पिछले पांच सालों में 13 हजार से ज्यादा दलित, पिछड़े और आदिवासी छात्रों ने आईआईटी, आईआईएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों की पढ़ाई छोड़ दी.
पढ़ाई छोड़ दी या छोड़ने के लिए मजबूर किया गया, इसको देखने समझने की जरूरत है.
आजादी के बाद हम वोट की बराबरी बेशक कायम करने में कामयाब हुए लेकिन सामाजिक स्तर पर बराबरी बहुत दूर का सपना बना हुआ है. पिछले दस सालों में तो हम एकदम विपरीत दिशा में भी बढ़ चले हैं. संविधान से ज्यादा मनुस्मृति दिनचर्या को निर्धारित करती हुई दिखाई दे रही है. खुलमखुल्ला दलित उत्पीड़न की फैलती आग के बीच ही मोदी को कहना पड़ा था कि मेरे दलित भाइयों को बख्श दो. उसके बावजूद स्कूलों में पानी का घड़ा छूने भर से हत्या तक हो जाती है. इतनी नफरत और हिंसा कैसे पैदा हुई, यह बहुत कठिन सवाल बना हुआ है.
हमारे देश में जातीय भेदभाव हमें अपनी परवरिश में ही मिल जाता है. किन बच्चों के साथ नहीं खेलना, खेल तो लेना पर उनके घर नहीं जाना, घर भी चले जाओ तो पानी नहीं पीना, कुछ खाना नहीं की ट्रेनिंग हमारे घरों में दे दी जाती है. इस ट्रेनिंग का उल्लंघन करने पर सज़ा भी दी जाती है ताकि दोबारा अपराध न किया जा सके.
मतलब यह है कि तथाकथित उच्च जातियों के घरों में दलितों, आदिवासियों की तरफ ध्यान न देना, अनदेखा और अनसुना करना सीखाया जाता है. बचपन की यह ट्रेनिंग बड़े होकर किसी के लिए जानलेवा हो जाती है.
फिर मध्यम वर्ग के घरों में कामवाली के लिए अलग बर्तन, बैठने की अलग जगह देना भी एक ‘अलग’ ही संस्कृति का निर्माण करता है. अलग कुएं, अलग बस्तियां, अलग गलियां, अलग श्मशान एक व्यवस्था की तरह स्थापित किए गए हैं और हमारी सामाजिक व्यवस्था इसके उल्लंघन की इजाज़त कतई नहीं देती. उच्च जाति के घरों के आसपास से बिना चप्पलों के चलना और साइकिल पर भी नहीं चढ़ना आज भी हो रहा है.
नए कपड़े पहनने पर, मूंछे रखने पर, शादी-बारात में घोड़ी चढ़ने पर विवाद ही नहीं होता, हत्याएं हो जाती हैं. इस सामाजिक व्यवस्था की ताकत यही है कि इसको अपराध नहीं, सम्मान की तरह देखा जाता है. हम साफ साफ देख सकते हैं कि ऊंच-नीच और भेदभाव करने वाली व्यवस्था को बनाए रखने के लिए और रोजमर्रा के जीवन में लागू करने के लिए कड़े नियम कायदे मौजूद हैं.
घरों और आसपास के माहौल में ऐसा होता देख कोई भी इसी जीवन को सामान्य और सार्वभौमिक मानने को तैयार हो सकता है. बल्कि ऐसी समाज व्यवस्था को कायम रखने के हक़ में खड़े होने को तैयार हो सकता है.
चाय की दुकानों पर चुपचाप अलग कप में चाय पीकर साफ करके रखना व्यवस्था को बनाए रखना और शांति बनाए रखने की श्रेणी में आता है. छुआछूत को स्वीकार कर लेना सामाजिक व्यवस्था और धर्म की मर्यादा का पालन करना है. ऐसी शांति और व्यवस्था जिसमें भेदभाव, कमतर करके देखना, बराबरी की भावना को कुचलना और उत्पीड़न को न्याय की तरह पेश करना जाहिर है आलोचना, विरोध और विद्रोह की संभावना को जन्म देती है.
ऐसी समाज व्यवस्था में हमारे शिक्षा के उच्च संस्थानों में भेदभाव और छुआछूत की व्यवस्था भी ‘उच्च’ ही बनाएंगे. जिस तरह से हमारे गांव और देहात व्यवहार कर रहा है, उसी तरह से हमारे उच्च संस्थानों में भी व्यवहार हो रहा है. हमारी संसदीय समिति ने बताया कि दलित, पिछड़े और आदिवासी छात्रों को आईआईटी, आईआईएम और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कभी भी इनका कोटा पूरा नहीं होने दिया जाता.
थ्योरी में अच्छे नंबर लेने वालों को भी प्रैक्टिकल में फेल कर दिया जाता है. उच्च शिक्षा के संस्थानों में करीब 98 फीसदी प्रोफेसर और 90 फीसदी से ज्यादा सहायक प्रोफेसर तथाकथित उच्च वर्ग से संबंधित हैं. घरों और समाज की कड़ी ट्रेनिंग से गुजरे ये लोग, वास्तविक न्याय को कितना समझते होंगे?
आबादी का बहुत छोटा हिस्सा होते हुए भी इनका इतना भारी बहुमत भी इनके हौसलों को और बढ़ाता होगा. तभी तो इन संस्थानों में पढ़ने वाले दलित, पिछड़े और आदिवासी भले ही अपनी वांछित संख्या से कम हों पर आत्महत्या करने वालों में इनकी संख्या करीब 56 फीसदी है.
हमारी सरकार के आंकड़े ही बताते हैं कि अध्यापकों के 11 हज़ार से ज्यादा पद खाली हैं. 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से सिर्फ 33 में एससी/एसटी श्रेणी में अध्यापकों के 1,097 पदों को भरा जाना था लेकिन सिर्फ 212 को ही भरा गया. 33 विश्वविद्यालयों में से 18 में तो इस श्रेणी से एक भी पद नहीं भरा गया. ऐसा होना और होते रहना, अपने हक़ को रोज रोज मरते देखने वाली आबादी के इस हिस्से की निराशा और हताशा धकेलेगा और इसके मुकाबले तथाकथित उच्च जातियों में घमंड और दबंग होने को भी तो उभारता है.
जातीय भेदभाव और उत्पीड़न को हमने संस्थागत रूप देकर सामान्यकरण कर दिया है. एम्स के बारे में एक समिति के अध्ययन से पता चला कि दलित पिछड़े और आदिवासी छात्रों को बार-बार बेवजह फेल कर दिया जाता है.
रोहित वेमुला जैसा चमकता सितारा इस देश ने इसी संस्थागत जातिवाद और उत्पीड़न के कारण खो दिया. मोदी राज को चुनावी तानाशाही तो अब कहा गया है लेकिन जनतंत्र का गला घोंटने के खिलाफ शुरुआती शहादत रोहित वेमुला की ही थी.
रोहित वेमुला की लड़ाई अपने हक़ के लिए थी, लेकिन विभाग, वायस चांसलर, स्थानीय भाजपा नेता और देश की शिक्षा मंत्री तक शामिल रहे उसके उत्पीड़न में और आत्महत्या की ओर धकेलने में. शिक्षा संस्थानों में इसी उत्पीड़न और अपमान के खिलाफ रोहित वेमुला एक्ट बनाने की मांग उठी. लेकिन आज रोहित वेमुला केस की फाइल ही बंद कर दी गई.
उच्च से उच्च संस्थानों में रोजमर्रा होने वाले भेदभाव और अपमान की परिस्थितियों के कारण ही 13 हजार से ज्यादा छात्र अपने सुनहरे जीवन का सपना और देश के लिए कुछ कर गुजरने के जज़्बे को छोड़ देने पर मजबूर होते हैं.
मुंबई में डाक्टर बनने की तैयारी करने वाली पायल तड़वी ने अपने सुसाइड नोट में बताया कि भेदभाव, अपमान और उत्पीड़न किस तरह हदें पार करता है. उसके साथ पढ़ने वाले छात्र उसमें शामिल हैं, शिकायत की अनदेखी करने वाले शिक्षक और प्रशासन उसमें शामिल हैं.
उसने लिखा कि जो कुछ उसका सीखने का हक़ और काम है, उसे नहीं करने दिया गया, उसको लेबर रूम में नहीं जाने दिया गया, जब दूसरे छात्र लेबर रूम में सीख रहे थे, पायल को बाहर खड़े रहना पड़ता था. उसको क्लर्क द्वारा किए जाने वाले काम दिए जाते थे और उसकी शिकायतों को सुनने वाला कोई नहीं था. इन परिस्थितियों के बीच ही छात्र बेहतर जीवन की बजाय सिर्फ जीवन को चुनकर शिक्षा छोड़ देते हैं और वापस लौट जाते हैं.
देश की राजधानी दिल्ली के आईआईटी में बीटेक के छात्र अनिल कुमार और आयुष आश्ना की आत्महत्या ने एक बार तो राजधानी को झकझोर दिया था. वहां के छात्रों ने भी आत्महत्या की ओर धकेलने वाले माहौल के बारे में चिंता भी जताई. लेकिन तथाकथित उच्च जातीय पृष्ठभूमि से आए अध्यापकों और छात्रों को उन दबावों का कोई अंदाजा नहीं है, जिससे इन छात्रों को गुजरना पड़ता है.
हमारे उच्च शिक्षा के संस्थानों में ऐसी परिस्थितियों का होना, यही बताता है कि अभी तक शिक्षा जीवन रूपांतरण का काम नहीं कर रही. हमारे अशिक्षित या कम शिक्षित समाजों में जो जीवन व्यवहार हो रहा है वही उच्च शिक्षा संस्थानों में भी दोहराया जा रहा है.
रोहित वेमुला की शहादत के बाद उभरे रोहित वेमुला एक्ट को कहीं भी लागू नहीं किया गया है. रैगिंग के खिलाफ कानून है और लागू भी किया जा रहा है लेकिन ‘जातीय रैगिंग‘ के खिलाफ संस्थान अभी तक खामोश हैं और लापरवाह हैं. आईआईटी मद्रास के दलित अध्यापक विपिन वीटिल ने भी जातीय भेदभाव के कारण संस्थान छोड़ना पड़ा है. हम कोई न्याय करने वाली व्यवस्था नहीं बना रहे हैं.
आंबेडकर ने संविधान को देश को समर्पित करते हुए कहा था कि हम राजनीतिक समानता बेशक हासिल कर ली, पर सामाजिक समानता एक जटिल लड़ाई है और सामाजिक समानता के बिना राजनीतिक समानता भी बच नहीं पाएगी. आज हम इसी दोराहे पर हैं.
पिछले दस सालों में पूरे ही माहौल में बराबरी और न्याय की आवाज बहुत पीछे चली गई है. बराबरी की दिशा बनाने वाले आरक्षण को ही संदिग्ध बनाने की हवा बह रही है.
ऐसे में उच्च शिक्षा के संस्थानों में जातीय भेदभाव और उत्पीड़न को मिटाए बिना, समानता और न्याय हासिल नहीं हो सकते. जाहिर है तथाकथित उच्च जातीय वर्ग यह काम अपने हाथ में नहीं लेगा. इसके लिए वंचित तबकों को ही नेतृत्व लेना होगा.
(नरेश प्रेरणा कवि और नाटककार हैं.)