पक्ष-विपक्ष में बंटे विमर्शों में जनतंत्र के पाले में कौन है?

जनतंत्र के नाम पर अब कोई भी पक्ष लिया जा सकता है. इसका एक कारण यह भी है कि अब किसी चीज़ के कोई मायने नहीं: न मुक्ति, न समानता, न धर्मनिरपेक्षता, न पूंजी, न मज़दूर: सारे शब्द और अवधारणाएं व्यर्थ हो चुके हैं. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 30वीं क़िस्त.

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(इलस्ट्रेशन: द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

ऐसा नहीं है कि सारे कुकर्म समाजवादियों ने ही किए हों
अर्धवाम तो वे थे ही राष्ट्रभक्त और सर्वधर्मसमभावक थे ही
उनकी कुछ गाढ़ी दोस्तियां मार्क्सवादियों से भी थीं मुसलमानों से भी
और मैकालेपरस्तों से भी कोई ज़ाती रंजिश तो न थी
उन्होंने हमेशा सिद्धांत की लड़ाई को
सिद्धांत तक रखा – मर्यादा न तोड़ी…
संघी राज अकेला उन्हीं का लाया हुआ तो नहीं भाई, मोदी संभावना
क्या उन्हीं के चाहने से आई? पीछे की बात करें तो क्या करते लोहिया और जेपी
मामला पतन और गिरावट का नहीं युगीन नियति का है
समाजवाद की बातें हवा हुईं धर्मनिरपेक्षता बचाए नहीं बच रही…
सामाजिक न्याय की शक्तियों का हाल आपने देख ही लिया कि जहां
‘ताक़त ही ताक़त है… चीख़ नहीं’ – क्या तो नाम है कवि का जिसने यह कहा?
रही बात कम्युनिस्टों की तो कम्युनिस्टों में भी अब क्या बचा रहा है!
ऐसा नहीं है कि हिंदुस्तान में हम आप ही को नज़र आती हो बदतरी
ऐसा भी नहीं है कि हिंदुस्तान ही में निवास करती हो ये बदतरी.
यह एक चौथाई सदी खड़ी है तीन सदियों के मलबे पर
न मुक्ति की बात रही न मुक्ति-संग्राम की
औद्योगिक हड़ताल कैसी गर्वीले कामगार कहां
पूंजी पूंजी न रही, वित्त ही वित्त है अब
किस दुनिया में रहते हो साथी मज़दूर वर्ग अब एक मिथ है
वर्ग भी मिथ है मिथ हमेशा मिथ थी पर जब तक थी अच्छी थी
लाल लाल लहरा लिया जब तक लहरा लिया
कहते हैं सभी विज्ञजन-समाजविज्ञानी, इतिहासज्ञ, मीडिया-विशेषज्ञ
अभियंता, चिकित्सक, खिलाड़ी, और – सच तो यह है – ख़ुद आप … सिर्फ़ हमीं नहीं.

हमारे ज़माने में विमर्श है अमर्ष भी ख़ूब है किसी का लेकिन पक्ष पता नहीं चलता
कौन कहां जाकर मिलता है किसी से, कितनी देर लगा रहता है फ़ोन पर नेट पर
किसकी कितनी ऊर्जा जाती है हिसाब-किताब में
चाल-चलन मापने के ये पैमाने व्यवस्था के काम आते हैं जीविका से इनका क्या रिश्ता
सच्ची मेहनत सच्ची आग सच्चा अनाज सच्चे आंसू ऐसे नहीं आते
अचानक ख़ून के धब्बों की तरह उभरती हैं ख़ाली जगहें कभी यहां कभी वहां
जिन्हें भरने दौड़ते हैं वे जन जिनके कंधे पर गमछा बग़ल में बच्चा नहीं
मेट्रो में मिला नए अर्थतंत्र में काम करता उन्नीस साला लड़का कहता है क्या अन्याय सर,
आप ही बताओ व्यवस्थाएं कहीं चला करती हैं
अन्याय के बिना!
क्या तुम किसी ग़रीब के बेटे नहीं? सुनकर वह आपा खो देता है
ग़रीब क्यों होने लगे हम अंकल जी, आपने मेरे को कमूनिस्ट समझा है क्या?
ऐसे मूड में है हमारा नौजवान, यही उसका प्रतिरोध है
यों मुकम्मल होती है सादर प्रणाम से शुरू हुई बात.
एक चौथाई सदी खड़ी है तीन सदियों के मलबे पर
प्रतिपक्ष है जहां स्त्री नहीं, स्त्री है जहां प्रतिपक्ष नहीं, और स्त्री मैं है स्त्री वह नहीं
स्त्री का शोर ही जहां स्त्री है ख़ामोशी स्त्री नहीं है संशय मनुष्यता नहीं
पितृसत्ता का विनाश भी अब एक ख़राब-सा जुमला होकर रह गया है
जो विरोध की लाचारी बताता है जिसे सबसे पहले संरक्षण चाहिए और अंत में संरक्षण
अदालत में पेश हो तो पुलिस के साथ, थाने जाना हो तो वकील के हमराह
पीछे ग़ैर भरोसेमंद-सी एक ओबी वैन.
जो लोग पर्दों पर निगाह गड़ाए रहते हैं यक़ीन मानिए पर्दा भी उन्हीं को देखता है
टेक्स्ट और ओरल तक न रह जाइए जानिए विज़ुअल डिजिटल वर्चुअल
ऐसा तादात्म्य इतिहास में कभी देखा नहीं गया कि यह दैनिक चमत्कार है
हिंदुस्तान भी बस एक चमत्कार ही है दलालों ने हर चीज़ को खेल में बदल दिया है
वीडियो गेम से उकताते हैं तो मुसलमानों को मारने के लिए निकल पड़ते हैं
और जो रास्ते में आता है कहते हैं हम आपको देख लेंगे नम्बर आपका भी आएगा जी.
हम बार-बार बोल चुके हैं- ज़ोर से कहता है एक दलित विमर्शकार –
हिंदू मुस्लिम मामला खुली धोखाधड़ी है, साफ़ मिली-भगत है दोनों पक्षों की
ताकि दलितों का पक्ष सामने न आने पाए, थोड़ी बहुत मारकाट से क्या फ़र्क़ पड़ता है
असली लड़ाई दलितों की है, मियां लोगों की नहीं.
यह एक चौथाई सदी खड़ी है तीन सदियों के मलबे पर
खुला मैदान है कहीं भी मूत लो, किधर भी निपट आओ
असल सचाई तो ये है कि
जो उत्तरसत्य पर ईमान लाए, है वही इस ज़मीन का सच्चा नागरिक.

असद ज़ैदी की कविता ‘ऐसा नहीं है’ में वह क्या है जो इसे कविता बना देता है, कहना कठिन है. आलोचना को ऐसे वक्त यह कहने की विनम्रता और साहस होना चाहिए कि वह उस नियम को नहीं जानती. बस! अपने दीर्घ काव्यानुभव-अभ्यास के आधार पर यह कह सकती है कि यह कविता है.

रघुवीर सहाय के शब्दों में कहें, तो शायद यह इसलिए कविता है कि पाठक को मूड़ मटकाने नहीं देती. कविता निष्ठुरता से उस वैचारिक यथार्थ को व्यक्त करती है जो आज के भारत के जनतंत्र का है.

21वीं सदी में भारतीय जनतंत्र एक वैचारिक दलदल में फंस गया है. यहां वह कैसे पहुंचा और क्यों अब कोई रास्ता नहीं दिखलाई देता? क्यों अब किसी भी विचार का सहारा नहीं, क्यों हर चीज़ व्यर्थ मालूम होती है?

रघुवीर सहाय अपनी एक कविता में आज के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न को पहचानने को कहते हैं. यह कविता भी भारतीय जनतंत्र के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न को चिह्नित करने की कोशिश करती है.

असली सवाल है कि किसका पक्ष कौन सा है:

हमारे ज़माने में विमर्श है अमर्ष भी ख़ूब है किसी का लेकिन पक्ष पता नहीं चलता

पक्ष जनतंत्र में बदले जा सकते हैं, लेकिन क्या उस तरह जैसे समाजवादियों ने या सामाजिक न्यायवादियों ने बदले हैं? कविता समाजवादियों पर व्यंग्य के साथ शुरू होती है. समाजवादी सब कुछ थे: अर्धवाम, राष्ट्रभक्त, सर्वधर्मसमभावक, और सबके मित्र भी थे: चाहे वे मार्क्सवादी हों, या मुसलमान या मैकालेपरस्त.

समाजवादियों का दावा था कि वे जनतंत्र में जड़ता के विरुद्ध हैं. इसलिए उनकी राजनीतिक मित्रता किसी से भी स्थिर नहीं हो सकती. सिद्धांत चूंकि जनतंत्र के निरंतर नवीकरण का है इसलिए वे किसी से भी मित्रता छोड़ सकते हैं और किसी तरह की मित्रता कर सकते हैं. इसका सिद्धांतीकरण राममनोहर लोहिया ने किया था. और उसका सबसे प्रतिनिधि नमूना लोहियावादी नीतीश कुमार हैं.

लेकिन असल बात है सिद्धांत को सिर्फ़ सिद्धांत ही मानना, उसे व्यवहार में न बदलना. जेपी हों या लोहिया या उनके शिष्य, सबने जनतांत्रिक तर्क के सहारे जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी से गठजोड़ किया. यह जनतांत्रिक तर्क धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ जाता हो तो वे कर ही क्या सकते थे? अगर इस जनतांत्रिक रास्ते से फासीवाद आ जाए तो वे क्या करें? उनका धर्म तो जनतंत्र है:

संघी राज अकेला उन्हीं का लाया हुआ तो नहीं भाई, मोदी संभावना
क्या उन्हीं के चाहने से आई? पीछे की बात करें तो क्या करते लोहिया और जेपी
मामला पतन और गिरावट का नहीं युगीन नियति का है

जनतांत्रिक प्रक्रिया से नरेंद्र मोदी के उदय को भी ‘युगीन नियति’ ही मान लें! इसके लिए तर्क यह भी दिया जाता है कि यह मात्र भारत की नहीं पूरी दुनिया की परिघटना है:

ऐसा नहीं है कि हिंदुस्तान में हम आप ही को नज़र आती हो बदतरी
ऐसा भी नहीं है कि हिंदुस्तान ही में निवास करती हो ये बदतरी.
यह एक चौथाई सदी खड़ी है तीन सदियों के मलबे पर

जब भारत में फासीवादी उभार पर अफ़सोस जताया जाता है तो तर्क दिया जाता है कि दुनिया में हर तरफ़ ताकतवर नेता, राष्ट्रवाद का उभार हो रहा है, भारत इससे कैसे बच सकता है. क्या यह एक स्वतः चलित प्रक्रिया है या इसके पीछे कुछ लोगों के कुछ निर्णय हैं? भारत में फासीवाद का रास्ता हमवार करने वाले क्या अपने पक्ष में यही तर्क देकर संतुष्ट हो रहेंगे?

लोहिया और जेपी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ जाने के अपने निर्णय को इस तर्क के सहारे उचित ठहराया कि इसी रास्ते बदलाव आ सकता था और जनतंत्र बचाया जा सकता था. उसी तरह 2014 में नरेंद्र मोदी को चुनने के लिए तर्क दिया गया कि आख़िर यह जनतांत्रिक अधिकार है और मोदी को न चुनने के लिए कहना इस अधिकार का हनन है!

इस तर्क के अनुसार जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता में एक को ही चुना जा सकता था या धर्मनिरपेक्षता को स्थगित किया जा सकता था.

जनतंत्र के नाम पर अब कोई भी पक्ष लिया जा सकता है. इसका एक कारण यह भी है कि अब किसी चीज़ के कोई मायने नहीं: न मुक्ति, न समानता, न धर्मनिरपेक्षता, न पूंजी, न मज़दूर: सारे शब्द और अवधारणाएं व्यर्थ हो चुकी हैं:

यह एक चौथाई सदी खड़ी है तीन सदियों के मलबे पर
न मुक्ति की बात रही न मुक्ति-संग्राम की
औद्योगिक हड़ताल कैसी गर्वीले कामगार कहां
पूंजी पूंजी न रही, वित्त ही वित्त है अब
किस दुनिया में रहते हो साथी मज़दूर वर्ग अब एक मिथ है
वर्ग भी मिथ है मिथ हमेशा मिथ थी पर जब तक थी अच्छी थी

चूंकि हर बात ही मिथ है इसलिए अब किसी का मूल्य किसी से अधिक नहीं और किसी मूल्य के लिए संघर्ष का भी कोई अर्थ नहीं. जब यह सब बेकार है तो किसी भी तरह का समझौता स्वीकार्य होना चाहिए.

कविता एक असुविधाजनक सवाल उठाती है कि क्यों अस्मिता के सारे संघर्ष एक स्तर पर सतही और अर्थहीन हो गए? जो सबसे मुक्ति का सबसे बड़ा संघर्ष था, दलित मुक्ति का, क्यों उसने भी सांप्रदायिकता से समझौता कर लिया?

क्यों भारत की राजनीति, मुक्तिकारी राजनीति भी, मुसलमानों के ख़िलाफ़ की जा रही हिंसा को कम करके दिखलाना चाहती है? क्यों वह कहती है कि यह हिंसा वास्तविक नहीं है. मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा सिर्फ़ ध्यान बंटाने के लिए की जाती है:

ज़ोर से कहता है एक दलित विमर्शकार –
हिंदू मुस्लिम मामला खुली धोखाधड़ी है, साफ़ मिली-भगत है दोनों पक्षों की
ताकि दलितों का पक्ष सामने न आने पाए, थोड़ी बहुत मारकाट से क्या फ़र्क़ पड़ता है
असली लड़ाई दलितों की है, मियां लोगों की नहीं.

तो समाजवादी से लेकर दलित मुक्ति के योद्धा भी जिस प्रश्न को नक़ली मानते हैं, वह है अल्पसंख्यक या मुसलमानों के अधिकार का प्रश्न.

समाजवादी मानते हैं कि यह असली मुद्दे यानी जनतंत्र से ध्यान बंटाने की साज़िश है. दलित मुक्ति के सिद्धांतकार कहते हैं कि असली मसला यह है ही नहीं, यह दलितों के अधिकार के संघर्ष को पीछे करने की साज़िश भर है. जैसे समाजवादी सत्ता में जाने के लिए आरएसएस का साथ लेना जायज़ मानते हैं, वैसे ही दलित पार्टियां भी कहती हैं कि उनके लिए अभी सत्ता में जाना ज़रूरी है क्योंकि उनका असल सवाल सत्ता में भागीदारी का है.

धर्मनिरेपक्षता उनकी प्राथमिकता नहीं है और न उसे बचाना उनकी ज़िम्मेदारी है. एक बेपरवाह, उत्तरदायित्वहीन इकाई पैदा हो रही है जिसे जनतंत्र का वोटर कहते हैं. यह मात्र देखने वाला है:

जो लोग पर्दों पर निगाह गड़ाए रहते हैं यक़ीन मानिए पर्दा भी उन्हीं को देखता है
टेक्स्ट और ओरल तक न रह जाइए जानिए विज़ुअल डिजिटल वर्चुअल
ऐसा तादात्म्य इतिहास में कभी देखा नहीं गया कि यह दैनिक चमत्कार है

इसका नतीजा यह है:

हिंदुस्तान भी बस एक चमत्कार ही है दलालों ने हर चीज़ को खेल में बदल दिया है
वीडियो गेम से उकताते हैं तो मुसलमानों को मारने के लिए निकल पड़ते हैं
और जो रास्ते में आता है कहते हैं हम आपको देख लेंगे नम्बर आपका  भी आएगा जी.

मुसलमानों की मनचाहे वक्त और जगह पर हत्या या उस पर हिंसा आज के भारत की पहली सच्चाई है. लेकिन बहुत सारे लोग मानते हैं कि वह हिंसा असल बात नहीं, वह तो मात्र असल बात से ध्यान भटकाने की जुगत है. वह असली बात क्या है?

असल बात अब वही बता सकता है जो किसी एक साझा सत्य की सत्ता से इनकार करता है. कोई सत्य नहीं है. सब कुछ व्याख्या है. हर किसी को व्याख्या का अधिकार है:

यह एक चौथाई सदी खड़ी है तीन सदियों के मलबे पर
खुला मैदान है कहीं भी मूत लो, किधर भी निपट आओ

फिर यह देश किसका है? कौन इसका नागरिक है?

असल सचाई तो ये है कि
जो उत्तरसत्य पर ईमान लाए, है वही इस ज़मीन का सच्चा नागरिक.

21वीं सदी की पहली चौथाई के हिंदुस्तान के सफ़र की कहानी है यह कविता. तल्ख़ी है इसमें, लेकिन है गहरा दर्द अपने हिंदुस्तान के खो जाने का. अर्थ के खो जाने का. सत्य के खो जाने का. उसके बिना आदमी कहां और कहां है जनतंत्र?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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