नई दिल्ली: क्या यह महज संयोग है कि देश के मतदाताओं ने जैसे ही विपक्ष को ताकत बख्शी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ‘लोकतांत्रिक मूल्यों व मर्यादाओं के पैरोकार’ बनकर अपने राजनीतिक फ्रंट भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) व उसके ‘महानायक’ नरेंद्र मोदी को ‘आईना दिखाने’ का भ्रम रचने लगे कि देर से ही सही, आरएसएस व भाजपा-मोदी के अंतर्विरोधों की परतें उलझ़ने व उधड़ने लगी हैं?
‘नहीं, कतई नहीं.’ आरएसएस व भाजपा की रीति-नीति को ठीक से समझने वाले प्रेक्षकों के निकट इस सवाल का एक ही ‘डेफिनिट, सर्टेन, पॉजिटिव एंड ऐब्सोल्यूट’ जवाब है, ‘यह संयोग नहीं, अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीकाल में शुरू हुए आरएसएस के बेहद महत्वाकांक्षी प्रयोग की पुनरावृत्ति है और इसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता के साथ विपक्ष की भूमिका को भी हथिया लेना है. ताकि इनमें से कोई भी पक्ष परिवार की पहुंच से बाहर न रहे और दोनों में उसकी भरपूर रसाई हो.
अटलकाल के प्रयोग की पुनरावृत्ति
अटल के सत्ताकाल में होश संभाल चुके पाठकों को अभी भी याद होगा कि तब कैसे ताकतवर विपक्ष द्वारा उनके और उनकी सरकार के विरुद्ध किए जाने वाले विकट हमलों की धार कुंद करने के लिए आरएसएस ने उन पर अपनी ओर से हमले प्रायोजित किए थे. इस क्रम में उसके मजदूर नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी ने अटल को ‘भारत के इतिहास का सबसे कमजोर प्रधानमंत्री’ तक बता डाला था. इतना ही नहीं, अटल के राजकाज चलाने की शैली, यहां तक कि मंत्रियों के चयन तक को लेकर भी संघ निर्मम आलोचनात्मक रुख अपनाया करता था.
मोदी खुशकिस्मत हैं कि वे अपने अब तक के दस सालों में संघ के उस तरह के मर्मांतक प्रहारों से बचे रहे हैं. कारण यह है कि इस दौरान, 2014 और 2019, दोनों लोकसभा चुनावों में उन्हें अटल के विपरीत बेहद लुंज-पुंज विपक्ष मिला. जिस पर वे उनकी आसमानी उड़ानों के दिन थे- ‘कांग्रेसमुक्त (पढ़िए विपक्षमुक्त) भारत’ के आह्वान के. स्वाभाविक ही, आरएसएस ने ऐसे निर्जीव विपक्ष से उसकी भूमिका छीनने की जरूरत नहीं समझी. अन्यथा अब यह जरूरत समझकर भागवत, मोदी और उनकी सरकार की जिन मनमानियों का अब जिक्र कर रहे हैं, उनका जन्म उसी दौर में हुआ.
यहां एक और सवाल मौजूं है. लोकसभा चुनाव में भाजपा बहुमत से पीछे नहीं रह जाती और मोदी उसे ‘चार सौ पार’ ले जाने का चमत्कार कर दिखाते, तो भी मोहन भागवत उनके अहंकार, मर्यादाविहीनता और मणिपुर को साल भर जलता छोडे़ रहने को लेकर इतने ही मुखर होते?
नहीं, उनका पिछले दस सालों का बर्ताव गवाह है कि तब वे ‘जा दिसि बहै बयारि पीठि तब तैसी’ कर लेते. आश्चर्य नहीं कि उनके गुन भी गाते. आखिरकार, 22 जनवरी 2023 को अयोध्या में रामलला की बहुप्रचारित प्राण-प्रतिष्ठा तक तो उनका यही कहना था कि ‘मोदी तपस्वी होने के लिए जाने जाते हैं.’
उस वक्त उन्हें धर्मनिरपेक्ष भारत के प्रधानमंत्री के एकतरफा तौर पर बहुसंख्यकों के धर्म के प्रायोजक बन जाने में भी कोई मर्यादाविहीनता नहीं दिखी थी. अभी भी, उनके जम्बो मंत्रिमंडल में मुसलमानों की नाममात्र की भी भागीदारी न होने में उन्हें कुछ भी अनुचित या अलोकतांत्रिक नहीं लगता.
तब तो चुप्पी साधे रखी
ठीक है कि अब उन्हें उस ‘तप’ पर अहंकार हावी दिखने लगा है, लेकिन तब उपवास भी तप दिखाई देता था. तभी तो उन्होंने ‘सच्चे सेवक के अहंकार से परे रहकर, दूसरों को नुकसान पहुंचाए बिना और मर्यादा का पालन करते हुए काम करने’ की बात तब नहीं कही. लोकसभा चुनाव का मुकाबला झूठ पर आधारित हो गया तो भी उन्होंने यह ‘व्यवस्था’ देने के लिए उसके नतीजे आ जाने तक का इंतजार किया कि ‘मर्यादा का खयाल रखा जाना चाहिए था’.
गौर कीजिए, अगर वे तभी हस्तक्षेप करते जब लोकसभा चुनाव को युद्ध की तरह लड़ा जाने लगा था और मोदी अपने घृणा के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अंट-शंट कुछ भी बोलकर लगातार सामाजिक व मानसिक दरारें व विभाजन बढ़ाने पर उतर आए थे, तो देश और देशवासियों का कितना भला होता! लोकसभा चुनाव से पहले कमजोर विपक्ष बारंबार मणिपुर का सवाल उठा रहा था, संसद में भी और उसके बाहर भी, और निरंकुश मोदी दोनों जगहों पर उसकी अनसुनी कर रहे थे. तब भागवत एक बार कह देते कि मणिपुर की समस्या को प्राथमिकता के आधार पर निपटाना प्रधानमंत्री का कर्तव्य है, तो इसका उनके आज यह कहने से सौ गुना ज्यादा असर होता.
लेकिन उन्होंने इसके लिए चतुराईपूर्वक अनुकूल समय की प्रतीक्षा की, और मुंह खोला तो भी लोकसभा चुनाव के दौरान ‘दोनों पक्षों ने कमर कसकर हमला किया’ कहते हुए ‘अनुकूलित सत्य’ से ही काम चलाया. यह कहने का साहस नहीं किया कि सत्तापक्ष ने अपनी निरंकुशता की कोई भी सीमा नहीं मानी. और तो और, ‘चुनाव प्रचार में अकारण आरएसएस को घसीटा और झूठ फैलाया गया’ तो भी चुनाव नतीजों से पहले उनके होंठ नहीं खुले. विभिन्न मुद्दों पर आम सहमति की परंपरा भी उन्हें तभी याद आई जब मोदी की सरकार एनडीए सरकार में बदल गई.
क्या इसका अर्थ यह नहीं कि मोदी सरकार के ‘विपक्षविहीन’ रहने तक उन्हें मर्यादाविहीनता और अहंकार से कोई दिक्कत नहीं थी, और अब यह दिक्कत इसलिए होने लगी है क्योंकि वह ताकतवर विपक्ष से उसकी भूमिका की चमक ‘छीन’ लेना चाहते हैं. क्या पता कि विपक्ष इस बात को समझ भी रहा है या कई हलकों की तरह इसे अपनी ओर फेंके गए जाल के बजाय उम्मीद की तरह ले रहा है. गोकि इसमें उसके लिए उतनी भी संभावना नहीं है, जितनी भाजपा की सामान्य-सी अंतर्कलह या मोदी योगी अंतर्विरोध में हो सकती है.
विरोधी तो कब के ‘दुश्मन’ बन चुके
सोचिए जरा, पिछले दस सालों में विपक्षी नेताओं से दुश्मनी निभाती आ रही मोदी सरकारों के खिलाफ एक भी शब्द न बोलने वाले भागवत अब विपक्ष के लिए विरोधी के बजाय प्रतिपक्ष शब्द प्रस्तावित कर सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष को एक ही सिक्के के दो पहलू बताकर खुश हो रहे हैं, जब कि किसी भी लोकतांत्रिक देश को सत्तापक्ष व प्रतिपक्ष को एक ही सिक्के के दो पहलुओं में बदल जाने से डरना चाहिए. क्योंकि यह स्थिति उसे किसी भी सामाजिक या राजनीतिक परिवर्तन की संभावना से महरूम करने की ओर ले जाती है.
यकीनन, भागवत ने अपने भाषण में कुछ ‘भली’ बातें भी कही हैं. वैसे ही, जैसे पहले कहते रहे हैं. मिसाल के तौर पर, इस देश के सभी लोग भाई-भाई हैं और हिंदुओं व मुसलमानों का डीएनए एक है. लेकिन चूंकि उनका परिवार ऐसी ‘भली’ बातों को जुबानी जमा-खर्च तक ही सीमित रखता है, अमल में नहीं लाता, इसलिए वे कोई आशा नहीं जगातीं. इसलिए कि मनुस्मृति और ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता पर आधारित हिंदू राष्ट्र की स्थापना का आरएसएस का लक्ष्य उनका पीछा करता रहता है. भारत का लोकतंत्र तो उनसे कोई आशा ही नहीं करता.
सच पूछिए तो इस बार मोदी के ‘चार सौ पार’ के नारे ने भी आरएसएस के इसी लक्ष्य की कीमत चुकाई. मतदाताओं को डर लगा कि भाजपा को ‘चार सौ पार’ पहुंचाने के बाद मोदी संविधान बदलकर देश को आरएसएस के सपनों का हिंदू राष्ट्र बना देंगे और उन्होंने इस डर के प्रतिरोध का फैसला किया. भागवत बोल ही रहे थे तो उनको इस स्थिति पर भी कुछ कहना चाहिए था, लेकिन इस पर वे ‘बुद्धिमत्तापूर्वक’ मौन साधे रहे.
हार टालते कि उसके अंदेशे और बढाते?
अकारण नहीं कि कई लोग कहते हैं कि ‘मोदी के नेतृत्व में सक्षम हो चुकी’ भाजपा को लोकसभा चुनाव में आरएसएस की मदद की जरूरत न होने जैसी जो बातें भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से साक्षात्कार में कहीं, वे हार को सामने खड़ी देखकर आरएसएस को हार के लांछनों से बचाने का प्रयास भर थीं.
अब कई शब्दजालों के बीच भागवत भी यही ‘सिद्ध’ कर रहे हैं – यह कहकर कि ‘हमसे तो ठीक से कहा ही नहीं गया’, वरना अहंकार व आभासी प्रचार के कारण भाजपा की जो हालत हुई है, उसे न होने देते – तो भी इसी दृष्टिकोण की पुष्टि होती है.
ऐसे में सवाल है कि पराक्रमी आरएसएस ‘बहुत सक्रिय होकर’ भी भाजपा की हार कैसे टालता? उलटे वह ‘चार सौ पार’ के मोदी के नारे से जुड़े देश के संविधान व लोकतंत्र के खात्मे का डर और बढ़ा देता और भाजपा की हालत और पतली कर देता.
जाहिर है कि जमीनी हालात के मूल्यांकन में मोदी व भाजपा से हुई गलती में आरएसएस का भी हिस्सा है. कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद चुनाव जीतने के लिए हिंदुत्व और मोदी का नाम पर्याप्त नहीं रह जाने की बात लिखते हुए उसके अंग्रेजी मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजर’ ने यह भी कहा था कि हिंदुत्व और मोदी का नाम तभी काम करते हैं, जब राज्यों में अच्छा शासन हो. लेकिन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में भाजपा की शानदार जीत के बाद ऐसी कोई कड़ी बात कहने से वह सायास परहेज बरतता रहा. अब जरूर फिर से तेवर दिखा रहा है.
तो देश को क्या?
अंत में यह भी गौरतलब है कि मोदी के दस साल के राज में आरएसएस के स्वयंसेवकों ने सारी लोकतांत्रिक शुचिताओं पर पाद-प्रहार करते हुए न सिर्फ केंद्र व ज्यादातर राज्य सरकारों के नेतृत्व बल्कि शीर्ष संवैधानिक पदों व संस्थाओं पर भी कब्जा कर लिया और लगातार उनकी गरिमा के क्षरण में लगे रहे, तो भी भागवत को किसी लोकतांत्रिक मर्यादा की याद नहीं आई. उन्होंने कभी ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि आरएसएस अभीष्ट हिंदू राष्ट्र के लिए लोकतांत्रिक भारत से कभी प्रत्यक्ष तो कभी प्रच्छन्न दुश्मनी की अपनी पुरानी नीति से परहेज बरतेगा या अपने नजरिये को प्रतिगामिताओं से मुक्त करेगा.
अगर वह ‘मनुस्मृति’ के तर्कों से दलितों, पिछड़ों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक मानने की अपने संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और ‘गुरू जी’ यानी माधव सदाशिव गोलवलकर के सोच के दायरे को फलांगना ही नहीं चाहता और कुछ बेहिस ‘भली’ बातों के सहारे अपनी लोकतांत्रिकता का नया भ्रम रचना चाहता है, तो उसके द्वारा मोदी व उनकी सरकारों के अहंकार व अहमन्यता की आलोचना का भला क्या हासिल और उससे देश को कोई उम्मीद क्यों कर होनी चाहिए? खासकर तब जब देश ने इसके लिए बाकायदा एक शक्तिशाली विपक्ष चुन लिया है.
देश इस भ्रम का शिकार भी क्यों हो कि भागवत भी उसी लोकतंत्र की बात कर रहे हैं, जिसकी विपक्ष करता है. जबकि, संघ के विकल्प बिल्कुल साफ हैं – हिंदू लोकतंत्र, कॉरपोरेटी लोकतंत्र, इन दोनों के घालमेल वाला लोकतंत्र या संवैधानिक लोकतंत्र?