गत दिनों भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के फैजाबाद लोकसभा सीट हार जाने के बाद उसके स्वयंभू हिंदुत्ववादी इस हार के लिए अयोध्या (जो इसी सीट की परिधि में है) और राम के गुणों-मूल्यों व मर्यादाओं की अवज्ञा तक जा पहुंची उसकी कारस्तानियों के बजाय अयोध्यावासियों की ‘कृतघ्नता’ को जिम्मेदार ठहराते हुए उनके प्रति बदजुबान हो उठे, तो बहुत से लोगों को उनके सारी हदें पार कर जाने के बाद भी लग रहा था कि यह और कुछ नहीं, उसकी अप्रत्याशित हार की खीझ है जो समय के साथ खत्म हो जाएगी.
लेकिन अब जिस तरह वे इसे लेकर अयोध्यावासियों के आर्थिक बहिष्कार के आह्वान से भी आगे बढ़कर अवधेश प्रसाद (समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ दलित नेता, जिन्होंने भाजपा सांसद लल्लू सिंह को हराकर फैजाबाद सीट जीती) की मृत्युकामना तक जा पहुंचे हैं, उससे साफ है कि यह खीझ वगैरह नहीं, लोकतंत्र में उनके विश्वास की क्षुद्रता है, जो भड़ककर अविश्वास, अनादर व अपमान तक जा पहुंची है.
वैसे भी कौन कह सकता है कि उन्होंने देश के लोकतंत्र को कभी सत्ता की प्रतिद्वंद्विता की सुविधा से कुछ ज्यादा समझा?
अवधेश प्रसाद की मृत्युकामना!
बहरहाल, उनकी जमात के स्वयं को ‘परम हंस’ कहने वाले एक भगवावेशधारी सज्जन (?) को अपनी तथाकथित ज्योतिषीय गणना के हवाले से इस ‘भविष्यवाणी’ से भी गुरेज नहीं है कि चूंकि अवधेश प्रसाद वयोवृद्ध हो चुके हैं, अगले एक दो महीनों में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे. तदुपरांत उपचुनाव होगा तो भाजपा फैजाबाद लोकसभा सीट पर फिर से अपनी विजय पताका फहरा देगी. अवधेश प्रसाद द्वारा खाली की गई मिल्कीपुर विधानसभा सीट भी वह जीत ही लेगी.
उनके दावों का विरोधाभास यह कि एक ओर वे कहते हैं कि भाजपा अवधेश प्रसाद की उम्र के सम्मान में यह चुनाव जानबूझकर हार गई और दूसरी ओर कहते हैं कि अयोध्या के दलित व पिछड़े चीन व पाकिस्तान के एजेंटों के हाथों बिक गए.
अफसोस कि इस गर्हित रवैये को लेकर न उन्हें आईना दिखाया जा सकता है न ही समझाया. क्योंकि न उन्हें आईना देखने या समझने जैसी चीजों का कोई अभ्यास है, न ही वे उसकी परंपरा से आते हैं. अन्यथा इतना तो बिना समझाए ही समझ जाते कि अयोध्यावासियों के जिस कृत्य के लिए वे उनको ‘महाभियोग’ से भी कड़ी सजा देना चाहते हैं, वह उनके द्वारा अपने लोकतांत्रिक मताधिकार का प्रयोग भर है- कोई अपराध नहीं, जिसके लिए उन्हें दंडित करने की बात सोची जाए.
जिनको लगता है कि उन्होंने अपने इस अधिकार का गलत इस्तेमाल किया है, तो उन्हें यों भड़क उठने से पहले समझना चाहिए कि यह गलती भी है तो ऐसी नहीं कि उसे सही न किया जा सके. आखिरकार, उन्होंने इस बार भाजपा को हराकर अपने तईं वह गलती ही सुधारी है, जो पिछले दो बार से उसके प्रत्याशी लल्लू सिंह को चुनकर करते आ रहे थे.
अगले पांच साल में उन्हें लगेगा कि अवधेश प्रसाद को चुनकर भी गलती ही की है तो चुनाव में उसे भी सुधार देंगे. लेकिन इस बार तो वे करते भी क्या, उनके सामने अंदेशा था कि चुनने में जरा-सी भी गलती कर दी तो न सिर्फ उनके राम की पांच सौ साल की प्रतीक्षा खत्म कराने व उनको लाने का दावा करने वाले खुद के राम से बड़े हो जाने का अपना भ्रम और बड़ा कर लेंगेे, बल्कि मुमकिन है कि संविधान को बदलकर इस चुनाव को ही अंतिम बना डालें! यानी गलती सुधारने की गुंजाइश ही न रहने दें!
अयोध्या तीनों लोकों से न्यारी नहीं
कोई नहीं कहता कि अयोध्यावासी गलतियां कर ही नहीं सकते. उनके नाम ऐसी जानें कितनी गलतियां दर्ज हैं, जिनके चलते वे अनेक बगुला भक्तों को हंस समझ लेते और उनके फेर में पड़कर बुरी तरह दलदल में फंस जाते और दुर्गति के शिकार होते हैं. सच कहें तो अयोध्या भी कोई तीनों लोकों से न्यारी नगरी नहीं है- भले ही कई महानुभाव उसे वैसी जताने में लगे रहते हैं और इस कवायद में कुछ भी उठा नहीं रखते.
जहां अनेक लोग मुक्ति, मोक्ष या शांति की तलाश में अयोध्या आते हैं, अनेक लोग वहां जीवन तलाशने में ही जीवन खपा देते हैं. वह सारी नैतिकताओं व विवेकों की ऐसी-तैसी करने वाले कुछ लोगों के ऐश्वर्य के शिखर चूमने तो अनेक दूसरों के चुपचाप सब-कुछ सहते जाने की जगह है. इन सबके बीच द्वंद्व भी वहां चलते ही चलते हैं, जो कई बार चुनाव नतीजों में भी अभिव्यक्त होते हैं.
लेकिन इस बार उनकी अभिव्यक्ति को लेकर जिस तरह सारी सीमाएं लांघी जा रही हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ. शायद इसलिए कि हिंदुत्ववादियों ने इस बार अयोध्यावासियों के मन-मस्तिष्क की थाह लगाए बगैर उनके फैसले पर अपनी सत्ता के जितने स्वार्थ दांव पर लगा दिए थे, पहले कभी किसी ने नहीं लगाए.
अब स्वार्थपूर्ति न होने पर वे उन्हें जली-कटी सुना रहे हैं, तो कम से कम दो चीजें बहुत साफ हैं. पहली यह कि उनकी हार एकदम सच्ची है. उसमें इतना भी लोच नहीं है कि वे उसके लिए अपने प्रतिद्वंद्वी के ‘पिचाल’ या ‘कुचाल’ को कोसकर संतुष्ट हो लें. दूसरी यह कि उनके स्वार्थों को इतनी गहरी चोट लगी है कि समझ नहीं पा रहे कि और करें तो क्या करें?
उनसे जेबी कृपलानी या नरेंद्रदेव जैसा आचार्य होने की तो कोई वैसे भी उम्मीद नहीं करता कि वे अपनी हार को संयत भाव से लेंगे और हारकर भी नहीं हारेंगे.
जब अयोध्या ने आचार्य कृपलानी को हराया
हां, अयोध्यावासियों ने हराया तो आचार्य कृपलानी को भी था ही. 1952 में लोकसभा के पहले आम चुनाव में ही, जब वे कांग्रेस छोड़कर फैजाबाद उत्तर पश्चिम लोकसभा सीट से अपनी किसान मजदूर प्रजा पार्टी के प्रत्याशी बने थे. लेकिन उन्होंने अपनी हार का ठीकरा अयोध्यावासियों के सिर पर नहीं फोड़ा था. न ही उनके फैसले पर सवाल उठाए थे.
महात्मा गांधी की इच्छा के अनुसार खादी व गांधी आश्रमों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने इस क्षेत्र में लंबे समय तक काम किया था, जिससे उन्हें उम्मीद थी कि महात्मा की हत्या के बाद हो रहे चुनाव में उन्हें इसका अच्छा प्रतिफल मिलेगा. लेकिन वे अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस के अनाम से स्थानीय प्रत्याशी लल्लन जी से हार गए थे. उनको 65,439 वोट मिले थे और लल्लन जी को 1,11,547 वोट.
बाद में कृपलानी ने अपनी ‘माई टाइम्स’ शीर्षक आत्मकथा में लिखा कि वे अपनी इस हार को लेकर वे उतने दुखी नहीं हुए, जितने हराने वालों की गिरावट को लेकर. जहां तक हार की बात है, इससे पहले वे पुरुषोत्तमदास टंडन के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव भी हार गए थे. कई और चुनावों में भी उन्हें शिकस्त ही हासिल हुई थी.
वे दुखी थे कि जब वे अपनी पार्टी के अन्य प्रत्याशियों के लिए वोट मांगने फैजाबाद से बाहर होते थे, उनके ‘कृपलानी’ होने को लेकर प्रचार किया जाता था कि वे पुरुष नहीं, महिला हैं, तिस पर विधवा भी. इतना ही नहीं, आजादी की लड़ाई में समाजवादियों के योगदानों को पूरी तरह नकार दिया जाता था. फिर मतदान के दिन सरकारी कर्मचारियों की मदद से फर्जी वोट डलवाए गए. मतगणना के वक्त कुछ मतपेटियों की सील टूटी मिली और उसकी शिकायत की गई तो उसकी अनसुनी कर दी गई. कह दिया गया कि यह सील मतपेटियों की बैलगाड़ियों से ढुलाई के दौरान टूटी है.
गौर कीजिए, आज हिंदुत्ववादियों को समाजवादी पार्टी व अवधेश प्रसाद के खिलाफ ऐसी कोई शिकायत नहीं है. सपा सत्ता में नहीं, विपक्ष में है, इसलिए हो भी नहीं सकती. वे अयोध्यावासियों की कृतघ्नता से दुखी हैं तो साफ है कि समझते हैं कि अयोध्यावासियों ने ही उन्हें नकारा है. क्या अर्थ है इसका? वे गिरावट के शिकार न होते और अयोध्या व भगवान राम को आस्था के विषय बताकर भी चुनावी प्रपंच में न फंसाते तो यह हार उन्हें इतनी क्योंकर सताती?
हारे तो आचार्य नरेंद्रदेव भी!
वे उन आचार्य नरेंद्र देव से कुछ क्यों नहीं सीख पाते जिन्होंने इसी अयोध्या में 1948 में उत्तर प्रदेश (तब यूनाइटेड प्रोविंस) विधानसभा के आजादी के बाद के पहले उपचुनाव में हार अंगीकार कर ली थी, लेकिन अपने सिद्धांत नहीं छोड़े थे. तब हुआ यह था कि उनके कांग्रेसी प्रतिद्वंद्वी बाबा राघवदास की ओर से प्रचार किया जाने लगा कि धर्मनगरी अयोध्या से धर्मपरायण बाबा के बजाय अनीश्वरवादी आचार्य चुन लिए गए, तो धर्म की ध्वजा तो नीची हो ही जाएगी, जगहंसाई भी खूब होगी.
इस पर कुछ ‘शुभचिंतकों’ ने आचार्य को मशविरा दिया कि वे, दिखाने के लिए ही सही, पत्रकारों व फोटोग्राफरों के साथ एक दो-मंदिरों में दर्शन-पूजन करने चले जाएं.
लेकिन आचार्य ने यह कहकर उन्हें टका-सा जवाब दे दिया था कि मैं ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि मेरा ईश्वर में विश्वास नहीं है. मुझे लगता है कि चुनाव जीतने के लिए ऐसा विश्वास प्रदर्शित करके मैं खुद को भी धोखा दूंगा और मतदाताओं को भी. मतदाताओं को मुझे चुनना है तो अनीश्वरवादी के तौर पर ही चुनें वरना हरा दें.
अंततः वे उपचुनाव हार गए, लेकिन उन्हें हराने वालों का गर्व इतना बड़ा नहीं हो सका कि उनके सारे गुण, गरिमा व गौरव उसके बोझ तले दब जाएं. जनादेश को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते वक्त उन्हें जगहंसाई का डर भी नहीं ही लगा.
फिर तो बाबा राघवदास को अपनी जीत की खुशी मनाना भी गवारा नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि आचार्य की हार पर जश्न नहीं मनाया जा सकता, अफसोस ही जताया जा सकता है. क्योंकि वे जीत के लिए मुझसे ज्यादा डिजर्व करते थे.
गौरतलब है कि बाबा राघवदास भी कुछ कम हिंदुत्ववादी नहीं थे, लेकिन आज वे होते तो यह देखकर लजाते जरूर कि अवधेश प्रसाद से हारकर संतुलन खोने वाले हिंदुत्ववादियों के पास अवधेश प्रसाद के बारे में कहने के लिए एक भी सार्थक बात नहीं है.
सोचिए जरा कि यह उनका कैसा दृष्टिदोष है कि जीत तो उन्हें मदांध बनाती ही है, हार भी कोई सबक नहीं सीखने देती? जैसा कि पहले कह आये हैं, न उन्हें आईना दिखा सकते हैं, न समझा सकते हैं कि हार को गरिमा के साथ स्वीकार कर लिया जाए तो वह हार नहीं रह जाती. ऐसे में रास्ता एक ही है कि उनकी बदनीयती को ठीक से समझकर उसका प्रतिकार किया जाए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)