बिहार: आरक्षण मामले को लेकर हाईकोर्ट के फैसले को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी

बीते साल नवंबर 2023 में जातिगत जनगणना के आधार पर बिहार विधानसभा में आरक्षण संशोधन अधिनियम पारित किया गया था, जिसमें आरक्षण का दायरा 50 फीसदी से 65 फीसदी बढ़ा दिया गया था. हालांकि राज्य सरकार के इस फैसले को पटना हाईकोर्ट ने बीते महीने को रद्द कर दिया.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार. (फोटो साभार: फेसबुक)

नई दिल्ली: बिहार सरकार ने नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का कोटा 65 फीसदी से घटाकर 50 फीसदी करने के पटना हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है.

राज्य सरकार ने अपनी विशेष अनुमति याचिका में इंद्रा साहनी मामले में दिए गए फैसले का जिक्र करते हुए कहा है कि अगर राज्य पिछड़ेपन की सामाजिक कसौटी को पूरा करने में सक्षम हैं तो 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन किया जा सकता है.

हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार सरकार ने तर्क दिया है कि आरक्षण की प्रक्रिया में उसने शीर्ष अदालत के पिछले निर्णयों का पालन किया है और बाद में इस डेटा के आधार पर अपने आरक्षण कानूनों में संशोधन किया है.

राज्य सरकार का कहना है कि प्रदेश के जातिगत सर्वेक्षण से पता चलता है कि बिहार में पिछड़े वर्ग के लोग भूमिहीनता, शिक्षा, बेघर होने और आय असुरक्षा जैसे अधिकांश सामाजिक-आर्थिक मानदंडों में पिछड़ रहे हैं, इसलिए इन समुदायों को अतिरिक्त सहायता और प्रतिनिधित्व प्रदान करने की सख्त जरूरत है.

याचिका में कहा गया है कि बिहार एकमात्र ऐसा राज्य है जिसने यह प्रयोग किया है और पूरी आबादी की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक स्थिति पर अपनी जाति सर्वेक्षण रिपोर्ट प्रकाशित की है.

पटना हाईकोर्ट ने सरकार के फैसले को रद्द कर दिया था

बिहार सरकार ने अपनी याचिका में कहा है कि हाईकोर्ट का फैसला इस आधार पर दिया गया है कि पिछड़े वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है और सरकार को आरक्षण बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है.

मालूम हो कि बिहार में आरक्षण का दायरा 50 फीसदी से 65 फीसदी बढ़ाए जाने के राज्य सरकार के फैसले को पटना हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया था. पटना हाईकोर्ट ने अपने 20 जून के फैसले में कहा था कि बिहार विधानसभा द्वारा 2023 में पारित संशोधन संविधान के ‘अधिकार से बाहर’, ‘कानून में खराब’ और ‘समानता खंड का उल्लंघन’ थे. हाईकोर्ट ने इसे संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव के खिलाफ अधिकार) और 16 (रोजगार में भेदभाव के खिलाफ अधिकार) का उल्लंघन माना था.

हाईकोर्ट ने कहा था कि 50 प्रतिशत नियम के उल्लंघन के लिए कोई वैध आधार नहीं है

चीफ जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस हरीश कुमार की पीठ द्वारा सुनाए गए इस फैसले में अदालत ने कहा था कि राज्य में आरक्षण बढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अब पर्याप्त प्रतिनिधित्व मौजूद है और 50 प्रतिशत नियम के उल्लंघन के लिए कोई वैध आधार नहीं है, जो किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं है.

गौरतलब है कि बीते साल नवंबर में विधानसभा में पारित बिहार आरक्षण (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए) (संशोधन) अधिनियम, 2023 और बिहार (शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में) आरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2023 के तहत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण सीमा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत करने का प्रावधान किया गया था.

ज्ञात हो कि बिहार जाति सर्वेक्षण की पूरी रिपोर्ट पेश होने के कुछ घंटों बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस संशोधन का प्रस्ताव रखा था. सर्वे में सामने आया था कि बिहार के 13.1 करोड़ लोगों में से 36 फीसदी लोग ईबीसी से हैं और 27.1 फीसदी लोग ओबीसी से हैं. 9.7 प्रतिशत अनुसूचित जाति और जनजाति जनसंख्या का 1.7 प्रतिशत है. सामान्य वर्ग की आबादी 15.5 प्रतिशत है.

उल्लेखनीय है कि हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के प्रचार में विपक्षी दलों ने सत्ता में आने पर देश भर में जाति जनगणना कराने और जनगणना के नतीजों के आधार पर आरक्षण नीतियों में बदलाव का वादा किया था. हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसी जनगणना की जरूरत की खिलाफत की है.