बात थोड़ी पुरानी है- गत लोकसभा चुनाव की, लेकिन है बहुत दिलचस्प. अपना दल (एस) की सुप्रीमो अनुप्रिया पटेल अपने कौशांबी लोकसभा सीट के प्रत्याशी के लिए वोट मांगने पहुंचीं तो जनसत्ता दल (लोकतांत्रिक) के सुप्रीमो रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया (जो कौशांबी लोकसभा सीट के ही अंतर्गत आने वाली कुंडा विधानसभा सीट के विधायक हैं) की ओर निशाना साधते हुए कह गईं कि अब राजाओं का जन्म रानियों के पेट से नहीं, इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों से होता है और इस चुनाव में मतदाताओं के पास कुंडा को अपनी जागीर समझते आ रहे स्वघोषित राजा को सबक सिखाने का सुनहरा अवसर है.
उनके बाद सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के सुप्रीमो ओमप्रकाश राजभर यह कहने की हद तक चले गए कि अब रानियां राजाओं को भला कैसे जन्म दे सकती हैं, बाबासाहब डॉ. भीमराव आंबेडकर बहुत पहले उनका आपरेशन कर गए हैं. अनंतर, राजा भैया ने अपने ऊपर इन हमलों का यह कहकर प्रतिवाद किया कि इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों से राजा नहीं जनप्रतिनिधि पैदा होते हैं- जनसेवक, जिन्हें मतदाता निर्धारित अवधि तक अपनी सेवा के लिए चुनते हैं और इन जनसेवकों को राजा मान लेने से तो लोकतंत्र की मूलभावना ही हार जाएगी.
जैसा कि बहुत स्वाभाविक था, इस हमले व बचाव से जन्मे विवाद ने अनेक लोगों में राजाओं, महाराजाओं, बादशाहों, सम्राटों और नवाबों आदि की सामाजिक अवस्थिति को लेकर बड़ी जिज्ञासा जगा दी, जिसे अभी भी शमन की दरकार है.
कौन थे राजा
जानकारों के अनुसार राजा शब्द भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू या बौद्ध शासकों द्वारा अपनी उपाधि के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा है. संस्कृत के ‘राजन्’ से निकला यह शब्द अंग्रेजी के ‘किंग’ का समानार्थी है और हिंदी में इसके नृप, भूप, भूपति, नृपति, महिपाल, नरेंद्र, नरेश, राव, नरपति, भूपाल, महीप और महाराज आदि अनेक पर्याय हैं. राजा अपनी सीमाओं में संप्रभु शासक होते थे और उनका अपने राज्यों पर पूर्ण राजनीतिक व सैन्य नियंत्रण होता था. तत्कालीन वंशानुगत राजतंत्र की व्यवस्था में उनकी उपाधि प्रायः लंबे अरसे तक उन्हीं के परिवार में बनी रहती थी.
सम्राट, छत्रपति व चक्रवर्ती
लेकिन इन राजाओं के भी राजा हुआ करते थे,जो सम्राट कहलाते थे. बताते हैं कि किसी के सम्राट होने की योग्यता राजसूय यज्ञों की परंपरा तक जाती थी. एक शब्दकोश कहता है कि सम्राट वह कहलाता था, जिसने राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान सफलतापूर्वक संपन्न कर लिया हो. वह इस अर्थ में राजाओं का राजा होता था कि उसका अनेक राजाओं पर ‘आधिपत्य’ होता था. यानी राजाओं के मुकाबले उसका इकबाल बहुत बड़ा और बुलंद होता था. इसे यों समझ सकते हैं कि राजाओं में अग्रगण्य या कि श्रेष्ठ को महाराजा कहते थे और सम्राट महाराजा से भी श्रेष्ठ व शक्तिशाली होता था.
प्रसंगवश, मराठा साम्राज्य के शासकों द्वारा अलग छत्रपति की उपाधि प्रयोग की जाती थी. मराठी में इसका अर्थ है स्वामियों में सर्वोच्च और संप्रभु. दूसरी ओर उन सम्राटों को चक्रवर्ती कहते थे, जिनका पूरी धरती पर एकछत्र राज्य हो. इस लिहाज से दुनिया में चक्रवर्ती सम्राट दुर्लभ थे, लेकिन जो सम्राट विशाल साम्राज्यों के स्वामी हुआ करते थे, उनके दरबारी कवि उन्हें अपनी कल्पनाओं में पूरी धरती का शासक मान लेते और चक्रवर्ती के रूप में उनकी प्रशस्तियां गाते थे. विशाल भारत में ऐसे कई चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं.
बादशाह, पादशाह व सुल्तान
सम्राट का फारसी पर्याय है बादशाह. यह उपाधि दक्षिण व मध्य एशिया में आमतौर पर ऐसे स्वयंभू शासकों या स्वतंत्र सत्ताधारियों के लिए इस्तेमाल की जाती थी जो अपने कार्यकलापों के लिए किसी के भी समक्ष उत्तरदायी न हों.
यों, शब्दकोशों में प्रयोग भेद से बादशाह शब्द के कई और अर्थ दिए गए हैं. मिसाल के तौर पर: मालिक, खुदावंद, अन्नदाता, हुजूर, साहब, जनाब, श्रीमान, दानवीर, निरंकुश, अमीर, दूसरों से बेपरवाह, अपनी इच्छा का स्वामी, सरदार, उच्च, वरिष्ठ, प्रतिष्ठित और सरदार वगैरह-वगैरह. किसी कला में पारंगत उस्ताद को भी बादशाह ही कहते हैं- ताश के एक पत्ते और शतरंज के एक मोहरे को भी. किसी को अतिरिक्त सम्मान प्रदान करने के लिए भी उसे बादशाह कहकर संबोधित किया जाता है.
फारसी में इसका समानार्थी एक पादशाह शब्द भी है जो भारत में उपाधि के तौर पर मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के लिए प्रयुक्त होता था.
हिंदू पद पादशाही
मराठों के दूसरे पेशवा बाजीराव प्रथम (1720-1740) ने भारत से मुसलमानों का शासन खत्म करने के लिए हिंदू राजाओं की एकता का जो विफल प्रयास किया था, उसे भी ‘हिंदू पद पादशाही’ का ही नाम दिया था.
अरबी का ‘सुल्तान’ शब्द भी बादशाह का ही समानार्थी है. जानकारों के अनुसार महमूद गजनवी दुनिया का पहला ऐसा स्वतंत्र मुस्लिम शासक था, जिसे सुल्तान कहा गया.
नवाब यानी डिप्टी
अब नवाबों की बाबत कुछ बातें. अरबी शब्द ‘नायब’ से उत्पन्न और कई अन्य भाषाओं में प्रयुक्त होते आ रहे इस शब्द को ज्यादातर डिप्टी या वायसराय के अर्थ में लिया गया है. अपने देश में बंगाल, अवध और हैदराबाद आदि के नवाब मुगल सल्तनत के डिप्टी हुआ करते थे. दरअसल, इस सल्तनत ने एक समय देश के विभिन्न सूबों में सुचारू सत्ता संचालन के लिए जो नायब, नाजिम, सूबेदार या गवर्नर नियुक्त किए, वे ही आगे चलकर अवध व बंगाल में नवाब या नवाब वजीर बन गए. लेकिन हैदराबाद के नवाबों ने खुद को निजाम-उल-मुल्क (संक्षेप में निजाम) कहलवाना आरंभ कर दिया और अपने अधीनस्थों को नवाब कहने लगे.
यहां जानना जरूरी है कि नवाब कितने भी शक्तिशाली क्यों न हो जाएं, वे राजाओं की तरह संप्रभु नहीं होते थे और मुगल बादशाह से प्राप्त शक्तियों के बूते ही अपने सूबे का राजकाज चलाते थे. बाद में अवध के नवाबों की विलासिता के किस्से आम हो गए तो लोग अपने आसपास जिसे भी विलासितापूर्ण जीवन शैली बिताते देखते, उस पर तंज करते हुए उसको नवाब कह देते थे.
राजा बनाम नवाब
आम धारणा में राजा और नवाब दोनों एक जैसे या बराबर हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों में कोई बराबरी नहीं है. राजा किसी अन्य के प्रति उत्तरदायी नहीं होते थे, जबकि नवाब मुगल सल्तनत के प्रति जवाबदेह थे.
राजा की उपाधि आनुवंशिक हुआ करती थी, जिसे अर्जित कर चुके राजा उसे अपनी मर्जी से अपने वारिस को प्रदान कर सकते थे. लेकिन नवाब की उपाधि मुगल बादशाह की ओर से भेंट की तरह थी और जिसे दी जाती थी, उसके उनके प्रति वफादार रहने तक के लिए ही होती थी. अपनी वफादारी जताने के लिए उसको हर साल मुगल बादशाह को नजर भेजनी पड़ती थी. इतना ही नहीं, शाही परिवार के सदस्यों के सूबे में आने पर उनकी भरपूर खातिर तवज्जो करनी पडती थी. उसकी विरासत पर अंतिम फैसला भी मुगल बादशाह ही करते थे.
हां, कभी-कभी कोई नवाब बहुत ‘ताकतवर’ हो जाता, तो ‘दिल्ली’ को आंख दिखाने लग जाता था, जिसे लेकर संघर्ष की नौबत भी आती थी.
नवाब बनाम शाह
गाजीउद्दीन हैदर के अवध का नवाब बनने के बाद इन नवाबों को अपवाद के तौर पर बहुत थोड़े समय के लिए संप्रभुता प्राप्त हुई-1818 में, जब अंग्रेजों के इस बहकावे में आकर कि वे किस बात में दिल्ली वालों से कम हैं, गाजीउद्दीन हैदर ने खुद को ‘बादशाह-ए-अवध’ घोषित कर दिया और अपनी अलग मुद्रा का प्रचलन कराने की कोशिश की.
उन्हें बहकाने के पीछे अंग्रेजों का नज़रिया यह था कि दिल्ली व लखनऊ के बादशाहों में ठनी रहेगी तो ब्रिटिश राज के विस्तार का उनका काम आसान हो जाएगा. अवध की ‘नवाबी’ की ‘शाही’ में बदली हुई यह व्यवस्था जैसे-तैसे तब तक चली, जब तक अंग्रेजों ने उसे हड़पकर नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ और निर्वासित नहीं कर दिया. इस बीच में नवाब अपने नाम से पहले ‘नवाब’ और अंत में शाह की उपाधि धारण करते रहे. इसके बावजूद आम लोगों में उन सबकी ‘शाही’ छवि नहीं ही बन पाई, वह ‘नवाबी’ ही रही. यह और बात है कि इसे लेकर दिल्ली व लखनऊ में बार-बार बदमजगी पैदा होती रही.
1857 में पहले स्वतंत्रता संग्राम के वक्त इस बदमजगी को खत्म करने के लिए ही बिरजिस कद्र को महज ‘नवाब’ बनाया गया, ‘शाह’ नहीं.
उद्दौला और उद्दीन
यहां एक और बात काबिल-ए-गौर है. अवध के राजकाज में अंग्रेजों का दखल बढ़ने से पहले तक उसके नवाब ‘उद्दौला’ हुआ करते थे यानी राज्य या देश के रक्षक. मिसाल के तौर पर, शुजाउद्दौला और आसफुद्दौला. उनके काम में उनके धर्म का ज्यादा दखल नहीं हुआ करता था. लेकिन अंग्रेजों के बहकावे में आने के बाद उन्होंने अपनी ‘उद्दीन’ यानी धर्म के रक्षक की पहचान भी आगे करनी शुरू की. गाजीउद्दीन के बाद उनके बेटे नसीरुद्दीन ने भी ‘उद्दीन’ की इस उपाधि को खुद से जोड़े रखा.
दिलचस्प यह कि एक समय इंग्लैंड में उन लोगों को भी नवाब कहा जाता था, जिन्होंने भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते हुए खूब धन कमाया और वापस लौटकर संसद की सीटें खरीदीं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)