बंगनामा: झाल मूढ़ी का तड़का और आर्थिकी

झाल मूढ़ी बंगाल की खाद्य संस्कृति का एक प्रतीक है. बीते दशकों में मूढ़ी के उत्पादन और खपत दोनों में बढ़ोत्तरी हुई. लेकिन क्या इसके उत्पादकों की तरक्की हुई है? बंगनामा स्तंभ की छठी क़िस्त.

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(फोटो साभार: অলি রাহা/Wikimedia Commons)

कई वर्ष पहले कलकत्ता से छपने वाले कुछ अख़बारों में एक तस्वीर छपी थी जिसमें न्यूयॉर्क के क्वींज़ इलाक़े में सड़क के किनारे एक अमेरिकी सज्जन छोटे मगर सुसज्जित ठेले से झाल मूढ़ी बेचते दिखाई दे रहे थे. ठेले का नाम अंग्रेज़ी और बांग्ला दोनों भाषाओं में लिखा था – ‘बाउल दादा झाल मूढ़ी दुकान.’ बंगाल से परिचित लोगों का इस तस्वीर को देख कर मुस्कराना स्वाभाविक था.

किसने सोचा था कि बंगाल के हर चौराहे पर मिलने वाले मूढ़ी को अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त होगी? अगर आपने उत्तर से पूर्वोत्तर भारत की ओर दिन में रेल से सफ़र किया है तो निश्चय ही आप भी झाल मूढ़ी से परिचित हैं. बिहार और बंगाल की सीमा पार करते-न-करते आपने स्टेशन पर या ट्रेन के गलियारे से किसी को आवाज़ लगाते सुना होगा, ‘झाऽऽल मूढ़ी.’ प्रबल संभावना है कि आपने पुराने अख़बार से बने तिकोने ठोंगों में बारीक कटे हरी मिर्च और प्याज़ भिगोए चने, मूंगफली, सरसों के तेल और तीखे मसाले से लैस और नारियल की एक पतली फांक से सुसज्जित, तेज-चटपटी झाल मूढ़ी खाई भी होगी. फिर सी-सी करते, लहरते मुंह को राहत देने के लिए कुल्हड़ की गर्म चाय का सहारा लिया होगा.

पर क्या आप जानते हैं कि जिस चटपटे रंग, रूप और स्वाद से झाल मूढ़ी को बंगाल से बाहर लोग पहचानते हैं उस प्रकार से पश्चिम बंगाल के निवासी इसका सेवन कम करते हैं?

बंगाल में मूढ़ी, जिसे उत्तर भारत में मुरमुरे और लाई के नाम से भी जाना जाता है, लगभग उतना ही इस्तेमाल होता है जितना कि चावल. 1960-70 के दशक से बाक़ी देश के साथ पश्चिम बंगाल में भी गेहूं, और रोटी, के चलन में काफ़ी वृद्धि हुई. कई इलाक़ों में तो रात के भोजन में रोटी ने भात की जगह ले ली. परंतु मूढ़ी अपनी जगह बरकरार है. विशेष रूप से ग्रामीण बंगाल में सुबह के जलपान में अक्सर मूढ़ी खाई जाती है. शायद यही कारण है कि चावल के संग मूढ़ी भी खेत मज़दूरों की मज़दूरी का एक हिस्सा होता है.

कोई आश्चर्य नहीं कि गांव हो या शहर, लोग-बाग दिन में किसी भी वक्त भूख मिटाने के लिए मूढ़ी खा लेते हैं. इसकी लोकप्रियता के कई कारण हैं – सहज है, सस्ती है, सर्वत्र प्राप्त है, भुने चने की तरह पेट भरने के लिए खुद काफ़ी है, और इसे काम करते हुए भी खाया जा सकता है. शहरी इलाक़ों में लोग दफ़्तर से घर लौटकर प्रायः शाम के नाश्ते में मूढ़ी का सेवन करते हैं. इस समय मूढ़ी के साथ भुनी मूंगफली और चने या चनाचूर मिलाकर खाना आम है. संध्या के जलपान में कई लोग मूढ़ी के साथ बैंगन के पकौड़े- बेगुनी, आलू चॉप या सिंघाड़े खाने के शौक़ीन हैं. साथ में अगर मुंह झुलसाने वाली मिर्च भी हो तो क्या कहने.

एक पूर्व मुख्यमंत्री के बारे में यह प्रचलित था कि संध्या के समय उन्हें मूढ़ी के साथ बेगुनी पसंद है. लेकिन जिस तरह की मसालेदार झाल मूढ़ी अमेरिकी बाउल दादा न्यूयॉर्क में बेच रहे थे या फिर यहां ट्रेनों में बिकती है, वैसी झाल मूढ़ी साधारणतः लोग अपने घर में कभी-कभार ही खाते हैं.

बचपन में झारखंड के अपने छोटे-से शहर में मैं एक बंगाली मूढ़ी विक्रेता को सिर पर मूढ़ी की विशाल बोरी उठाए हुए मुहल्लों में आवाज़ लगाते हुए घूमते देखा करता था. अभी भी उनकी छवि मेरे सामने आ जाती है- लंबा क़द, दुबली काठी और सांवले चेहरे पर हमेशा थकान या चिंता की लकीरें. उनकी बोरी के अंदर प्लास्टिक के बड़े थैले में मूढ़ी धूप, धूल और नमी से सुरक्षित रहती थी. मूढ़ी वाला उसमें से एक पीतल की प्याली से नाप कर उजली, चमकती हुई मूढ़ी निकालता था. मैंने उनसे एक बार पूछा था कि आप कहां से आए हैं. उनका उत्तर था, ‘बोरधोमान.’ बाद में मुझे पता चला कि राज्य में सबसे अधिक मूढ़ी बर्धमान और बांकुड़ा ज़िलों में बनती है.

मूढ़ी बनाने वालों से मेरी पहली मुलाक़ात मेरे प्रशिक्षण ज़िले, उत्तर 24 परगना, में हुई थी. 1990 अगस्त के मेघाच्छादित महीने में किसी काम से मैं एक दिन बारासात से क़रीब 18 किमी. दूर कांचियारा ग्राम में था. दक्षिण पाड़ा में कुछ हटकर बने मिट्टी और फूस के दो तीन घर दिखे. उन घरों के बीच एक छोटा आंगन था जिसके एक कोने में छप्पर के नीचे दो तीन महिलाएं कुछ करती दिखीं. पास गया तो पता चला कि वह महिलाएं मिट्टी के चूल्हे पर लोहे की रेत भरी कड़ाही में चावल भूनकर मूढ़ी बना रही हैं. मैं उनसे बातें करने लगा.

पता चला कि मूढ़ी बनाने की तैयारी एक दिन पहले शुरू हो जाती है. सर्वप्रथम जिस चावल से मूढ़ी बनती है, उसे फटककर, धोकर, उसमें नमक मिलाकर उसे सुखाया जाता है. अगले दिन तैयार किए गए चावल को कड़ाही में भूना जाता है और भूनते वक्त उसमें थोड़ा तेल भी मिलाया जाता है. अगले चरण में चावल को भूनने के लिए रेत का व्यवहार किया जाता है. रेत को भी धो-सुखाकर पहले अलग से भूना जाता है. भूनते वक़्त रेत में भी थोड़ा तेल मिलाया जाता है. जब रेत पूरी तरह गर्म हो जाती है तो उसमें चावल डालकर भूना जाता है.

मेरे देखते ही देखते पट-पट-पट-पट की ध्वनि के साथ कड़ाही सफ़ेद, चमकीली मूढ़ी से भर गई और महिलाओं ने उसे बांस की एक छन्नी में निकालकर उसे रेत से अलग कर दिया. इस प्रक्रिया में मूढ़ी सुनहरी, पर रेत काली हो जाती है.

मैं यह सब सुन, देख और समझ रहा था कि तभी महिला के पति उत्तम दास और उनके भाई दुलाल नइहाटी बाज़ार से मूढ़ी बनाने का चावल लेकर वापस पहुँचे. दोनों भाई मिलकर यह व्यवसाय करते थे. घर और घर के आंगन के काम का दायित्व महिलाओं पर था और बाहर का काम पुरुषों का था. मूढ़ी बनाने का चावल और जलावन – उपले और लकड़ी – लाना और मूढ़ी के बिक्री की व्यवस्था करना भी उनकी ज़िम्मेदारी थी.

चूंकि वह मूढ़ी की बिक्री के लिए थोक विक्रेताओं पर निर्भर करते थे, उनकी मुख्य समस्या यह थी कि उन्हें समय से पैसे नहीं मिलते थे तथा हमेशा काम करने की पूंजी की तंगी रहती थी. दोनों भाइयों ने ऋण के लिए बैंक में आवेदन किया था. बैंक के अफ़सर निरीक्षण के लिए आए भी, किंतु उनके घर और फूस के छप्पर से आश्रित कार्यस्थल के मुआयने के बाद उन्हें आवेदन की अस्वीकृति का पत्र भी नहीं मिला.

बीते हुए दशकों में मूढ़ी का उत्पादन और खपत दोनों में बढ़ोत्तरी हुई है. अब कारखानों में बड़ी संख्या में लोगों को नियुक्त कर, भारी उपकरणों का इस्तेमाल कर मूढ़ी का उत्पादन किया जा रहा है. बाज़ार में तरह-तरह के मसालों से युक्त लुभावने पैकिंग में नाना स्वाद वाली महंगी झाल मूढ़ी भी मिल रही है. कल का कुटीर उद्योग पदोन्नति पाकर आज का मध्यम उद्यम बन चुका है. लेकिन क्या उत्तम, दुलाल दास और उनके परिवारों की भी उन्नति हुई है?

(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)

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