1990 की गर्मियों में ज़िला प्रशिक्षण के लिए जब मैं नवनिर्मित उत्तर 24 परगना पहुंचा, तो पारा लंबे डग भरता ऊपर की ओर बढ़ा जा रहा था, पर कष्ट गर्मी से कम और आर्द्रता से ज़्यादा था. बारासात शहर में तब तक कोई परिदर्शन भवन (सर्किट हाउस) नहीं बन पाया था. मुझ जैसे प्रशिक्षणार्थी अधिकारी के लिए सरकारी अतिथि गृह एक ख़ास महत्व रखता था क्योंकि अक्सर यही उसका निवास भी होता था. हां, सरकारी कर्मचारियों के आवासीय परिसर में दो कमरों के दो छोटे फ़्लैट को ले कर उन्हें ‘परिदर्शन भवन’ नामित कर दिया गया था. उन्हीं में से एक फ़्लैट में मुझे जगह मिली. जून 1990 के अंत में मैंने कुछ दिनों की छुट्टी ली तथा अगले महीने अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ वापस बारासात लौट आया.
उन दिनों मेरा समय कलेक्ट्रेट के विभिन्न दफ़्तरों में बीत रहा था. भारत के हर प्रांत में ज़िला कलेक्ट्रेट के माध्यम से राज्य सरकार के कई और केंद्रीय सरकार के कुछ दफ्तरों के दायित्वों का निर्वाह होता है. इसीलिए प्रशिक्षण के दौरान इन अनुभागों के कार्यों और उनकी प्रक्रियाओं से अवगत होना आवश्यक है. बारी-बारी से हर सुबह मैं किसी न किसी अनुभाग- कभी राजस्व मुंशीखाना तो कभी न्यायिक मुंशीखाना, कभी आबकारी तो कभी समाज कल्याण, कभी पंचायत कभी कोषागार इत्यादि- में जाता और वहां के भार-प्राप्त अधिकारी एवं कर्मचारियों को कार्य करते देखता, लागू अधिनियमों और नियमों को पढ़ता, फ़ाइलों को समझने की कोशिश करता और जिज्ञासा वाद करता.
मैंने देखा कि वृद्ध किरानियों के पास ज्ञान, अभिज्ञता और कहानियों का भी भंडार रहता था और उनके पास बैठने से काफ़ी कुछ सीखा जा सकता था. श्रमिक आंदोलनों से अनुप्रेरित नई पीढ़ी के कर्मचारियों को कर्म ज्ञान और दायित्व से अधिक कर्म अधिकारों और मांगों की चिंता रहती थी. दफ़्तर के खुलने का समय तो 10.30 था लेकिन कुछ वरिष्ठ अधिकारियों और वृद्ध कर्मचारियों के अलावा शायद ही कोई व्यक्ति 11.00 या 11.30 से पहले ऑफ़िस पहुंचता था.
मेरे लिए केवल ज़िला प्रशिक्षण ही नया नहीं था, नए दांपत्य जीवन में भी काफ़ी कुछ सीखना था. नए प्रांत में नई जगह पर नई ज़िंदगी आरंभ करना हम दोनों के लिए ही दिलचस्प और अनिश्चितताओं से भरा हुआ था. जीवन में कभी-कभी ही मुहावरों को अक्षरशः साकार होते देखने का मौक़ा मिलता है, और मुझे आहिस्ता-आहिस्ता आटे-दाल का भाव पता चलने लगा. फ़्लैटनुमा सर्किट हाउस में रसोई तो थी पर रसोइया नहीं था. इसलिए अब तक तो मेरा खाना या तो एक छोटे से होटल से आता था या फिर मैं सहृदय ज़िला मजिस्ट्रेट या ज़िले के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के निमंत्रण का लाभ उठाता रहा था. घर में पत्नी के पदार्पण के बाद यह संभव नहीं था. वैसे तो हम दोनों का पाक विद्या से अब तक नाता नहीं जुड़ा था, लेकिन रसोई का उद्घाटन आवश्यक हो गया था.
दफ़्तर में खोज-खबर ली तो पता चला कि रेलवे स्टेशन के पास बाज़ार है, सुबह जल्दी खुल जाता है और वहां ज़रूरत की सारी चीजें मिल भी जाती हैं. यह भी जाना कि दिन में बारह बजे के बाद दुकान बंद कर दुकानदार विश्राम करते हैं और क़रीब चार बजे बाज़ार फिर शुरू होता है. रसोई को चालू करने के ख़्याल से उस दिन शाम को पत्नी के साथ मैं स्टेशन बाज़ार कुछ मसाले ख़रीदने पहुंचा. फुटपाथ के किनारे पीली साड़ी में लिपटी बैठी एक लंबी-चौड़ी श्यामा ने दुकान लगा रखी थी. नमक, हल्दी और लहसुन के बाद जब मैंने पांच सौ ग्राम तेज पत्ता मांगा तो वह महिला दोनों हाथों से अपना सिर पकड़ ज़ोर से हंस पड़ी, ‘नोतुन संशार! (नई गृहस्थी!)’
अगले दिन सुबह टहलते हुए मेरी पत्नी और मैं रेलवे स्टेशन की ओर निकले. सात भी नहीं बजे थे पर बाज़ार में गहमागहमी थी. दिनचर्या की वस्तुओं की सारी दुकानें भी सात बजे से पहले ही खुल गई थीं. प्रातः ही शहर के आस-पास के गांवों से आए ताज़ा सब्ज़ी और फल बेचने वाले दुकान लगा चुके थे तथा सब्ज़ी बाज़ार के एक तरफ़ विस्तार से मछली विक्रेताओं की चार क़तारें भी सज रही थीं. मैंने देखा कि हर ख़रीदार के हाथ में दो थैले हैं, जिनमें से साधारणतः एक नायलॉन का है. हमारे चारों ओर ज़मीन पर या छोटे चबूतरों पर कई तरह की सब्ज़ियों के ढेर तो थे ही, कम से कम पांच-छह प्रकार के साग भी दिखे.
हम लोग सब्ज़ी बाज़ार से होते हुए मछली के दुकानों की तरफ़ बढ़े. मीठे जल यानी पोखर, झील और नदियों, से लेकर खारे पानी यानी समुद्र और हुगली नदी-मुख की विभिन्न आकार की चमकीली मछलियों को देखकर मज़ा आ गया. वहां मुझे पता चला कि नायलॉन का झोला सिर्फ़ मछली रखने के काम आता है. मैं एक क्रेता और मछली वाले के बीच चल रहे सौदेबाज़ी के दांव-पेंच का मज़ा ले रहा था कि सहसा मुझे आभास हुआ कि सब कुछ सामान्य नहीं है. नज़र घुमाई तो पाया कि कुछ लोग मेरी पत्नी और मुझे अटपटी नज़रों से देख रहे हैं और अचानक मुझे ध्यान आया कि इस पूरे बाज़ार में मेरी पत्नी एकमात्र महिला है.
हालांकि, मेरे शहर हज़ारीबाग़ में हमारे पड़ोसी बंगाली थे और मैं अपने-आप को उनकी भाषा तथा जीवनशैली से परिचित मानता था, मैंने पाया कि मुझे बंगाली समाज और रहन सहन के बारे में बहुत कुछ जानना बाक़ी है. मध्यवर्गीय, ऑफिस-जीवी बंगाली सुबह नाश्ते की जगह भरपेट भोजन कर के दफ़्तर जाना पसंद करते हैं. इसके तीन फ़ायदे हैं- एक तो नियमित रूप से ताज़ा खाने का सेहतकारी अभ्यास; दो, इस गर्म और अति आर्द्र मौसम में साग, सब्ज़ी, और फल के रखे-रखे ख़राब होने के भय से मुक्ति; और, तीन, समूचे दिन की चुनौतियों से जूझने के लिए मज़बूत मनोदशा का निर्धारण.
इसके लिए हर बंगाली परिवार को प्रतिदिन ताज़ा पदार्थों का ख़रीदना अनिवार्य है, विशेष रूप से तीन चीजें – शाक-सब्ज़ी, मछली और मिठाई. उस वक्त मध्य-वर्ग में रेफ़्रिजरेटर का चलन अभी की तरह व्यापक नहीं हुआ था, लेकिन जिन परिवारों के पास फ्रिज था वो भी प्रतिदिन ताज़ा खाद्य सामग्री ख़रीदने के पक्ष में थे. धीरे-धीरे यह बात समझ में आई कि हर सुबह, और यदा-कदा शाम को, ‘बाज़ार’ करना परिवार के मुखिया या किसी अन्य समझदार पुरुष सदस्य का कर्तव्य है. सब्ज़ी और मछली बाज़ार में उस दिन क्या आया है देखकर, सूक्ष्म निरीक्षण कर, उंगलियों से छू-दबाकर समान की कोमलता या सख़्ती परखकर, तथा परिवार के सदस्यों की संख्या अनुसार अच्छी ताज़ा तरकारी और मछली का क्रय शायद दिन का परमावश्यक कार्य है.
इस प्रकार हर दिन घर में खाने की थाली में क्या परोसा जाएगा इसका निर्णय पुरुषों के हाथ में ही रहता है. गृहिणी बाज़ार के लिए घर से निकलते हुए पुरुष को झोले देते वक्त अपना मत प्रकट कर ही सकती हैं कि आज यह शाक और वह मछली ले आना. पर थैले में वापस क्या आएगा यह बाज़ार में सब्ज़ी या मछली की उपलब्धता पर और क्रेता की पसंद पर निर्भर करता है.
देश का पूर्वी क्षेत्र मां दुर्गा की प्रमुखता के कारण कभी-कभी देवी प्रदेश भी कहा जाता है. पश्चिम बंगाल में महिलाओं के साथ साधारणतः सार्वजनिक स्थानों, बस, ट्राम और रेलगाड़ी में सम्मान के साथ व्यवहार किया जाता रहा है. यह यहां की संस्कृति का एक मौलिक तत्व है. लेकिन दो दशक पहले भी सब्ज़ी-मछली बाज़ार में जाना और ‘बाज़ार’ करना महिलाओं के कार्य क्षेत्र के बाहर था.
पच्चीस साल बाद जब मेरा स्थानांतरण कलकत्ता हुआ तो कुछ चीजें बदली दिखीं. तब पहली बार बाज़ार में महिलाओं को सब्ज़ी और मछली ख़रीदते देखा, विक्रेताओं से मोल-भाव करते, और कभी-कभी तो उनसे वितर्क करते भी देखा. पश्चिम बंगाल के कुछ छोटे शहरों में भी मैंने ऐसा ही पाया. मुझे लगता है कि बारासात में भी सब्ज़ी और मछली बाज़ार में एक महिला का दिखना अब कोई अजूबा नहीं मानेगा.
(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)
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