुझ पर कतई ध्यान नहीं गया. उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं हुई कि एक अनजान आदमी उनके सामने से निकलता है, थोड़ा आगे जा मुड़ता है, फिर उनके सामने से गुज़रता है.

ऐसा भी नहीं था कि वे दोनों आपस में बात कर रहे थे इसलिए मैं दर्ज नहीं हो रहा था. वे एक दूसरे को देख तक नहीं रहे थे. दोनों की निगाह कभी सामने, कभी नीचे झुक जाती थी. लेकिन इसके बावजूद दोनों एक साथ थे, एक साथ होने का भाव उनकी ख़ामोशी में बसा हुआ था. उनकी ख़ामोशी में तनाव या कसमसाहट भी नहीं थी. उज्जवल, ठंडे पानी में डूबी ख़ामोशी.

आए दिन कई अनजान लोग हमारी निगाह खींचते हैं, जिन्हें दूर से देख कर उनकी कल्पना में ही हमारा उनके साथ संबंध पूरा हो जाता है. हम आगे बढ़ जाते हैं. कोई चेहरा. किसी परिधान का रंग. पल भर को कौंधा कोई चेहरा. एक बार दिल्ली की आइटीओ क्रॉसिंग पर मैं ऑटो में था. लाल बत्ती पर गाड़ियां रुकी हुई थीं. तभी मेरे सामने वाली कार का शीशा नीचे उतरा, एक हाथ बाहर निकला. इसकी उंगलियों में सिगरेट फ़ंसी हुई थी. किसी पुरुष का हाथ था. उसकी हथेली कार के रियरव्यू मिरर पर टिकी थी. उंगलियों में फ़ंसी सिगरेट से धुआं उठ रहा था.

तभी उसने कश लेने के लिए हाथ अंदर खींचा और आईने पर बग़ल में बैठी लड़की का चेहरा कौंध गया, सिर्फ़ पल भर को ही, क्योंकि अगले ही लम्हे उस पुरुष की सिगरेट वाली हथेली फिर से आईने पर आ ठहर गई. लेकिन इस बार जिस तरह से उसकी उंगलियां वहां टिकी थीं, आईने में उस लड़की के अक्स के लिए थोड़ी जगह बन गई थी. आईना, उस पर सिगरेट और उसके धुएं का प्रतिबिंब, और लड़की का अक्स.

लाल बत्ती खुल गई, वह कार तेज़ी से आगे बढ़ गई.

उस पुलिस दफ़्तर में बैठे इन दोनों के साथ लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मैं उनसे बात करना चाहता था, उनकी इस ख़ूबसूरत ख़ामोशी को थामना चाहता था. उस लगभग ख़ाली से दफ़्तर में पांच-छह चक्कर लगाने के बाद मुझे यह लगने लगा था कि ये दोनों कोई अर्ज़ी देने आए हैं, कोई शिकायत दर्ज कराने शायद. उनकी असल पहचान का रत्ती भर एहसास नहीं था. इस बीच एक दो पुलिस वाले वहां से गुज़रे थे, एकदम बेध्यानी में चलते गए थे.

मैं आख़िरकार उनके पास गया, पूछा यहां किसका इंतज़ार रहे हो तो वह आदमी लगभग सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया. ‘साहब बोले हैं यहां बैठने को.’

पल भर ही में मुझे समझ आ गया वे कौन थे. यानी मेरा उनसे यहां बात करना ठीक नहीं था.

‘कहां रुके हो?’

‘यहीं, साहब के पास.’

उसका अर्थ था कि वह इसी दफ़्तर की किसी बैरक इत्यादि में रुका है. मेरे पास समय कम था. मैं नहीं चाहता था गुज़रता हुआ कोई मुझे उनसे बात करता हुआ देख ले.

‘फोन है?’

उसने जेब से एक पुराना सा लोकल फोन निकाला, मुझे दिखाया. विलक्षण मासूमियत से बोला. ‘साहब दिए हैं, लेकिन अभी चालू नहीं है.’ उसने मेरी तरफ़ फोन बढ़ा दिया, मसलन मैं उसे ठीक कर दूंगा.

‘यहां से कब निकलोगे?’

उसने सर हिला दिया. उसे नहीं मालूम था कब.

मैंने उसे डेढ़ घंटे बाद नज़दीक एक जगह मिलने को कहा. ‘घड़ी है?’

उसने अपनी कमीज की बाजू ऊपर सरका दी. पुरानी एचएमटी घड़ी का डायल.

इसके बाद कोरसा जोगा से मेरी मुलाक़ातें शुरू हुई. वो और वरलक्ष्मी. उसकी मैडम. वह गोंड आदिवासी था, वरलक्ष्मी हल्बी. एक दुर्लभ प्रेम कथा मेरे सामने बसंत के गुलाब की पंखुरियों की माफ़िक खुल रही थी. साल भर भी नहीं हुआ था जब जोगा बस्तर में नक्सली वर्दी पहने, एके-47 उठाए अकड़ कर चलता था. इन दस महीनों में उसने वरलक्ष्मी के साथ चुपके से गोदावरी पार की. बस्तर से हैदराबाद, बेंगलुरु, मैसूर का फेरा लगा लिया.

दसेक महीने पहले उसने पहली बार वरलक्ष्मी को देखा था जब वह अपने दल के साथ बीजापुर जिले के एक गांव से गुज़र रहा था. वह वहां एक सरकारी स्कूल में पढ़ाती थी. ‘मैंने उसे देखा… और लगा, हां.’

जोगा ने फिर बहाने खोजने शुरू किए वरलक्ष्मी से मिलने के. वह अक्सर उस इलाके के शिक्षकों को मीटिंग के बहाने बुलाने लगा. दोनों उस जंगल के बीच अपने लिए जगह ढूंढते फिरते. हालांकि दंडकारण्य सबको अपने अंदर समेट लेता है, जोगा के साथ दो समस्याएं थीं. उसकी पत्नी सविता मड़कम अभी जीवित थी, वह भी वर्दीधारी नक्सली थी. बीजापुर के गंगालूर इलाके में उसका फेरा था. दूसरा, जोगा के बॉस लोगों को उसका एक सरकारी टीचर से मिलना कतई पसंद नहीं था. जोगा माओवादियों की दक्षिण बस्तर डिवीज़नल कमेटी का सदस्य था, एक बड़ा विद्रोही.

माओवादियों के नियम के अनुसार यदि कोई कैडर किसी ग्रामीण या संगठन से बाहर की लड़की से शादी करना चाहता है तो सबसे पहले उस लड़की को पार्टी का सदस्य बनकर दो-एक साल काम करना पड़ता है, तब जाकर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा इस शादी की स्वीकृति मिलती है. जोगा को यह स्वीकृति मिलने की संभावना ही नहीं थी, वह पहले ही शादीशुदा था.

पार्टी की निगाह में उसका यह संबंध घनघोर अनुशासनहीनता थी.

कुछ ही महीनों में जोगा ने तय कर लिया कि वह उस पार्टी को छोड़ देगा जिससे वह पिछले दस सालों से जुड़ा हुआ था. जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई, अपनी रायफल, क्रांति का सपना भी छोड़ देगा और अपनी ‘मैडम’ के साथ कहीं दूर चला जाएगा. जिस वर्दी को इतने बरस से पहनते आए थे, उसे इतनी जल्दी छोड़ने का सोच लिया? ‘हां, मुझे लगा हो गया बस.’

वरलक्ष्मी तैयार नहीं थी, लेकिन जोगा ने उसे राज़ी कर लिया. बतौर नक्सली कमांडर जोगा ठेकेदारों से पैसा वसूली किया करता था, अपनी पार्टी के मुखिया लोगों तक पहुंचाता था. उसने अपनी पार्टी से छुपा कर ठेकेदारों से करीब दस लाख इकट्ठा किया और 1 फरवरी, 2013 की रात वरलक्ष्मी के साथ बस्तर, अपनी वर्दी, अपनी रायफल- अपने समूचे अतीत को पीछे छोड़ कर हिंदुस्तान के दक्षिणी इलाके में नया जीवन शुरू करने चल दिया.

‘दस लाख थे हमारे पास. हमें लगा था इतने से हम दोनों एक नई ज़िंदगी शुरू कर सकेंगे. एक घर ख़रीद लेंगे… एकदम पागल थे हम,’ वह हंसने लगा.

वह अपने पूरे जीवन में दंडकारण्य के बाहर कभी नहीं गया था. कभी चोरी छुपे महाराष्ट्र के गढ़चिरौली, तेलंगाना के खम्मम और वारंगल ज़िले तक हो आया था. वरलक्ष्मी को बाहरी जीवन का थोड़ा अधिक अनुभव था, लेकिन उसका भी शहर से कोई ख़ास राब्ता नहीं था. दोनों आंध्र पार करते हुए बेंगलुरु पहुंचे, फिर मैसूर. एक होटल से दूसरे होटल. ‘हम दक्षिण में घर बसाना चाहते थे, लेकिन शहरी ज़िंदगी हमारी समझ नहीं आ रही थी. हमको वहां का बोलना भी नहीं आता था’ जोगा अभी भी हंस रहा था.

लेकिन मैसूर से वो वापस बस्तर कैसे आ पहुंचे? वो भी पुलिस के चंगुल में? क्या एक उन्मादे प्रेम का अंत इस तरह होना था? उनके पैसे तेज़ी से ख़र्च होने लगे, मैसूर में कोई नौकरी इत्यादि का ठिकाना नहीं सूझा, नौकरी मिलती भी कहां उन दोनों को. मज़दूरी के सिवाय दो आदिवासियों को किसी महानगर में और क्या मिलेगा. इसी ऊहापोह में जोगा ने सुझाया कि आंध्र चला जाए, वहां वह कुछ लोगों को जानता है. शायद खम्मम या भद्राचलम में बस जाना आसान होगा. हालांकि इसमें ख़तरा था. उसे मालूम था कि आंध्र की पुलिस के पास उसका रिकॉर्ड हो सकता है. लेकिन उसे लगा इतने दिन हो गए, सब भूल गए होंगे उसे अब.

यहां से उसे नहीं मालूम कब, क्या ग़लत हुआ. उसने हैदराबाद आकर अपने किसी परिचित को फ़ोन किया और कुछ ही देर बाद पुलिस वाले उसके सामने थे. उसे नहीं मालूम उस परिचित का फ़ोन टेप हो रहा था या उसने पुलिस को सूचना दे दी या उन दोनों को हैदराबाद बस स्टैंड पर भटकता देख आंध्र प्रदेश की ख़ुफ़िया पुलिस के वहां तैनात किसी अधिकारी को शक हो गया.

जो भी हुआ हो या न हुआ हो, वह धर लिया गया, जल्दी ही छत्तीसगढ़ ले जाया गया. पुलिस को चूंकि यह पता चल चुका था कि वह पहले ही पार्टी छोड़ चुका था, इसलिए उसकी गिरफ़्तारी, अदालत में पेशी वगैरह नहीं हुई. उसे प्रस्ताव दिया गया कि वह ख़ुद को सरेंडर दिखला दे, गोपनीय सैनिक बन जाए.

वरलक्ष्मी के साथ कोरसा जोगा. (फोटो सौजन्य: आशुतोष भारद्वाज)
वरलक्ष्मी के साथ कोरसा जोगा. (फोटो सौजन्य: आशुतोष भारद्वाज)

इतने सालों से हथियार लिए जंगल में भटकते हुए कोरसा थक चुका था. वह यह भी जान चुका था कि शहर में भी उसके लिए कोई जगह नहीं थी. ‘पुलिस लोगों के साथ काम कर लेते हैं, यह भी करके देख लिया जाए.’

और बहुत जल्दी वह वापस बीजापुर में था. उसी जंगल में जहां से वह बचकर निकला था अपने प्रेम को जीने के लिए. सिर्फ़ तीन महीने में उसने अपना मोर्चा बदल लिया था.

आख़िर एक नक्सली में यह अकस्मात परिवर्तन कैसे आता है? पार्टी छोड़ने और नया जीवन शुरू करने की हसरत समझी जा सकती है, लेकिन एक गुरिल्ला आख़िर अपने बचपन के साथियों के ख़िलाफ़ हथियार लेकर कैसे खड़ा हो सकता है. कैसे वह अपने कॉमरेड के सारे ख़ुफ़िया राज उगलने लगता है. एक इंसान अपने अतीत से दूर जा सकता है, क्या वह अपने अतीत के साथ इस क़दर फ़रेब भी कर सकता है, उसे पूरी तरह झुठला भी सकता है? ख़ासकर तब जब उसका यह अतीत उन आदर्शों से निर्मित हुआ था जिनके लिए उसने ख़ुद को अब तक क़ुर्बान किया था?

इसकी वजह यह नहीं हो सकती कि पुलिस के हथकंडों के सामने नक्सली टूट जाते हैं. कई नक्सलियों से मिला हूं जो लंबे समय तक जेल में रहे, बाहर आकर तुरंत हथियार उठा पार्टी का काम करने लगे. जेलबंदी के कई सालों के दौरान उन्होंने पुलिस को कुछ नहीं बताया. रजनू मंडावी मसलन. अबुझमाड़ में इंसास लेकर चलता है. दो-तीन साल जगदलपुर जेल में रहा. ‘पुलिस वाले मुझे मारे, ख़ूब सारा मारे. मैं कुछ नहीं बोला.’

जो नक्सली सरेंडर करता है, उसके लिए यह कहा जा सकता है कि जब उसने बाहर आने का तय किया, तब उसे मालूम था कि पुलिस उससे उसकी पार्टी के ख़ुफ़िया राज पूछेगी जो उसे बताने ही पड़ेंगे. वह पाला बदलने से पहले महीनों तक ख़ुद को मानसिक रूप से तैयार करता है.

लेकिन जोगा? वह यह सोचकर बाहर नहीं आया था. वह अपने इश्क़ को जीने आया था. उसे जिये बग़ैर ही चला गया. छत्तीसगढ़ के पूरे इतिहास में राज्य में ‘सरेंडर’ करने वाला वह सबसे बड़ा माओवादी कैडर था. केंद्र और राज्य सरकार की पुनर्वास नीति के तहत उसे तमाम सुविधाएं, घर, नौकरी, बीस पच्चीस लाख नगद मिलना चाहिए था. यानि किसी सुरक्षित जगह पर स्थिर शांत जीवन. उसे लेकिन उसी जंगल में गोपनीय सैनिक बना भेज दिया गया.

मेरे पास सिर्फ़ एक तस्वीर रह गई है. उसने वरलक्ष्मी के साथ किसी फ़ोटो स्टूडियो में खिंचवाई थी. वरलक्ष्मी कुर्सी पर बैठी है, वह उसके पीछे उसके कंधे पर हाथ रखे खड़ा है. जोगा की उंगली में सोने की सी अंगूठी चमक रही है, वरलक्ष्मी बैंगनी साड़ी पहने है. क़रीने से निकली उसकी मांग में सिंदूर है, गले में लंबा सा मंगलसूत्र जो उसकी साड़ी के पल्लू के ऊपर आ ठहरा है.

उसकी मोहब्बत को जानकर ही मैंने उसे कहा था कि उसे बीजापुर नहीं जाना चाहिए. पुलिस का ही काम करना है तो रायपुर भी ठीक रहेगा. लेकिन वह अपने गांव में रहना चाहता था, यह जानते हुए भी कि वह अपने भूतपूर्व दोस्तों के निशाने पर है. पुलिस भी उसे बीजापुर में ही चाहती थी.

जिस दिन उसका क़त्ल हुआ, मेरे भीतर का इंसान जो प्रेम करता है, करना चाहता है, कहीं भीतर उस इंसान का भी क़त्ल हो गया.

वरलक्ष्मी फिर से स्कूल में पढ़ाने लगी. इन दिनों बीजापुर के किसी सुदूर गांव में पढ़ाती है.

(कथाकार और पत्रकार आशुतोष भारद्वाज इन दिनों भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो हैं.)

slot gacor slot demo pragmatic mpo slot777 data cambodia pkv games bandarqq dominoqq pkv games pkv games bandarqq pkv games bandarqq pkv bandarqq dominoqq pkv pkv pkv bandarqq dominoqq pkv games dominoqq bandarqq sbobet judi bola slot gacor slot gacor bandarqq pkv bandarqq pkv bandarqq pkv bandarqq pkv bandarqq bandarqq dominoqq deposit pulsa tri slot malaysia data china data syd data taipei data hanoi data japan pkv bandarqq dominoqq data manila judi bola parlay mpo bandarqq judi bola euro 2024 pkv games data macau data sgp data macau data hk toto rtp bet sbobet sbobet pkv pkv pkv parlay judi bola parlay jadwal bola hari ini slot88 link slot thailand slot gacor pkv pkv bandarqq judi bola slot bca slot ovo slot dana slot bni judi bola sbobet parlay rtpbet mpo rtpbet rtpbet judi bola nexus slot akun demo judi bola judi bola pkv bandarqq sv388 casino online pkv judi bola pkv sbobet pkv bocoran admin riki slot bca slot bni slot server thailand nexus slot bocoran admin riki slot mania slot neo bank slot hoki nexus slot slot777 slot demo bocoran admin riki pkv slot depo 10k pkv pkv pkv pkv slot77 slot gacor slot server thailand slot88 slot77 mpo mpo pkv bandarqq pkv games pkv games pkv games Pkv Games Pkv Games BandarQQ/ pkv games dominoqq bandarqq pokerqq pkv pkv slot mahjong pkv games bandarqq slot77 slot thailand bocoran admin jarwo judi bola slot ovo slot dana depo 25 bonus 25 dominoqq pkv games bandarqq judi bola slot princes slot petir x500 slot thailand slot qris slot deposit shoppepay slot pragmatic slot princes slot petir x500 parlay deposit 25 bonus 25 slot thailand slot indonesia slot server luar slot kamboja pkv games pkv games bandarqq slot filipina depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot linkaja slot deposit bank slot x500 slot bonanza slot server international slot deposit bni slot bri slot mandiri slot x500 slot bonanza slot depo 10k mpo slot mpo slot judi bola starlight princess slot triofus slot triofus slot triofus slot kamboja pg slot idn slot pyramid slot slot anti rungkad depo 25 bonus 25 depo 50 bonus 50 kakek merah slot bandarqq pkv games dominoqq pkv games slot deposit 5000 joker123 wso slot pkv games bandarqq slot deposit pulsa indosat slot77 dominoqq pkv games bandarqq judi bola pkv games bandarqq pkv games pkv games pkv games bandarqq pkv games pkv games pkv games bandarqq poker qq pkv deposit pulsa tanpa potongan bandarqq slot ovo slot777 slot mpo slot777 online poker slot depo 10k slot deposit pulsa slot ovo bo bandarqq pkv games dominoqq pkv games sweet bonanza pkv games online slot bonus slot77 gacor pkv akun pro kamboja slot hoki judi bola parlay dominoqq pkv slot poker games hoki pkv games play pkv games qq bandarqq pkv mpo play slot77 gacor pkv qq bandarqq easy win daftar dominoqq pkv games qq pkv games gacor mpo play win dominoqq mpo slot tergacor mpo slot play slot deposit indosat slot 10k alternatif slot77 pg soft dominoqq login bandarqq login pkv slot poker qq slot pulsa slot77 mpo slot bandarqq hoki bandarqq gacor pkv games mpo slot mix parlay bandarqq login bandarqq daftar dominoqq pkv games login dominoqq mpo pkv games pkv games hoki pkv games gacor pkv games online bandarqq dominoqq daftar dominoqq pkv games resmi mpo bandarqq resmi slot indosat dominoqq login bandarqq hoki daftar pkv games slot bri login bandarqq pkv games resmi dominoqq resmi bandarqq resmi bandarqq akun id pro bandarqq pkv dominoqq pro pkv games pro poker qq id pro pkv games dominoqq slot pulsa 5000 pkvgames pkv pkv slot indosat pkv pkv pkv bandarqq deposit pulsa tanpa potongan slot bri slot bri win mpo baru slot pulsa gacor dominoqq winrate slot bonus akun pro thailand slot dana mpo play pkv games menang slot777 gacor mpo slot anti rungkat slot garansi pg slot bocoran slot jarwo slot depo 5k mpo slot gacor slot mpo slot depo 10k id pro bandarqq slot 5k situs slot77 slot bonus 100 bonus new member dominoqq bandarqq gacor 131 slot indosat bandarqq dominoqq slot pulsa pkv pkv games slot pulsa 5000