नई दिल्ली: कारवां पत्रिका ने आरोप लगाया है कि वर्ष 2020 में दिल्ली में उसके पत्रकारों के खिलाफ हिंसा की घटना के करीब चार साल बाद दिल्ली पुलिस ने अचानक उसके तीन पत्रकारों को बताया है कि उनके खिलाफ एक एफआईआर दर्ज है, जिसमें ‘तीनों पत्रकारों को नामजद किया गया है और उन पर धारा 354 (महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाना) और 153ए (सांप्रदायिक द्वेष को बढ़ावा देने) जैसी गंभीर धाराओं के तहत आरोप लगाए गए हैं.’
पत्रिका का कहना है कि उन्हें कहा गया कि एफआईआर की संवेदनशील ‘प्रकृति’ को देखते हुए उन्हें इसकी प्रमाणित प्रति नहीं दी गई है.
दिलचस्प बात यह है कि कारवां का कहना है कि 11 अगस्त 2020 को ‘उत्तर-पूर्वी दिल्ली के सुभाष मोहल्ले में पत्रिका के साथ काम करने वाले तीन पत्रकारों – शाहिद तांत्रे, प्रभजीत सिंह और एक महिला पत्रकार – पर भीड़ ने हमला किया था. ‘पत्रकारों को सांप्रदायिक गालियां और जान से मारने की धमकी दी गई; महिला पत्रकार का यौन उत्पीड़न किया गया. खुद को भारतीय जनता पार्टी का ‘महासचिव’ बताने वाले एक व्यक्ति ने तांत्रे के मुस्लिम होने का पता लगने के बाद हमारे कर्मचारियों पर हमला कर दिया.’
कारवां ने घटनाक्रम को याद करते हुए बताया है, ‘हमारे पत्रकारों पर हमला डेढ़ घंटे तक चला. पुलिस के हस्तक्षेप के बाद पत्रकारों को भजनपुरा पुलिस थाने ले जाया गया, जहां उन्होंने विस्तृत शिकायत दर्ज कराई.’
कारवां का कहना है कि उनकी शिकायत घटना वाले दिन ही दर्ज कर ली गई थी, लेकिन ‘पुलिस ने तीन दिन बाद यानी 14 अगस्त 2020 तक हमारी एफआईआर दर्ज नहीं की.’
कारवां ने कहा है कि लेकिन अब पुलिस का कहना है कि हमारी एफआईआर के विरोध में एक ‘काउंटर एफआईआर’ भी दर्ज की गई थी, जो अब तक हमें दिखाई नहीं गई है. यह एफआईआर उसी दिन हमारी एफआईआर से एक घंटे से भी कम समय पहले दर्ज की गई थी.
कारवां की ओर से कहा गया है, ‘एफआईआर में लगाए गए आरोप पूरी तरह से झूठे और मनगढ़ंत हैं. चार साल तक न तो कारवां और न ही एफआईआर में नामजद पत्रकारों को ऐसी किसी एफआईआर के बारे में बताया गया.’
कारवां का कहना है, ‘हमारी एफआईआर में जांच अभी तक लंबित है, न तो हमारे पत्रकारों को उस मामले में जांच में शामिल होने के लिए कहा गया, और न ही हमें चार साल तक उसकी जांच में हुई प्रगति की स्थिति के बारे में बताया गया. इसके विपरीत, हमारे पत्रकारों के खिलाफ कथित मामला विधिवत रूप से दर्ज किया गया है.’
ज्ञात हो कि उस समय संस्थान के पत्रकार दिल्ली हिंसा की एक शिकायतकर्ता से जुड़ी एक रिपोर्ट पर काम कर रहे थे. कोविड महामारी के लॉकडाउन से ठीक पहले फरवरी 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हिंसा भड़क उठी थी, जिसमें कम से कम 53 लोगों की जान चली गई थी.
कारवां की रिपोर्ट ‘एक मुस्लिम महिला पर केंद्रित थी, जिसने भजनपुरा पुलिस थाने के अधिकारियों पर कुछ दिन पहले उसे और उसकी 17 वर्षीय बेटी को पीटने और यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगाया था. महिला ने अगस्त 2020 की शुरुआत में पुलिस से संपर्क किया था, जब अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास समारोह के बाद इलाके में सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था. उसी साल की शुरुआत में, संबंधित महिला ने फरवरी 2020 में दिल्ली में हिंसा के संबंध में एक शिकायत दर्ज कराई थी.
दिल्ली हिंसा की जांच में दिल्ली पुलिस की भूमिका अदालती जांच के घेरे में आ चुकी है और पिछले साल अगस्त में एक पखवाड़े से भी कम समय में तीन अलग-अलग आदेशों में दिल्ली के एक जज ने दंगों की पुलिस जांच पर तीखी टिप्पणियां भी की थीं. अदालती आदेशों की वह सूची यहां पढ़ सकते हैं, जिसमें अदालत ने दिल्ली दंगों की ‘पक्षपातपूर्ण’, ‘अनुचित’ जांच के लिए दिल्ली पुलिस की खिंचाई की थी.
अब, कारवां की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि ‘हिंसा के दौरान पुलिस का आचरण, खासतौर पर मुसलमानों के प्रति, गंभीर सवालों के घेरे में आ गया है.’
कारवां ने इसे ‘एक झूठा और मनगढ़ंत मामला बताया है जो उनकी पत्रकारिता पर दबाव बनाने का प्रयास है. यह प्रेस की स्वतंत्रता पर सीधा हमला है और भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सीधा उल्लंघन है.’
कारवां ने कहा है, ‘हम जांच में शामिल हो गए हैं और कानून की उचित प्रक्रिया का पूरी तरह से पालन करने का इरादा रखते हैं. हम इन झूठे आरोपों को चुनौती देने और उन्हें खारिज करवाने के लिए कानून के तहत अपने अधिकारों का प्रयोग करेंगे.’
उल्लेखनीय है कि पिछले महीने विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों में भारत 159वें स्थान पर था.