अरुणा रॉय: देवडूंगरी की दीपशिखा

इस देश के गांवों में बसने वाले लोगों को साथ लेकर बदलाव की मुहिम शुरू करना और एक बदलाव को सामने ला देना एक बड़ी बात है. अरुणा रॉय ने यह कर दिखाया है.

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(बाएं) 1 मई 1990 पर श्रम दिवस के अवसर पर अरुणा रॉय; (दाएं) उनकी किताब. (फोटो साभार: X/@mkssindia)

जयपुर: ज्ञान की आभा चंद्रमा की उस शीतल रोशनी जैसी होती है, जो रहती तो बहुत दूर है; लेकिन जिसे हम सिर्फ़ महसूस ही कर सकते हैं. और ऐसी रोशनी को लाकर कोई हमारी हथेली पर रख दे तो यह अतुलनीय हो जाता है. अरुणा रॉय ने यही अतुलनीय किया है.

21 जुलाई को उनकी अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक ‘द पर्सनल इज पॉलिटिकल‘ का लोकार्पण जयपुर के कानोड़िया कॉलेज में हुआ है. हमारे आसपास बहुत अदीब हैं. बहुत कलाकार हैं. बहुत राजनेता हैं. बहुत आईएएस और आईपीएस हैं. बहुत सारे बुद्धिजीवी हैं. इनमें आईएएस का अपना प्रभामंडल है. अरुणा न तो अदीब हैं, न तो कलाकार हैं, न तो राजनेता हैं और न ही कुछ और हैं. वे एक प्रेरक और उत्प्रेरक आंदोलनकारी की भूमिका में रहती हैं.

अरुणा 1968 में आईएएस बनीं और उन्होंने आपातकाल से ठीक पहले 1975 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे दिया. उन्हें लग रहा था कि आईएएस में रहते परिवर्तन संभव नहीं.

राजनेता, आईएएस या बुद्धिजीवी बहुत हैं. समाजसेवी कितने ही हैं. लेकिन इस देश के गांवों में बसने वाले लोगों को साथ लेकर बदलाव की मुहिम शुरू करना और एक बदलाव को सामने ला देना एक बड़ी बात है. अरुणा ने यह कर दिखाया है.

आज जब इंसानियत, नेक़नीयतियां और संवेदनशीलता एक दुर्लभ गुण हो गए हैं, अरुणा रॉय ने निखिल डे, शंकर सिंह, भंवर मेघवंशी आदि के साथ मिलकर कानूनी प्रक्रिया में बदलाव की एक अंत:सलिला बहाने की कोशिश की है. यह कोशिश छोटी स्तर पर रही है; लेकिन इसकी प्रतिध्वनियां बहुत दूर गई हैं.

राजस्थान और देश में सूचना के अधिकार कानून को अंतिम रूप मिलना एक बड़ी पहल रही है. इससे देश के सरकारी तंत्र में पारदर्शिता लाने में थोड़ी मदद मिली है. इससे पहले यह एक ऐसा विशेषाधिकार था, जो केवल निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को ही प्राप्त था.

लोगों में कानूनों और सरकारी कार्य संस्कृति को लेकर एक ख़ास तरह की जटिलता रहती है. एक दर्द हर जगह बिछा रहता है. एक तड़प हर गांव-देहात में दिखाई देती है. लेकिन इसे दूर करता कोई नहीं दिखता. अरुणा रॉय और निखिल डे ने सरकारी तंत्र की परतों के भीतर जमे-ठसे भ्रष्टाचार और कदाचार के खिलाफ़ सिर्फ़ धरना-प्रदर्शन वाली लड़ाइयां नहीं लड़ीं, अपितु उन्होंने कानूनी तौर पर राहें निकालकर बाधाओं को हटाने वाले काम किए.

लोग या तो जानते-बूझते ख़ामोश रहते हैं या उन्हें पता ही नहीं होता. लेकिन अरुणा ने इन चुप्पियों को तोड़कर राजस्थान को एक नई तरह की चेतना दी है, जो शासन-प्रशासन को जुंबिश में रखती है. वे कभी उग्र, प्रचंड या झगड़ती हुई सी कभी नहीं दिखतीं; जैसा कि अक्सर आंदोलनकारी हुआ करते हैं. मैंने उन्हें प्रतिकूल से प्रतिकूल स्थिति में ‘कूल’ ही देखा है.

राजस्थान के राजसमंद जिले के देवडूंगरी गांव में मिट्टी की झोपड़ी मुझे अच्छी तरह याद है, जहां हमने निखिल डे और भंवर भाई के साथ खाना खाया. इन कच्चे कोठड़ों के नीचे कितने ही विचार-संघर्ष के माध्यम से सूचना के अधिकार के लिए इबारतें लिखी गईं और अंतत: एक इमारत बनी.

पशुओं के गोबर और लाल मिट्टी से बनी दीवारों और केलू से ख़ास तरह की बनी छतों वाले इन कोठड़ों में पारदर्शिता, जवाबदेही और गरीबों के लिए रोजगार गारंटी के लिए परिवर्तनकामी राष्ट्रीय अभियानों ने जन्म लिया और वे सार्थक हो सके. संघर्षों की इसी यात्रा के दौरान निजी अनुभवों को लेकर अरुणा रॉय ने ‘द पर्सनल इज पॉलिटिकल’ पुस्तक लिखी है.

इसमें उन्होंने एक मार्मिक सच लिखा है, ‘गरीब हमारे घर बनाते हैं; लेकिन खुद फ्लाईओवरों के नीचे, रेलवे स्टेशनों पर, प्लास्टिक शीट के नीचे जीवन बिताते या सीमेंट पाइप में रहकर गुजर-बसर करते हैं.’

उनके संघर्षों में भागीदार रहे शंकरसिंह हों या नौरती बाई, उन्होंने शुरू से ही सबको साथ लेकर राजस्थान के वंचित और निर्धन तबके के लोगों को यह बताने की कोशिश की है कि आप रणक्षेत्र में अपनी मुट्‌ठी भर ऊर्जा के साथ भी डटे रहो तो एक दिन आप वह हासिल कर सकते हैं, जो चाहते हैं. फिर भले जवाबेदही कानून हो या भोजन का अधिकार कानून या इसी तरह के छोटे-छोटे अन्य कानून, अरुणा रॉय ने वंचित और निर्धन तबके के लिए नए-नए कानून बनवाए हैं.

राजस्थान की पंचायतों में सोशल ऑडिट का उनका अभियान बहुत कारगर और प्रभावी रहा था. लेकिन बाद में कांग्रेस और भाजपा की सरकारों ने पंचायतों के भ्रष्टाचार से पर्दा उठाने वाले इस अभियान को बहुत समर्थन नहीं दिया और सीनाज़ोर सरपंचों के सामने सरेंडर कर दिया.

पंचायती राज में बेहतरीन और पुख्ता काम करने वाले तत्कालीन मंत्री और कांग्रेस नेता भरतसिंह कुंदनपुर का पहले विभाग बदला गया और बाद में उन्हें ही हटा दिया गया. अब वे कांग्रेस की राजनीति से ही बाहर हो गए हैं.

अरुणा रॉय के उस अभियान का ज़मीनी स्तर पर इतना असर रहा कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के इलाके में उनकी यात्रा पर भाजपा विधायक के इशारे पर खतरनाक हमले भी हुए.

इस तरह के अनेक संघर्षों के साथ-साथ अरुणा रॉय पीड़ित महिलाओं के भी साथ रही हैं और उन्हें न्याय दिलाने वाले अभियानों का नेतृत्व करती रही हैं. वे न्यूनतम मजदूरी के लिए नौरती के संघर्ष को याद करती हैं. उनका एक उजला पक्ष यह है कि वे हर संघर्ष की कामयाबी का श्रेय अपने साथियों को देती हैं.

बलात्कार के खिलाफ भंवरी देवी की अथक लड़ाई को सामने लाती हैं. पुलिस के उत्पीड़न के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में शामिल होकर एक कॉन्स्टेबल के रूप में नौकरी का बलिदान कर देने वाले लालसिंह की यादें बहुत उद्वेलित करती हैं.

अरुणा रॉय इस पुस्तक में प्रसिद्ध कवयित्री माया एंजेलो के शब्दों को याद करती हैं: ‘हर बार जब कोई महिला खुद के लिए खड़ी होती है, बिना यह जाने कि वह सभी महिलाओं के लिए खड़ी हो चुकी है.’

उनकी पुस्तक का शीर्षक भी माया एंजेलो की कविताओं में से ही फूटा हुआ है. माया एंजेलो एक कवयित्री थीं, लेकिन उनका जीवन करुणा, आंसुओं और संघर्ष की एक महागाथा है.

अरुणा रॉय का राजस्थान के शहरी युवक-युवतियों और ख़ासकर कॉलेज और विश्वविद्यालयों के परिसर में सचेतन हृदय वाले विद्यार्थियों में एक ख़ास आकर्षण भी है. कानोड़िया कॉलेज परिसर में जिस समय उनकी पुस्तक का विमोचन हो रहा था, तब वहां बड़ी संख्या में लड़कियां उन्हें सुनने, मिलने और देखने आई हुई थीं. आजकल बहुत सारी लड़कियों में स्त्रीवाद की विचारशीलता भी प्रज्वलित है. अरुणा रॉय को सुनने आई इन लड़कियों में वह विचारशीलता आप जिज्ञासा और कौतूहल के रूप में देख सकते थे.

अरुणा रॉय तमिलनाडु से राजस्थान आई थीं, तो बहुत पहले श्रीलता स्वामीनाथन केरल से आई थीं. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से दीक्षित श्रीलता भारतीय रुपहले पर्दे पर एक नायिका बनकर चमक सकती थी, लेकिन उन्होंने बंधुओं मजदूरों, किसानों, कृषि श्रमिकों और खनन मजदूरों के बीच काम करना चुना. उन्होंने बेहद पिछड़े इलाके प्रतापगढ़ में आदिवासियों के बीच आखिरी सांस लेने तक रचनात्मक अभियान चलाए रखे.

अफ़सोस कि उनके संस्मरणों की पुस्तक नहीं है.

अलबत्ता, अरुणा रॉय ने राजस्थान के अंधकार भरे इलाकों में सरकारी तंत्र की छाती पर जो दीपशिखा जलाई है, उसकी रोशनी में बहुत सारी इबारतें पढ़कर लोग अपने जीवन को आलोकित कर रहे हैं. इस मामले में उनकी पुस्तक में बहुत कुछ है, जो आगे ही राह दिखाता है. ख़ासकर वह साहस, जिसके सहारे उन्होंने इतनी लंबी यात्रा की.

इस किताब का सार भी यही है कि साहस सभी गुणों में सबसे महत्वपूर्ण है; क्योंकि साहस के बिना आप किसी अन्य गुण का लगातार अभ्यास नहीं कर सकते.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)