बंगनामा: बंगाल के घर और पोखर

पोखर बंगाल की जीवन शैली का अभिन्न अंग है. घर की महिलाएं पोखर के जल से रसोई के बर्तन साफ़ करतीं और कई बार उसके पानी से खाना भी पकाती थीं. परिवार के सदस्य उसके जल से सुबह मंजन करते और दोपहर में उसमें स्नान भी. बंगनामा स्तंभ की चौथी क़िस्त.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/Billjones94)

उत्तर 24 परगना में जिला प्रशिक्षण के लिए 1990 में आने से पहले मैं बंगाल कुल तीन बार आया था. पहली बार तो मैं क़रीब तीन साल का था और मेरे माता-पिता ने मेरे लिए एक नारंगी रंग की  तिपहिया साइकिल ख़रीदी थी. दूसरी बार 1980 में मैं राष्ट्रीय खेलों में हिस्सा लेने आया था, और तीसरी बार 1984 में विदेश पढ़ने जाने के लिए वीज़ा लेने. तीनों बार मैं कलकत्ता शहर की कुछ  भव्य ऐतिहासिक इमारतों को सराहकर, जगमगाते चौरास्तों में खोकर, और भीड़ भरे कोनों में झांककर ही वापस चला गया था.

इस बार मैं बंगाल में रहने आया था, अब यही मेरी कर्मभूमि थी. इसीलिए मेरे मन में नई जगह के लिए विशेष कौतूहल था जो कि कलकत्ता केंद्रित नहीं था. मैं उस बंगाल को जानना चाहता था जो कलकत्ता के बाहर था, लेकिन मेरी इच्छा पूर्ति में अभी कुछ देर थी.

संगति का बड़ा असर होता है. कलकत्ता के नजदीक होने के कारण उत्तर 24 परगना ज़िले का भी काफ़ी हद तक शहरीकरण हो गया था. इस ज़िले में 22 नगर पालिकाएं थीं जो कि पूरे राज्य में सर्वाधिक थीं. 1991 की जनगणना के अनुसार ज़िले की पूर्ण जनसंख्या 72 लाख से कुछ अधिक थी, जिसमें शहरी जनसंख्या क़रीब 37 लाख (51.30%) और ग्रामीण 35 लाख (48.70) थी. 1991 में भी देश के कुछ ही ज़िले ऐसे रहे होंगे जहां गांवों की तुलना में नगरों में अधिक लोग वास कर रहे हों.

उत्तर 24 परगना में मेरे पूर्व कोई भी प्रशासनिक सेवा का अधिकारी प्रशिक्षण के लिए नहीं आया था क्योंकि शहर-प्रधान ज़िलों को अधिकारियों के प्रशिक्षण के उपयुक्त नहीं समझा जाता था. सरकार में यह प्रथा इतनी प्रचलित थी कि बारासात आने के दो महीने बाद जब मुझे राज्य के मुख्य सचिव से मिलने का सुअवसर मिला तो उन्होंने मुझसे एक ही प्रश्न किया, ‘यह तो प्रशिक्षण ज़िला नहीं है, तुम्हें यहां किसने भेजा है?’

अफ़सोस कि मैं इस एक सवाल का भी जवाब न दे सका. मैं उनसे कैसे कह सकता था, ‘सर, आपने भेजा है!’

ज़िला प्रशिक्षण के आरंभ के कुछ महीने तो मुझे ज़िला मुख्यालय- बारासात- में ही विभिन्न दफ़्तरों में उनके काम-काज को जानने-समझने में बिताने पड़े और उसके बाद कुछ सप्ताह राज्य के प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थान में. फिर भी ज़िला मजिस्ट्रेट या अन्य किसी अधिकारी के साथ दौरे पर अगर जाने का मौक़ा मिलता तो मैं संग हो लेता था. दौरों में बैठकों के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में हो रहे विकास के कार्यों का पर्यवेक्षण करने का भी अवसर मिलता था.

वर्षा ऋतु आरंभ हो चुकी थी. ग्रामीण बंगाल के अम्लान हरे धान के खेतों तथा वृक्षों से घिरे गांवों से गुज़रते हुए इन यात्राओं के दौरान मुझे एक बात बहुत दिलचस्प लगती थी- क़रीब-क़रीब हर छोटे-बड़े, अक्सर मिट्टी से निर्मित घर के पीछे एक छोटा-सा बगीचा और उस बगीचे के बीच केले, पपीते, सहजन इत्यादि पेड़ों के झुरमुट से घिरे एक तालाब का होना जैसे अनिवार्य था.

धीरे-धीरे मैंने जाना कि यह नजारा पश्चिम बंगाल के विशाल गांगीय क्षेत्र में ही नहीं बल्कि उत्तर बंगाल में भी आम है. दृश्य चित्ताकर्षक तो था ही, मेरे मन में यह कुछ प्रश्नों को भी उकसाता था. हर घर के साथ एक पोखर क्यों है? भारत के जिस राज्य में भूमि पर जनसंख्या घनत्व का दबाव सबसे ज़्यादा है वहां पोखर खोदकर उर्वर ज़मीन को नष्ट करना कहां तक उचित है? माना कि बंगालियों को मछली खाना बहुत पसंद है, किंतु मछली के लिए घर के पीछे ही तालाब बनवाना क्यों ज़रूरी है? घर-घर पोखर होना अनावश्यक नहीं है? पूछने पर इन प्रश्नों का मुझे कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं मिलता था.

कुछ दिनों बाद मैं विभिन्न सरकारी प्रकल्पों को देखने के लिए ख़ुद भी दूर-दराज के गांवों और बस्तियों में जाने लगा. कीचड़ भरे रास्तों और पगडंडियों पर घूमते-फिरते गांवों में अकेला घूमना और लोगों से मिलकर बातें करना मेरे लिए मुझे बहुत रुचिकर तथा आनंददायक था.

मुझे लगता था कि मैं नए प्रदेश को समझने लगा हूं. मैंने पाया कि घर का पोखर, बांग्ला में  ‘पुकुर’ बंगाली जीवन शैली का एक अभिन्न अंग है जिसके संग परिवार की दिनचर्या जुड़ी हुई थी. घर की महिलाएं पोखर के जल से रसोई के बर्तन साफ़ करतीं और कई बार उसके पानी से खाना भी पकाती थीं. परिवार के सभी सदस्य तालाब के जल से सुबह मंजन करते थे और दोपहर में उसमें  स्नान भी. वे अपने कपड़े उसी तालाब में धोते थे और उस में तैरते भी थे. पोखर से परिवार के कई काम होते थे और मनोरंजन भी.

और, हां, पारिवारिक उपभोग के लिए पुकुर में मत्स्य पालन भी होता था. एक दिन दोपहर में मैं एक परिवार के मुखिया से उनके घर के सामने बैठा बातचीत कर रहा था. भोजन का समय हो चला था. उसी समय उनका बड़ा पुत्र कॉलेज से घर लौटा तथा साइकिल नारियल के पेड़ से टिकाकर फुर्ती से घर में घुसा.  कुछ ही क्षणों में वह मछली मारने की बंसी लेकर निकला और पोखर की ओर चल दिया. हम लोग दस-पंद्रह मिनट बात कर ही रहे होंगे कि वह लड़का दो पाव भर की मछलियों को लेकर घर में प्रवेश करता हुआ बोला, ‘मां, भात चापिये दाओ. चान कोरे आश्ची’ ( मां, चावल पकने के लिए चूल्हे पर चढ़ा दो. मैं नहाकर आता हूं).

भूमि प्रशासन का मूलभूत आधार है, विशेष रूप से हमारे जैसे कृषि प्रधान देश में. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि विश्व में हर देश में स्थायी प्रशासनिक प्रणाली की उत्पत्ति का प्राथमिक कारण था ज़मीन, उसकी उपज, और उनसे जनित समस्याओं के निष्पादन का व्यवस्थापन. हरेक  राज्य सरकार भूमि व्यवस्था के प्रशिक्षण को बहुत महत्व देती है.

हर साल की तरह 1990-91 के दिसंबर-जनवरी में ‘भूमि सर्वेक्षण और सेटलमेंट’ की ट्रेनिंग का आयोजन उत्तर बंगाल में अलिपुरद्वार में तय था. यहां प्रशासनिक, पुलिस, और न्यायिक अधिकारी प्रशिक्षणार्थी एकत्रित होते और उन्हें भूमि अधिनियमों और नियमों का व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता था. छोटे से शहर के विशाल परेड मैदान में लाइन से आवासीय टेंट लगाए जाते जिनमें प्रशिक्षणार्थी और प्रशिक्षक रहते थे.

पौ फटने से पहले ही साइकिलों पर सवार हम सब शहर से बाहर कोहरे में लिपटे किसी गांव में पहुंच जाते और फिर आरंभ हो जाती भूमि के नाप-जोख की प्रक्रिया, माप को अभिलेखबद्ध करने का काम, ज़मीन का मानचित्र बनाना इत्यादि. दोपहर के बाद एक बड़े ख़ेमे में क्लास होती थी.

एक सुबह एक गांव के समीप हम लोग गुंटर ज़ंजीर से ज़मीन नाप रहे थे. रेलवे की मीटर लाइन की पटरी उधर से ही गुजरती थी जिसके दोनों तरफ़ खेती की ज़मीन काफ़ी नीचे थी. काम करते-करते मैंने देखा कि पटरी की दूसरी तरफ़, खेत में एक बांस के बाड़ों से बने अर्धनिर्मित घर के ठीक पीछे एक बलिष्ठ आदमी छोटा-सा पोखर खोद रहा था. मैं उसकी ओर बढ़ा तो पाया कि पोखर पूरा खुद चुका था, अब वह व्यक्ति उसके किनारों  को मजबूत करने में जुटा हुआ था. मैं उससे बातें करने लगा तो पता चला कि यह ज़मीन, पोखर और घर उसी का है.

फिर मैंने उससे पूछा, ‘क्या आपने मछली पालने के लिए यह पोखर बनाया है?’ उनका उत्तर था, ‘घर बनाने के लिए ज़मीन को ऊंचा करना पड़ता है न. मैंने तो घर बनाया है, पोखर तो आप ही बन गया.’ मेरे लिए यह एक युरेका क्षण था.

पश्चिम बंगाल के नदीय और डेलटा क्षेत्रों में लोगों का बड़ी तादाद में बसना कुछ तीन-चार सौ साल पहले ही शुरू हुआ है. इन नीचे, दलदली मैदानों में घर बनाने के लिए ज़मीन को भरकर ऊंचा करना अपरिहार्य था और भरने के लिए ज़मीन खोदना पड़ता था. इसी वजह से घर बनने के पहले ही पोखर खुद-ब-खुद बन जाता था और जब पोखर पहले मानसून के बाद लबालब भर जाता होगा तो उसकी उपयोगिताओं की संख्या भी बढ़ती जाती होगी.

समय के साथ पोखर बंगाली घर और जीवन शैली का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया परंतु साथ ही लुप्त हो गए उसके उत्पत्ति के मूल कारण.  बंगाल को छोड़ बाहर बसने वाले बंगाली भी ‘पुकुर’ को नहीं छोड़ पाए. जहां भी गए और संबल रहा तो अपने घर के साथ एक पोखर भी बनवाया. छोटा नागपुर पठार पर स्थित मेरे जन्म स्थल में हमारे घर के तीन तरफ़ तीन अहाते थे जिनमें बंगाली परिवार रहते थे. हर अहाते में एक पोखर भी था. इन्हीं में से एक पोखर में तो मैंने तैरना भी सीखा था.

जनवरी 2023 में भारत सरकार के जल शक्ति मंत्रालय ने जल निकायों की पहली गणना की रिपोर्ट को प्रकाशित किया. पता चला कि पूरे देश में नाना प्रकार के 24.5 लाख जल निकाय हैं. इनमें से सर्वाधिक, 7.5 लाख, छोटे जलाशय पश्चिम बंगाल में स्थित हैं. क्या यह आश्चर्य की बात है कि पूरे देश में सबसे ज़्यादा पोखर भी इसी राज्य में हैं?

(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)

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