नई दिल्ली: एनसीईआरटी की संशोधित की गई कक्षा 11 की राजनीति विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में कहा गया है कि वोट बैंक की राजनीति ‘अल्पसंख्यक तुष्टिकरण’ से जुड़ी है और इसका अर्थ यह है कि राजनीतिक पार्टियां ‘नागरिकों की समानता के सिद्धांतों की अवहेलना कर अल्पसंख्यक समूह के हितों को प्राथमिकता देती हैं.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, यह बदलाव किताब के 2023-24 संस्करण के खंड से भिन्न है, जिसमें ‘अल्पसंख्यक तुष्टिकरण’ शब्द का उल्लेख नहीं था.
पाठ्यपुस्तक के दोनों संस्करणों में धर्मनिरपेक्षता वाले अध्याय में ‘भारतीय धर्मनिरपेक्षता की आलोचना’ वाले खंड में ‘वोट बैंक की राजनीति’ पर दो पैराग्राफ हैं.
इस खंड में- 2023-24 और 2024-25 दोनों पाठ्यपुस्तक संस्करणों में कहा गया है, ‘यदि धर्मनिरपेक्ष नेता जो अल्पसंख्यकों के वोट मांगते हैं, उन्हें वह भी देने में कामयाब हो जाते हैं जो वे चाहते हैं, तो यह धर्मनिरपेक्ष परियोजना की सफलता है जिसका उद्देश्य, आखिरकार, अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करना भी है.’
पाठ्यपुस्तक के दोनों संस्करण एक ही सवाल पूछते हैं, ‘लेकिन क्या होगा अगर संबंधित समूह की भलाई अन्य समूहों के कल्याण और अधिकारों की कीमत पर की जाए? क्या होगा अगर इन धर्मनिरपेक्ष नेताओं द्वारा बहुसंख्यकों के हितों को कमज़ोर किया जाए? तब एक नई तरह का अन्याय पैदा होगा.’
इन प्रश्नों के उत्तर पाठ्यपुस्तक के दोनों संस्करणों में अलग-अलग हैं.
पुराने संस्करण में लिखा है, ‘लेकिन क्या आप ऐसे उदाहरणों के बारे में सोच सकते हैं? एक या दो नहीं बल्कि बहुत सारे उदाहरण, जिनके बारे में आप दावा कर सकते हैं कि पूरी व्यवस्था अल्पसंख्यकों के पक्ष में है? अगर आप गहराई से सोचें, तो आपको पता चलेगा कि भारत में ऐसा होने के बहुत कम सबूत हैं. संक्षेप में वोट बैंक की राजनीति में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन वोट बैंक की राजनीति का वो स्वरूप, जो अन्याय उपजाता है, वह गलत है. सिर्फ़ यह तथ्य कि धर्मनिरपेक्ष पार्टियां वोट बैंक का इस्तेमाल करती हैं, कोई परेशान करने वाली बात नहीं है. सभी पार्टियां किसी न किसी सामाजिक समूह के साथ ऐसा करती हैं.’
लंबे और संशोधित संस्करण में लिखा है, ‘क्या आप ऐसे उदाहरणों के बारे में सोच सकते हैं? थ्योरी में वोट बैंक की राजनीति में कुछ भी गलत नहीं हो सकता है, लेकिन जब वोट बैंक की राजनीति चुनावों के दौरान किसी विशेष उम्मीदवार या राजनीतिक दल के लिए सामूहिक रूप से मतदान करने के लिए किसी सामाजिक समूह को लामबंद करती है, तो यह चुनावी राजनीति को विकृत कर देती है. यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि मतदान के दौरान पूरा समूह एक अखंड इकाई के रूप में काम करता है. इकाई के भीतर विविधता के बावजूद ऐसी वोट बैंक की राजनीति करने वाला दल या नेता छद्म रूप से यह यक़ीन दिलाने की कोशिश करता है कि समूह का हित एक है. असल में ऐसा करने से राजनीतिक दलों की प्राथमिकताएं समाज के दीर्घकालिक विकास और शासन की ज़रूरतों पर अल्पकालिक चुनावी फायदे को प्राथमिकता देती हैं.’
इसमें आगे कहा गया है, ‘भारत में ऐसा देखा गया है कि राजनीतिक दल मूल मुद्दों की उपेक्षा करते हुए अक्सर चुनावी लाभ के लिए भावनात्मक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे समुदाय द्वारा झेली जाने वाली वास्तविक समस्याओं की उपेक्षा होती है. प्रतिस्पर्धी वोट बैंक की राजनीति में विभिन्न समूहों को सीमित संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा करने वाले प्रतिद्वंद्वी के रूप में चित्रित करके सामाजिक विभाजन को बढ़ाने की क्षमता है. भारत में वोट बैंक की राजनीति अल्पसंख्यक तुष्टिकरण से भी जुड़ी हुई है. इसका मतलब है कि राजनीतिक दल सभी नागरिकों की समानता के सिद्धांतों की अवहेलना करते हैं और अल्पसंख्यक समूह के हितों को प्राथमिकता देते हैं. विडंबना यह है कि इससे अल्पसंख्यक समूह का अलगाव और हाशिए पर जाने की स्थिति और भी बढ़ गई है. चूंकि वोट बैंक की राजनीति अल्पसंख्यक समूह के भीतर विविधता को स्वीकार करने में विफल रही है, इसलिए इन समूहों के भीतर सामाजिक सुधार के मुद्दों को उठाना भी मुश्किल साबित हुआ है.’
एनसीईआरटी का संशोधन के पीछे तर्क यह है कि पुराने संस्करण में यह खंड ‘केवल वोट बैंक की राजनीति को उचित ठहराने का इरादा रखता है’ और संशोधन से यह खंड ‘भारतीय धर्मनिरपेक्षता की प्रासंगिक आलोचना’ बन जाती है.
इसी कड़ी में कक्षा 12 की राजनीति विज्ञान की संशोधित पाठ्यपुस्तक में भारतीय राजनीति में हाल के घटनाक्रमों पर एक अध्याय में 2004 के लोकसभा चुनाव के एक भाग से ‘बहुकोणीय’ राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और ‘राजनीतिक विचारधाराओं में भिन्नता’ पर एक पैराग्राफ हटा दिया गया है. एनसीईआरटी का कहना है कि यह वर्तमान संदर्भ में प्रासंगिक नहीं था.
बता दें कि साल 2014 के बाद से एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों के संशोधन का यह चौथा दौर है.