नई दिल्ली: देश के एक केंद्रीय विश्वविद्यालय को भारतीय न्यायशास्त्र पर केंद्रित एलएलबी कार्यक्रम शुरू करने के लिए बार काउंसिल ऑफ इंडिया से मंजूरी मिल गई है.
द टेलीग्राफ के मुताबिक, भारतीय न्यायशास्त्र पर केंद्रित इस एलएलबी में हिंदू जाति व्यवस्था के संहिताकरण के लिए जाने जाने वाले मनुस्मृति के चयनित हिस्से को भी पढ़ाया जाएगा.
हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के एलएलबी पाठ्यक्रम में मनुस्मृति को शामिल करने का प्रस्ताव पास किया गया था. काफी विवाद के बाद प्रस्ताव को वापस ले लिया गया था. इसके बावजूद केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय (सीएसयू) ने अपने पाठ्यक्रम में मनुस्मृति के ‘शाश्वत ज्ञान’ को शामिल करने का फैसला किया है.
सीएसयू के कुलपति (वीसी) प्रोफेसर श्रीनिवास वरखेड़ी ने द टेलीग्राफ को बताया कि छात्रों, शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं और समाज को उस समय के सामाजिक परिवेश को ध्यान में रखते हुए प्राचीन ग्रंथों की व्याख्या करनी चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘मनुस्मृति या कोई अन्य स्मृति कई हजार साल पहले लिखी गई थी. इन ग्रंथों के दो खंड हैं- एक शाश्वत ज्ञान और दूसरा सामाजिक संदर्भ और प्रथाओं के बारे में है. शाश्वत ज्ञान ऐसा है जैसे व्यक्ति को स्वयं के प्रति सच्चा होना चाहिए. शाश्वत सिद्धांत मनुस्मृति का मूल पाठ है.’
उन्होंने दावा किया कि वर्ण और जाति हजारों साल पहले सामाजिक प्रथा के हिस्से के रूप में विकसित हुए थे. हालांकि, वर्ण या जाति से लोगों में कोई अलगाव नहीं था.
उन्होंने कहा, ‘मनुस्मृति ने केवल सामाजिक प्रथा का वर्णन किया है. इसमें पालन करने के लिए कोई नियम नहीं बताया गया था. न्यायशास्त्र पर पाठ्यक्रम में छात्र सामाजिक प्रथाओं और सुधारों के विकास का गंभीर विश्लेषण करेंगे. बार काउंसिल ने पाठ्यक्रम की अनुमति दी है, जिसमें बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सामाजिक सुधारों पर सामग्री भी शामिल होगी.’
वरखेड़ी ने कहा, ‘बदलते समय के साथ मनुस्मृति को कई तरह की व्याख्याओं से गुजरना पड़ा है. यह विद्वतापूर्ण बहस का विषय है. हालांकि, मनुस्मृति के नाम से प्रकाशित हर चीज को मूल लेखक के नाम पर नहीं ले जाना चाहिए.’
इस बारे में डीयू अकादमिक परिषद की सदस्य माया जॉन ने कहा कि मनुस्मृति न केवल अराजकतावादी है, बल्कि भारतीय समाज के कई वर्गों द्वारा घृणा की जाती है.
जीसस एंड मैरी कॉलेज में इतिहास पढ़ाने वाली जॉन ने कहा, ‘न्यायशास्त्र का पेपर समकालीन कानूनी प्रणालियों पर सवाल उठाने वाला होना चाहिए. प्राचीन युग के प्रवचनों और प्रथाओं के सत्यापन की तलाश करने की जरूरत नहीं है. अगर भारतीय परंपराओं को तुलना, विरोधाभास और आलोचना के उद्देश्य से शामिल करना है, तो भी एक नया पाठ्यक्रम तैयार करते समय भारतीय दर्शन और सोच में विचारों की विविधता की अनदेखी क्यों की जाती है.’