यह सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने से एक दिन पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के सदस्यों ने उदयपुर के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्यापक डॉ. हिमांशु पंड्या की कक्षा में जबरदस्ती घुसकर हंगामा किया, उन्हें अपमानित किया और उन्हें कक्षा और परिसर से बाहर जाने को मजबूर किया. इस दौरान वे लगातार उन्हें हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी कहते रहे. डॉ पंड्या ने इस घटना के बारे में फेसबुक पर लिखा,
‘इस समय बीस पच्चीस की संख्या में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता उस सेमिनार हॉल में घुस आए. उन्होंने मेरी कक्षा को रोक दिया. वे मेरी एक बहुत पुरानी पोस्ट – जनवरी में लिखी गई एक पोस्ट जिसे मैंने ‘स्मृति बाबरी मस्जिद’ शीर्षक दिया था, के प्रिंट आउट्स लेकर आये थे. ( मेरी टाइम लाइन में फिलहाल वह पोस्ट काफी नीचे है तो उन्हें खोदकर निकालने में मेहनत करनी पड़ी होगी!) मैंने उन्हें निवेदन किया कि अभी मेरा व्याख्यान किसी और महत्त्वपूर्ण विषय पर चल रहा है, पहले उसे पूरा हो जाने दें और बेशक वे सब भी बैठकर सुनें. जाहिर है, उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था.
यह तो आप समझ ही सकते हैं कि इस बीच उनका चिल्लाना जारी था और मुझे देशद्रोही, हिंदू विरोधी आदि घोषित किया जा चुका था. कोर्स को कोऑर्डिनेटर डॉ. कुशपाल गर्ग इस बीच आ गए थे और मेरी सुरक्षा को लेकर वे मुझसे ज्यादा चिंतित थे. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं क्लास छोड़कर उनके साथ चलूं ( जो मैं वैसे भी करने वाला था क्योंकि क्लास चलना अब असंभव था और उनसे कोई बहस करना दीवार से सर फोड़ने जैसा था.)’
डॉक्टर पंड्या को शारीरिक रूप से कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया और इसके लिए हमें एबीवीपी का का आभारी होने के लिए कहा जाएगा. डॉ. पंड्या एक हिंदी विद्वान और प्रोफेसर हैं और उन्हें विश्वविद्यालय द्वारा शोध पद्धति पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया था. उनके व्याख्यान को बाधित करना, कक्षा में बाधा पहुंचाना, सबको संभावित हिंसा से डराना गुंडागर्दी है, विरोध नहीं.
डॉ. पंड्या को अकेले ही परिसर से जाना पड़ा. यह काफी निराश करनेवाली बात है कि कॉलेज के अधिकारियों ने पुलिस को बुलाना और डॉ. पंड्या को सुरक्षा देना और यह सुनिश्चित करना आवश्यक नहीं समझा कि वे सुरक्षित अपने घर पहुंचें. उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया, यह उनकी आपराधिक उदासीनता के पक्ष में कोई तर्क नहीं.
यह तो एबीवीपी वालों का निर्णय था कि डॉक्टर पंड्या पर हमला नहीं हुआ. इसके उलट भी हो सकता था? क्यों अधिकारियों ने यह नहीं सोचा?
डॉक्टर पंड्या लिखते हैं,
‘सेमिनार हॉल से नीचे आने के बाद माहौल को देखते हुए डॉ. गर्ग ने मुझसे फिर कहा कि मैं फिलहाल वहां से चला जाऊं. उन्होंने एक शोधार्थी से कहा कि वह अपनी बाइक पर मुझे छोड़ दे. उस शोधार्थी की बाइक की चाबी परिषद के इन कार्यकर्ताओं ने निकाल ली और उसे धमकाने लगे. मुझे अचानक उस शोधार्थी की चिंता हुई तो मैने कहा कि वे लोग शांति बनाए रखें, मैं तो पैदल ही चला जाऊं’गा.
फिर हुआ ये कि मैं पैदल पैदल संकाय परिसर से बाहर आया और विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता मुझे घेरकर नारे लगाते हुए चले. जैसे बिदाई के बाद दूल्हे के साथ घर के दरवाजे के आगे सौ पचास मीटर तक चला जाता है, वैसे उन्होंने मेरा साथ दिया. इन सारे महत्त्वपूर्ण क्षणों को कैद करने के लिए उनमें से कई वीडियो भी बना रहे थे
हिंदुत्ववादी गिरोहों के लिए हिंसा करना पर्याप्त नहीं है. वे इसे एक तमाशा बनाना चाहते हैं और बड़ी आबादी के बीच अपनी हिंसा को वितरित हैं ताकि जो प्रत्यक्ष हिंसा नहीं कर सके, वे भी इसमें भाग लें और इसका आनंद लें.’
डॉक्टर पंड्या परिसर से जबरन बाहर निकालने के बाद एबीवीपी के लोग प्रोफेसर सुधा चौधरी के कक्ष में गए, जो दर्शनशास्त्र की वरिष्ठ प्रोफेसर हैं और उस कोर्स की प्रभारी हैं जिसके लिए डॉ. पंड्या को आमंत्रित किया गया था. वे डॉ. पंड्या और उन्हें आमंत्रित करने के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई चाहते थे. प्रोफेसर चौधरी लंबे समय से एबीवीपी के निशाने पर हैं और उन्होंने पहले भी उनके धर्मनिरपेक्ष और स्वतंत्र रुख के लिए उन्हें परेशान करने और हमला करने की कोशिश की है.
बाद में एबीवीपी के लोगों ने मीडिया को बताया कि उन्होंने परिसर से एक फिलिस्तीन समर्थक व्यक्ति को बाहर निकाल दिया है.
डॉ. पंड्या ने फेसबुक पर लिखा कि वे एबीवीपी के लोगों से इस बारे में चर्चा करना चाहते हैं और उन्हें बताना चाहते हैं कि उनकी अपनी सरकार फिलिस्तीनियों के अपने राज्य के अधिकार का समर्थन कर रही है. लेकिन क्या एबीवीपी के लोग चर्चा और संवाद में रुचि रखते हैं?
वीडियो में हम देख सकते हैं कि प्रोफेसर चौधरी एबीवीपी के लोगों से कह रही हैं कि हर किसी को अपनी राय रखने का अधिकार है, लेकिन वे उनकी बात सुनने से इनकार कर देते हैं. बाद में उनमें से एक मीडिया से कहता है कि वे सरकार से कहेंगे कि प्रोफेसर चौधरी और डॉ. पंड्या जैसे शिक्षकों को अनुशासित करें और उन्हें घर पर बैठा दें ताकि छात्रों के दिमाग को प्रदूषित न कर सकें.
उनकी धमकी को गंभीरता से लिया जाना चाहिए. यह समझने के लिए कि क्या कुछ हो सकता है, हमें नौ साल पहले इसी विश्वविद्यालय में हुई एक घटना को याद करना होगा, जिसमें एबीवीपी और आरएसएस के लोगों ने दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सुधा चौधरी और प्रोफेसर अशोक वोहरा के पुतले जलाए थे, जिन्हें उन्होंने ‘धार्मिक संवाद: आधुनिक अनिवार्यता’ (धार्मिक संवाद: समकालीन समय में आवश्यकता) पर एक सेमिनार में बोलने के लिए आमंत्रित किया था.
तब एबीवीपी और आरएसएस ने आरोप लगाया कि प्रोफेसर वोहरा ने हिंदू देवी-देवताओं का अपमान किया है. यह अलग बात है कि बेचारे प्रोफेसर वोहरा केवल पश्चिमी भारतविदों की आलोचना करने के लिए उनके लेखों से उद्धरण दे रहे थे .
इसका बेतुकापन बात तब समझ में आता है जब हम याद करते हैं कि इसके बाद राजस्थान के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ने विश्वविद्यालय को प्रोफेसर वोहरा और प्रोफेसर चौधरी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया था. उनका कहना था, ‘मैंने उनकी स्क्रिप्ट पढ़ी है… हिंदू देवी-देवताओं के लिए इस तरह की अभद्र भाषा बर्दाश्त नहीं की जाएगी, राजस्थान में तो बिल्कुल भी नहीं…’
हम उनकी निरक्षरता पर हंस सकते हैं लेकिन दोनों प्रोफेसरों के लिए खतरा वास्तविक था. प्रोफेसर वोहरा को प्रधानमंत्री से अपनी सुरक्षा के लिए अपील करनी पड़ी.
जैसा कि तब मीडिया ने बताया था, ‘दिल्ली विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र विभाग के पूर्व प्रमुख प्रोफेसर अशोक वोहरा ने अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर उनसे हस्तक्षेप करने और उनसे आग्रह करने के लिए कहा है कि ‘जब तक लिखित व्याख्यान को किसी सक्षम विद्वान द्वारा पढ़ा नहीं जाता है, तब तक मेरे खिलाफ एफआईआर दर्ज करने को स्थगित रखा जाए.’
2015 के बाद से स्थिति उतनी बदली नहीं हैं. राजस्थान और देश के अन्य हिस्सों में हालात और खराब हो गए हैं. एबीवीपी कानून बनाने वाला बन गया है. कक्षाओं, व्याख्यानों, फिल्म प्रदर्शन, प्रदर्शनियों और कार्यक्रमों में बाधा पहुंचाना उसके लिए आम बात है और इसे उसका अधिकार मान लिया गया है. एबीवीपी हर उस चीज़ के ख़िलाफ़ हिंसा कर सकता है जिसे वह राष्ट्रविरोधी बताता है.
पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज ने डॉ. पंड्या के अपमान की निंदा करते हुए कहा है कि राजस्थान के सभी विश्वविद्यालयों में धर्मनिरपेक्षता, समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में बात करना असंभव हो गया है. एबीवीपी और प्रशासन का डर, जो ज्यादातर मामलों में एबीवीपी का सहयोगी बन जाता है, ऐसा है कि कोई भी शिक्षक इन मुद्दों को ज़बान पर नहीं लाना चाहता.
डॉ. हिमाशु पंड्या पर हमले और उनके अपमान की ताजा घटना हमें केवल यह बताती है कि राजस्थान में शिक्षा किस हिंसक माहौल में काम कर रही है. सिर्फ राजस्थान में ही क्यों, यह अब पूरे भारत में आम बात हो गई है. दिल्ली विश्वविद्यालय में हम हर दिन इसका सामना करते हैं. विश्वविद्यालय जीवन एबीवीपी की मर्ज़ी का बंधक है और प्रशासन उसके आगे नतमस्तक है.
जब आपको मालूम है कि ऐसे विषय हैं जिन पर आप परिसर में चर्चा नहीं कर सकते, जब आप लगातार अपने शब्दों पर नियंत्रण रखते हैं, जब आप अन्य मंचों पर भी बोलना या लिखना बंद कर देते हैं, क्योंकि इससे आपको नुक़सान हो सकता, जैसा कि हम डॉ. पंड्या के विरुद्ध हिंसा के मामले में देख सकते हैं, तब क्या हम कह सकते हैं कि भारत में विश्वविद्यालय जीवित हैं?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)