देश में दलित व्यवसायियों की आय अन्य की तुलना में 15 से 18 फीसदी कम है: रिपोर्ट

आबादी के विभिन्न समूहों की आय के पैटर्न पर किए गए एक अध्ययन के निष्कर्षों से पता चलता है कि दलितों को समाज में दोष और लांछन का सामना करना पड़ता है जो अन्य वंचित समुदायों जैसे कि ओबीसी, आदिवासी या मुसलमानों द्वारा सामना किए जाने वाले व्यवहार से अलग है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: फ्लिकर)

नई दिल्ली: आबादी के विभिन्न समूहों की आय के पैटर्न पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि दलित समुदायों के व्यवसाय मालिक अन्य व्यवसाय मालिकों, जिनमें अन्य वंचित समुदायों के लोग भी शामिल हैं, की तुलना में 16% कम कमाते हैं.

शोधकर्ताओं का मानना है कि यह दलित समुदायों द्वारा सामना किए जाने वाले सामाजिक लांछन को दर्शाता है.

रिपोर्ट के मुताबिक, अध्ययन के एक प्रमुख निष्कर्ष से पता चलता है कि ‘सामाजिक पूंजी’, जिसे व्यापक रूप से सामाजिक लांछन अथवा भेदभाव का मुकाबला करने वाली एक सकारात्मक शक्ति के रूप में देखा जाता है, दलित समुदायों से ताल्लुक रखने वाले व्यवसाय मालिकों की आय बढ़ाने में मदद नहीं करती है.

अध्ययन के अनुसार, सामाजिक पूंजी का अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और मुसलमानों जैसे हाशिए पर पड़े अन्य समूहों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा. हालांकि, दलित समुदायों या अनुसूचित जातियों (एससी) के मामले में इसने कोई खास मदद नहीं की, जिसके परिणामस्वरूप समान सामाजिक पूंजी वाले अन्य लोगों की तुलना में उनकी आय में कमी आई.

भारतीय प्रबंधन संस्थान (बेंगलुरू) में सहायक प्रोफेसर और अध्ययन दल के प्रमुख सदस्य प्रतीक राज ने टेलीग्राफ को बताया, ‘यह आश्चर्यजनक था, बिल्कुल अप्रत्याशित – आमतौर पर यह माना जाता रहा है कि सामाजिक पूंजी सभी की मदद करती है.’

उन्होंने कहा, ‘लेकिन हमारे निष्कर्षों से पता चलता है कि दलितों को दोष और लांछन का सामना करना पड़ता है, जो अन्य वंचित समुदायों जैसे कि ओबीसी, आदिवासी या मुसलमानों द्वारा सामना किए जाने वाले व्यवहार से अलग है.’

यह अध्ययन प्लोस वन (PLOS One) जर्नल में प्रकाशित हुआ है.

द टेलीग्राफ के मुताबिक, राज और उनके सहयोगियों द्वारा किया गया यह अध्ययन देश भर में आबादी के विभिन्न समूहों में आय के पैटर्न का पता लगाने वाले पहले अध्ययनों में से एक है, जिसमें एक अखिल भारतीय सर्वे के डेटा और आय को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों के प्रभावों को रद्द करने के लिए डिज़ाइन किए गए गणितीय माध्यमों का उपयोग किया गया है.

राज ने कहा, ‘हमने डेटा का विश्लेषण करने के लिए तीन तकनीकों का इस्तेमाल किया और प्रत्येक तकनीक से समान परिणाम मिले: दलित व्यवसाय मालिकों और अन्य व्यवसाय मालिकों के बीच 15 प्रतिशत से 18 प्रतिशत के बीच आय का अंतर है, जिसे केवल जाति के कारण माना जा सकता है, न कि शहरी या ग्रामीण स्थान, शिक्षा, पारिवारिक पृष्ठभूमि या भूमि स्वामित्व जैसे अन्य कारकों के कारण.’

सर्वेक्षण के आंकड़ों में परिवारों की सामाजिक पूंजी के बारे में जानकारी शामिल थी, जिसे निर्वाचित अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों, डॉक्टरों, अन्य स्वास्थ्य कर्मियों, शिक्षकों या पुलिस अधिकारियों जैसे विभिन्न पेशों के सदस्यों से उनकी जानकारी लेकर मापा गया.

2021 की जनगणना के साथ- साथ अपडेट की गई जातिगत जनगणना के अभाव में, यह अनुमान लगाया गया है कि भारत की 140 करोड़ आबादी में दलितों की संख्या लगभग 25-30 करोड़ है.

ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न विश्वविद्यालय में प्रबंधन के प्रोफेसर और अध्ययन दल के एक अन्य सदस्य हरि बापूजी ने टेलीग्राफ को बताया, ‘हमारा मानना ​​है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि दलितों को लांछन का सामना करना पड़ता है, जो उनसे व्यक्तिगत तौर पर जुड़ा हुआ है और सामाजिक व्यवहार में बना रहता है.’

राज ने कहा कि इसका मतलब जरूरी नहीं कि स्पष्ट भेदभाव हो, बल्कि यह जड़ जमाए हुए रवैये और संभवतः अनजाने में किए गए व्यवहार के परिणामस्वरूप सामने आ सकता है.