विपक्ष ख़ुद को नाम के विपक्ष तक सीमित न रखे, आगे की लड़ाई के लिए ज़मीन पर उतरे

विपक्ष आगे की राह कैसे तय करेगा? और क्या महज बढ़ा हुआ आत्मविश्वास उसको मंजिल तक पहुंचा देगा? फिलहाल इसका ‘हां’ में जवाब मुश्किल है क्योंकि स्थितियां आगे और लड़ाई के संकेत दे रही हैं.

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लोकसभा चुनाव के दौरान दिल्ली के रामलीला मैदान पर आयोजित इंडिया महागठबंधन की रैली का एक दृश्य. (फोटो साभार: एक्स)

अठारहवीं लोकसभा के पहले सत्र ने दो बातें पूरी तरह साफ कर दी हैं. पहली यह कि विपक्ष का वह आत्मविश्वास उसके पास लौट आया है, 2014 के लोकसभा में उसने जिसे गंवाया तो 2019 में भी वापस नहीं पा सका था. फिर तो नरेंद्र मोदी सरकार (तब उसे भाजपा सरकार अपवादस्वरूप ही कहा जाता था) ने अपने आक्रामक बहुसंख्यकवाद की बिना पर स्वतंत्रता, समता, न्याय, बंधुत्व व धर्मनिरपेक्षता जैसे संवैधानिक मूल्यों को बेरोकटोक आक्रांत कर न सिर्फ राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल डाली थी, बल्कि विपक्ष के मन में इतने चोर पैठा दिए थे कि वह उसे इन मूल्यों के आधार पर चुनौती देने की संभावना से नजर तक नहीं मिला पाता था.

दूसरे शब्दों में कहें तो ‘महाबली’ भाजपा के समक्ष ‘पस्तहिम्मत’ वह यह तक नहीं सोच पा रहा था कि उसके आगे उसकी जीत भी छिपी हो सकती है.

तो बात कुछ और होती!

क्या आश्चर्य कि तब कई विश्लेषक कहने लगे थे कि यह आत्मविश्वासहीनता उसकी, उसके बिखराव से भी बड़ी समस्या बन गई है.

पिछले दिनों जिन योगेंद्र यादव ने लोकसभा चुनाव के नतीजों की सबसे सटीक भविष्यवाणी की थी, वे अभी भी कहते हैं कि विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ इस स्थिति से बाहर निकलकर समुचित समन्वय के साथ और न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाकर चुनाव लड़ता तो पचासेक और सीटें जीतकर सत्ता-परिवर्तन संभव कर देता. तब नरेंद्र मोदी सरकार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के रूप में भी अपना अस्तित्व नहीं ही बचा पाती.

लेकिन जो हुआ, सो हुआ, अब उसे बदला नहीं जा सकता. अलबत्ता, राहत महसूस की जा सकती है- की भी जा रही है- कि मतदाताओं ने जहां नरेंद्र मोदी व भाजपा दोनों की अजेयता के जतन से गढ़े गए मिथक के साथ उनके तद्जनित अहंकार को धूल चटा दी है, वहीं विपक्ष को उनसे दो-दो हाथ करने के हौसले से संपन्न कर दिया है.

इसका नतीजा यह हुआ है कि जो विपक्ष कभी संवैधानिक मूल्यों की बिना पर उन्हें ठीक से ललकार तक नहीं पाता था, उसके ‘जय संविधान’ के नारे ने लोकसभा में नए सांसदों के शपथ-ग्रहण के वक्त ही उनसे उनके ‘जनादेश’ की चमक छीन ली. अनंतर, लोकसभाध्यक्ष के चुनाव, राष्ट्रपति के अभिभाषण, उसके लिए धन्यवाद के प्रस्ताव पर चर्चा और प्रधानमंत्री के जवाब के वक्त भी उन्हें सांसत में डाले रखा- लोकसभा ही नहीं, राज्यसभा में भी.

इसकी परिणति इस रूप में भी दिखी कि विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने लोकसभा में अपने पहले भाषण में सरकार को उठक-बैठक तो कराई ही, यह दावा भी कर डाला कि ‘इंडिया’ भाजपा को, और तो और, उसके गढ़ गुजरात के आगामी विधानसभा चुनाव में भी हरा देगा. उन्होंने इस दावे में जानबूझकर ‘कांग्रेस’ के बजाय ‘इंडिया’ कहा, जिससे पता चलता है कि विपक्ष के नेता के रूप में ‘इंडिया’ में एकता व सौमनस्य को लेकर वे कितने सतर्क हैं- प्रधानमंत्री द्वारा उसे लेकर कांग्रेस को परजीवी करार देने के बावजूद.

रस्सी जल गई मगर…!

जो दूसरी बात साफ हुई है, देश के लिहाज से वह किसी बुरी खबर से कम नहीं है क्योंकि ‘नई’ सरकार ने सत्र में एक पल को भी किसी नई रीति-नीति का संकेत नहीं दिया. अकारण नहीं कि कई विश्लेषकों ने प्रधानमंत्री के संदर्भ में इसे रस्सी जल जाने के बावजूद बल न जाने के रूप में देखा.

हद तो तब हो गई जब अभिभाषण पर चर्चा के उनके लोकसभा व राज्यसभा में दिए गए जवाबों को सुनते वक्त विश्लेषकों के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि प्रधानमंत्री बैसाखियों पर ज्यादा निर्भर हैं या असत्यों, अर्धसत्यों और अनर्थों पर! लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी द्वारा उठाए गए मुद्दों को हिकारत से ‘बाल-बुद्धि का प्रलाप’ करार देकर उन्होंने एक बार फिर ‘सिद्ध’ कर दिया कि अपने तीसरे कार्यकाल में भी प्रधानमंत्री की तरह पेश आना उनसे कतई नहीं हो पाएगा.

राहुल ने कभी उनके ऐसे ही रवैये के संदर्भ में मिर्जा गालिब के शब्द उधार लेकर पूछा था- ये जो हर बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्हीं बताओ ये अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है!

सवाल है कि ऐसे में विपक्ष आगे की राह कैसे तय करेगा? और क्या महज बढ़ा हुआ आत्मविश्वास उसको मंजिल तक पहुंचा देगा? फिलहाल इसका ‘हां’ में जवाब मुश्किल है क्योंकि स्थितियां आगे और लड़ाई के संकेत दे रही हैं.

ऐसी लड़ाई के, जो भले ही बहुत लंबी न हो, कु-चक्रव्यूहों में अभिमन्यु जैसी फंसंत के अंदेशों से भरी पड़ी है. तिस पर इन व्यूहों में विपक्ष के पास इतनी भी सहूलियत नहीं है कि उसका प्रतिद्वंद्वी चौबीस घंटों में ज्यादा नहीं तो कुछ पल को ही चुनाव मोड में न रहे और ‘हर हाल में’ जीत की ख्वाहिश से मुक्त होकर मूुकाबले में लेवल प्लेइंग फील्ड और शुचिता की भी थोड़ी-बहुत चिंता करे.

जाहिर है कि विपक्ष का इस भरोसे बैठे रहना भी गलत होगा कि भाजपा की घटी हुई शक्ति के कारण वह इस सरकार को संसद में लगातार घेरे रखकर जल्दी ही इतनी कमजोर कर देगा कि वह अपनी बैसाखियों का बोझ उठाती- उठाती ही ढह जाए. या कोई ऐसा ‘ब्लंडर’ कर डाले, जिससे ऐसा जनरोष भड़क जाए कि उसके लिए उससे पार पाना संभव न रह जाए. बीता हुआ दशक गवाह है कि विपक्ष, खासकर कांग्रेस, द्वारा 2014 से ही किया जा रहा ऐसे ब्लंडर का इंतजार अभी तक खत्म नहीं हो पाया है.

विपक्ष के लिए इसका सबक यही है कि उसकी संभावनाएं ऐसे इंतजार में समय गंवाने से नहीं, माहौल को बदलने में हासिल हुई सफलता को जमीनी हकीकत का बदलाव बनाने में लगने से उज्ज्वल होंगी. चौबीसों घंटे चुनावी मोड में रहने वाले प्रतिद्वंद्वी से पार पाना है तो वह इस सोच से काम नहीं चला सकता कि ‘फिर चुनाव आएगा तो देखेंगे’. जो स्थितियां हैं, उनमें क्या पता कि कब मध्यावधि चुनाव का सामने आ खड़ा हो और अपेक्षित तैयारियां न हों तो हाथों के तोते उड़ जाएं!

चुनाव क्षेत्रों में जाएं

फिर? बेहतर होगा कि विपक्ष अपने सारे सांसदों को निर्दिष्ट करे वे बिना देर किए अपने-अपने चुनाव क्षेत्रों में जाएं और मतदाताओं को धन्यवाद ज्ञापित कर उनकी चिंताओं व समस्याओं से जुड़ें. न सिर्फ उन मतदाताओं की समस्याओं व चिंताओं से, जिन्होंने उन्हें वोट दिए, बल्कि उनकी समस्याओं व चिंताओं से भी जिन्होंने किसी कारण वोट नहीं किया.

वे समाजवादी पार्टी की कैराना की सांसद इकरा हसन से सबक ले सकते हैं, जिन्होंने कहा है कि मतदाताओं का समर्थकों व विरोधियों में विभाजन मतदान के दिन तक के लिए ही था और अब वे उन मतदाताओं की भी सांसद हैं, जिन्होंने चुनाव में उन्हें मत नहीं दिए.

यकीनन, इससे इन सांसदों और उनकी पार्टी दोनों की स्वीकार्यता बढ़ेगी, संभावनाएं उज्ज्वल होंगी व बनी रहेंगी. इसी तरह जिन चुनाव क्षेत्रों में विपक्ष को विजय नहीं मिली है, वहां के पराजित उम्मीदवारों को भी मतदाताओं के बीच बने रहने और पराजय के कारण तलाशकर उन्हें दूर करने के लिए कहा जाना चाहिए.

साफ कहें तो इसकी सबसे ज्यादा जरूरत बिहार में है, जहां विपक्ष के लिए उर्वर व अनुकूल भूमि होने के बावजूद उसे ज्यादा सफलता नहीं मिली. सीटों के बंटवारे में अपनी जिद पर अड़े रहकर ‘इंडिया’ को टूट के कगार तक पहुंचा देने वाला राष्ट्रीय जनता दल भी कोई करिश्मा नहीं कर पाया.

विपक्ष को उन राज्यों पर तो फोकस करना ही चाहिए जहां अगले कुछ महीनों में या अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं, उन राज्यों की भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए जहां अभी चुनाव की आहट नहीं है.

संविधान को ख़तरे की सच्चाई

उसे यह सिद्ध करने की जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए कि उसने चुनाव में नरेंद्र मोदी के ‘चार सौ पार’ के नारे को लोकतंत्र व संविधान के लिए खतरा बताकर भ्रम या झूठ नहीं फैलाया, जैसा कि अब भाजपा जता रही है और प्रधानमंत्री कह रहे हैं.

इसके उलट सच्चाई से आगाह किया था और सच्चाई यह है कि संविधान व लोकतंत्र के समक्ष उपस्थित खतरे सिर्फ इसलिए टले दिख रहे हैं कि भाजपा अपने दम पर बहुमत से दूर रह गई है. कई भाई आजकल भाजपा के रुख में जो ‘नरमी’ देख रहे हैं, वह वैसी ही है, जैसी अटल बिहारी वाजपेयी के वक्त उसके द्वारा राजग के बैनर पर सत्ता-सेवन के लिए तीन विवादास्पद मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाले जाते वक्त दिखी थी.

कौन कह सकता है कि जैसे ही मोदी ‘महानायक’ बने और भाजपा को बहुमत मिला, उसने उन मुद्दों को बाहर निकालने ओर भुनाने में कुछ भी उठा रखा? अभी भी, राम मंदिर के मुद्दे के बहुत काम न आने और अयोध्या तक की लोकसभा सीट हार जाने के बावजूद वह ‘वो बात जिसका फसाने में कहीं जिक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है’ की राह पर ही चल रही है. अन्यथा लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने उसके जैसे ‘खुद को हिंदू कहने वालों’ की नफरत फैलाने वाली करतूतों पर जो प्रहार किए, उन्हें सारे हिंदुओं पर प्रहार का रूप क्यों देखती?

और उसकी रोशनी में कई विश्लेषक क्यों इसकी जरूरत जताते कि राहुल को सोच-समझकर अपने शब्द चुनने चाहिए और भाजपा को कोई मौका नहीं देना चाहिए.

हां, विपक्ष को खुद को कहने का विपक्ष नहीं, नीतिगत यानी वास्तविक विपक्ष बनाना और अपने समर्थक समूहों, खासकर दलितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों के बीच के अंतर्विरोधों को भी यथासंभव अतिशीघ्र हल करने की चिंता भी करनी चाहिए. क्योंकि भाजपा को पता है कि उनके पुनरुत्थान का रास्ता इन तबकों की एकता खंडित करने के उसके प्रयासों की सफलता पर ही निर्भर करता है और वह इसके लिए कुछ भी उठा नहीं रखने वाली.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)