आज़ादी की सालगिरह कोई तमाशा नहीं, उससे फिर से इक़रार करने का दिन है

'आज़ादी की लड़ाई हमेशा जारी रहती है. कभी उसका अंत नहीं होता. हमेशा उसके लिए परिश्रम करना पड़ता है, हमेशा उसके लिए क़ुर्बानी करनी पड़ती है, तब वह क़ायम रहती है.'

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(फोटो साभार: पीआईबी)

आधुनिक भारत और उसके लोकतंत्र के निर्माताओं में से एक जवाहरलाल नेहरू को इस संसार से गए साठ साल हो गए हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवारियों ने 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के फौरन बाद ही उनकी छवियों के ध्वंस का कुत्सा से भरा हुआ जो अभियान नए सिरे से आरंभ कर दिया था, वह खत्म होने को नहीं आ रहा. अलबत्ता, सफल भी नहीं हो पा रहा.

उलटे उसके चलते देशवासियों में नेहरू को नए सिरे से पढ़ने व जानने-समझने का चाव पैदा हो रहा है, जो एक कार्टूनिस्ट के उस कार्टून में भी परिलक्षित होता है, जिसमें नेहरू यह कहते दिखते हैं कि ‘अब मुझे लोगों से ज्यादा प्यार मिलने लगा है और मैं इसके लिए नरेंद्र मोदी को धन्यवाद देता हूं.’

इस ‘ज्यादा प्यार’ का एक बड़ा कारण नेहरू के विचारों में है तो दूसरा व्यक्तित्व में. पहले व्यक्तित्व की बात करें तो उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों में कौन कहे (जब उन्होंने अपने जीवन के नौ से ज्यादा साल अंग्रेजों से लड़ते हुए उनकी जेलों में बिताए) स्वतंत्रता के बाद भी (जब वे प्रधानमंत्री के पद पर आसीन थे और ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ कहलाने लगे थे) उसे पारदर्शी तो बनाए ही रखा. खुद को इतने ‘ऊंचे’ आसन पर बैठाने की गलती नहीं की कि ‘सर्वथा अनालोच्य’ हो जाएं.

‘डोन्ट स्पेयर मी’

क्या ताज्जुब कि पिछले दस सालों में उनके जैसी ‘ऊंचाई’ हासिल करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार दिखते रहे मोदी और उनकी पांतों के लिए यह समझना लगातार कठिन बना हुआ है कि उन दिनों, विपक्ष तो विपक्ष, कांग्रेस तक में नेहरू के आलोचकों की कमी नहीं थी. उनके कई आलोचक तो मौका पाते ही निंदक का रूप धर लेते थे, फिर भी इतिहास में उनके उत्पीड़न की एक भी मिसाल दर्ज नहीं है.

यह नेहरू का ही कलेजा था कि एक कार्टूनिस्ट के कार्टूनों के संग्रह का लोकार्पण करते हुए उन्होंने कहा था कि वह उनके प्रति निर्मम होने से भी परहेज न करे-‘डोन्ट स्पेयर मी, मिस्टर कार्टूनिस्ट’.

दूसरा कारण उनके दो टूक विचारों में है, जिनमें इतना भी लोचा नहीं है कि उनके आलोचकों को सिर छुपाने की जगह मिल सके. दरअसल, वे अपनी पुस्तकों, भाषणों अथवा व्याख्यानों किसी में भी किसी छद्म के लिए कोई गुंजाइश नहीं रखते. तब भी नहीं, जब अपनी विफलताओं को स्वीकार करने की मजबूरी का सामना कर रहे हो.

आजादी के पहले सूर्यादय से पूर्व 14 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि तत्कालीन वायसराय लॉज (अब राष्ट्रपति भवन) में उनके ऐतिहासिक भाषण-‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’-को यों ही बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ भाषणों में नहीं गिना जाता.

लेकिन यहां इससे भी ज्यादा उल्लेखनीय यह है कि उनके तब के संबोधन भी कमजोर नहीं हैं, जब आजादी के बाद की तल्ख हकीकतों से रूबरू देश का उल्लास फीका और उत्साह मंद पड़ने लगा था.

मंजिल अभी नहीं आई

मिसाल के तौर पर, 1954 के स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से देशवासियों को आईना दिखाते हुए उन्होंने कहा था:

हम अभी आजादी के रास्ते पर हैं, यह न समझिए कि मंजिल पूरी हो गई… हमें इस देश के एक-एक आदमी को आजाद करना है… अगर देश में कहीं गरीबी है तो (मानना होगा कि) वहां तक आजादी नहीं पहुंची. इसी तरह अगर हम आपस के झगड़ों में फंसे हुए हैं, आपस में बैर है, बीच में दीवारें हैं, हम एक दूसरे से मिलकर नहीं रहते, तब भी हम पूरे तौर पर आजाद नहीं हैं…. हिंदुस्तान के किसी गांव में किसी हिंदुस्तानी को, चाहे वह किसी भी जाति का है, अगर उसको हम चमार कहें, हरिजन कहें, अगर उसको खाने-पीने में रहने-चलने में वहां कोई रुकावट है, तो वह गांव भी आजाद नहीं है, गिरा हुआ है.

इसके चार साल बाद 1958 के स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से वे कुछ और यथार्थवादी हो उठे थे:

यहां मैं आपके सामने किसी एक दल की तरफ से नहीं खड़ा हुआ हूं. एक मुसाफिर की तरह से, आपके हमसफर के रूप में खड़ा हुआ हूं. इस मुल्क के करोड़ों आदमियों से और आपसे… यह दरखास्त करने कि जरा हम अपने दिल में देखें, अपने को और औरों को समझाएं कि इस वक्त (आजादी के ग्यारह बरस बाद) लोग आपस में झगड़ा-फसाद करते हैं, एक दूसरे को मारते हैं और एक दूसरे की संपत्ति को जलाते हैं तो हमारा फर्ज क्या है, हमारा कर्तव्य क्या है?…कोई भी पॉलिसी हो, उसमें हम कामयाब एक ही तरह से हो सकते हैं कि हम मिलकर, शांति से, अदम-तशद्दुद से काम करें… नहीं तो हमारी सारी ताकत एक दूसरे के खिलाफ ज़ाया हो जाती है. अगर हमारी राय में फर्क है तो हम एक दूसरे को समझाएं, एक दूसरे को अपनाएं. और कोई जरिया नहीं है इस मुल्क में. और कोई तरीका नहीं है.

आजादी की लड़ाई खत्म नहीं होती

इसके दो साल बाद 1960 में उन्होंने लाल किले से कहा था:

आजादी की सालगिरह कोई तमाशा नहीं है. यह एक बार फिर से इकरार करने का दिन है-फिर से प्रतिज्ञा करने का, फिर से जरा अपने दिल में देखने का कि हमने अपना कर्तव्य पूरा किया कि नहीं. आजादी की लड़ाई हमेशा जारी रहती है. कभी उसका अंत नहीं होता. हमेशा उसके लिए परिश्रम करना पड़ता है, हमेशा उसके लिए कुर्बानी करनी पड़ती है, तब वह कायम रहती है. जब कोई मुल्क या कौम ढीली पड़ जाती है, कमजोर हो जाती है, असली बातें भूलकर छोटे झगड़ों में पड़ जाती है, उसी वक्त उसकी आजादी फिसलने लगती है.

उन्होंने पूछा था:

आजादी किसके लिए आई? क्या चंद लोगों के लिए आई? जवाहरलाल के लिए आई कि उसको आपने चंद रोज के लिए प्रधानमंत्री बना दिया? जवाहरलाल आएंगे और जाएंगे, और लोग भी… लेकिन हिंदुस्तान तो आता ही है, जाता नहीं है और हमेशा रहेगा… तो फिर सबके लिए, जो हिंदुस्तान के चालीस करोड़ आदमी हैं, औरते हैं और बच्चे हैं, जो आजादी के हिस्सेदार हैं, वारिस हैं, उसको पूरा फायदा मिले, तब आजादी पूरी होगी.

इससे एक दशक पहले मार्च, 1950 में बेकाबू होती सांप्रदायिकता को लेकर उन्होंने मुख्यमंत्रियों को एक पत्र में लिखा था:

हममें से कुछ लोगों की यह फितरत है कि वे भारत के मुसलमानों से देश के प्रति वफादारी साबित करने और पाकिस्तान समर्थक प्रवृत्तियों की निंदा करने की मांग करते हैं. इस तरह की प्रवृत्तियां निश्चित तौर पर गलत हैं और उनकी निंदा की जानी चाहिए. लेकिन मैं समझता हूं कि भारतीय मुसलमानों के वफादारी साबित करने पर बार-बार जरूरत से ज्यादा जोर डालना गलत है. वफादारी किसी आदेश या भय से नहीं पैदा होती. यह वक्त के सहज प्रवाह में अपने आप पैदा होती है और धीरे-धीरेे न सिर्फ एक प्रेरक मनोभाव बन जाती है बल्कि व्यक्ति को लगता है कि इसी में उसका भला है. हमें ऐसे हालात बनाने होंगे, जिनमें लोगों के अंदर इस तरह के मनोभाव पैदा हो सकें. किसी भी हाल में अल्पसंख्यकों की निंदा करने और उन पर दबाव बनाने से कोई फायदा नहीं होगा.

‘भारतमाता’ और ‘राष्ट्रगान’

‘भारतमाता’ (जिनकी जय के नारों को लेकर भी पिछले दस सालों में कुछ कम विवाद नहीं हुए हैं) की बाबत तो उन्होंने 1920 में ही कह दिया था कि हम सब भारतमाता का एक-एक टुकड़ा हैं और हमसे मिलकर ही भारतमाता बनती है. जब भी हम भारतमाता की जय बोलते हैं तो असल में अपनी ही जय बोल रहे होते हैं. जिस दिन हमारी गरीबी दूर हो जाएगी, हमारे तन पर कपड़ा होगा, हमारे बच्चों को अच्छी से अच्छी तालीम मिलेगी, हम सब खुशहाल होंगे, उसी दिन भारतमाता की सच्ची जय होगी. अगर हम ही, जो अंग्रेजी राज में जुल्म गरीबी व भुखमरी का सामना करते हुए अपनी आजादी के लिए लड़ रहे हैं, नहीं होंगे तो इस धरती को भारतमाता कौन कहेगा?

15 जून, 1948 को उन्होंने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय के पत्र के जवाब में लिखा था:

राष्ट्रगान विजय और उससे मिली संतुष्टि का प्रतीक होना चाहिए, न कि अतीत के संघर्ष का. राष्ट्रगान मुख्य रूप से संगीत है, न कि शब्द…. वंदेमातरम् हमारी आजादी की लड़ाई से जुड़ा हुआ है और उसे इसी रूप में सम्मान दिया जाएगा. लेकिन राष्ट्रगान संघर्ष और रिश्ते दिखाने वाली उन चीजों से अलग है, जिनका वंदेमातरम् प्रतिनिधित्व करता है. .. राष्ट्रगान का संगीत ऐसा होना चाहिए जो जोश दिला दे और जिसे संतोषजनक ढंग से सारी दुनिया में बजाया जा सके. इस लिहाज से ‘जन गण मन’ में एक आदर्श मधुर आरोह-अवरोह है.

और अंत में

नई दिल्ली में नौ अप्रैल, 1950 को इंडियन काउंसिल फॉर कल्चरल रिलेशंस के स्थापना दिवस समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा:

जब लोग भूखे हों और मर रहे हों तो संस्कृति के बारे में, यहां तक कि ईश्वर के विषय में भी बात करना बेवकूफी है. किसी भी दूसरे विषय पर बात करने से पहले सामान्य मनुष्यों के जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी करना सबसे जरूरी है. आज का इंसान कष्टों, भुखमरी और असमानता को बर्दाश्त करने की मनःस्थिति में नहीं है. विशेषकर जब दिख रहा है कि बोझ बराबर नहीं उठाया जा रहा. कुछ थोड़े से लोग मुनाफा कमाते हैं और बाकी बहुत से लोग केवल बोझ उठाते हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)