यूपी: रेडियोलॉजिस्ट की कमी के चलते पीड़िता के आयु परीक्षण में देरी, हाईकोर्ट ने सरकार को फटकारा

इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस कृष्ण पहल ने एक आदेश में कहा कि रेप समेत विभिन्न अपराधों के पीड़ितों को मेडिको-लीगल रेडियोलॉजिकल जांच में देरी के कारण अनुचित उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है, जो मुख्य रूप से राज्य भर के विभिन्न ज़िलों में रेडियोलॉजिस्ट की ग़ैर-मौजूदगी के चलते है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Allen Allen/Flickr CC BY 2.0)

नई दिल्ली: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य के विभिन्न जिलों में रेडियोलॉजिस्ट की कमी को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार को फटकार लगाई है.

अदालत का कहना है कि मेडिको-लीगल रेडियोलॉजिस्ट परीक्षण में देरी के चलते बलात्कार सहित अन्य अपराध के पीड़ितों को ‘अनुचित उत्पीड़न’ का सामना करना पड़ता है.

मालूम हो कि अदालत की ये नाराज़गी एक ज़मानत याचिका की सुनवाई के दौरान देखने को मिली, जब एक कथित बलात्कार पीड़िता को उसके पैतृक बलिया जिले में रेडियोलॉजिस्ट न होने के चलते आयु निर्धारित करने के लिए जरूरी मेडिकल टेस्ट में देरी का सामना करना पड़ा. इस प्रक्रिया से ये पता लगाया जाना था कि पीड़िता वयस्क हैं या नाबालिग.

हाईकोर्ट ने जिला अस्पतालों में रेडियोलॉजिस्ट उपलब्ध कराने में विफलता के लिए राज्य सरकार की आलोचना करते हुए कहा कि इससे पीड़िता को और अधिक आघात पहुंचा है. ‘इस आपराधिक मामले में लड़की की उम्र इसलिए महत्वपूर्ण थी, क्योंकि लड़की के परिवार ने एक ऐसे व्यक्ति के खिलाफ बलात्कार, अपहरण और गंभीर यौन उत्पीड़न के आरोपों के तहत एफआईआर दर्ज कराई थी, जिसके साथ वह रिश्ते में थी,’ अदालत ने कहा.

अदालत ने जोड़ा कि यह ‘दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रदेश के कई जिलों में कोई रेडियोलॉजिस्ट उपलब्ध नहीं है.

ज्ञात हो कि रेडियोलॉजिस्ट वे डॉक्टर होते हैं जिनके पास बीमारी और चोट के निदान और उपचार के लिए मेडिकल इमेजिंग में विशेषज्ञता होती है.

उक्त मामले में आरोपी की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस कृष्ण पहल ने कहा, ‘इस अदालत ने बार-बार देखा है कि राज्यभर के विभिन्न जिलों में रेडियोलॉजिस्ट उपलब्ध नहीं हैं.’

जस्टिस पहल ने 29 अगस्त के एक आदेश में कहा कि पीड़ितों को उनकी मेडिको-लीगल रेडियोलॉजिकल जांच में देरी के कारण अनुचित उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है, जो मुख्य रूप से राज्य भर के विभिन्न जिलों में रेडियोलॉजिस्ट की अनुपलब्धता के चलते है.

बता दें कि यह मामला 2023 का है, जहां बलिया जिले की एक नाबालिग से बलात्कार, अपहरण और शादी या अवैध संबंध के लिए मजबूर करने के आरोप में एफआईआर दर्ज की गई थी.

इस केस में आरोपी व्यक्ति के खिलाफ यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) की धाराएं भी लगाई गई थीं.

लड़की की मां ने आरोप लगाया था कि आरोपी 16 मार्च, 2023 को उनकी बेटी को बहला-फुसलाकर ले गया और मुंबई के एक मंदिर में उससे शादी कर ली. मां ने दावा किया कि कथित अपराध के समय उनकी बेटी 13 साल की थी.

मामला कोर्ट में आने के बाद जज ने आदेश दिया था कि लड़की की उम्र का पता लगाने के लिए उसका ऑसिफिकेशन टेस्ट कराया जाए. परीक्षण के बाद बलिया के मुख्य चिकित्सा अधिकारी की रिपोर्ट में संकेत मिले हैं कि इस मामले में लड़की उम्र लगभग 19 साल थी, न कि 13 वर्ष, जैसा कि मां ने दावा किया था.

पीड़िता और आरोपी रिश्ते में थे. आरोपी ने अदालत को बताया था कि लड़की अपनी सहमति से उनके साथ गई थी और उनके परिवार के साथ जिंदगी बिताने को तैयार थी.

सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज अपने बयान में लड़की ने भी एक स्थानीय मजिस्ट्रेट को बताया था कि वो अपनी इच्छा से आरोपी के साथ थी. उन्होंने ‘शादी’ की थी, वो दो साल से रिश्ते में थे और एक ‘पत्नी’ की हैसियत से उनके साथ रह रही थी. लड़की का ये भी कहना था कि आरोपी से बात करने को लेकर उनकी मां उन्हें मारती-पीटती थीं.

इस मामले में राज्य सरकार के वकील ने इस आधार पर आरोपी की जमानत का विरोध किया था कि पीड़िता कथित तौर पर नाबालिग थी और इसलिए कानून की नजर में उसकी सहमति पर विचार नहीं किया जा सकता है.

दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस पहल इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लड़की की मां ने ‘जानबूझकर’ उसकी उम्र 13 वर्ष बताई, जो सहमति की उम्र (18) से कम है. इससे मामला पॉक्सो एक्ट के दायरे में आ गया. जस्टिस पहल ने कहा कि इस गलतबयानी के कारण आरोपी को गंभीर कानूनी परिणाम भुगतने पड़े, जहां उसे जेल जाना पड़ा.

अदालत ने आगे कहा कि चूंकि टेस्ट रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि लड़की 19 साल की थी, इसलिए मामले में पॉक्सो लागू करना ‘अनुचित’ है.

मालूम हो कि इस मामले में आरोपी 20 फरवरी, 2024 से जेल में हैं. जस्टिस पहल ने उन्हें जमानत देते हुए कहा कि इस गलत कारावास का उसके जीवन, प्रतिष्ठा और भविष्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है.

यह देखते हुए कि आरोपी को पॉक्सो अधिनियम के ‘दुरुपयोग’ के कारण यह स्थिति झेलनी पड़ी, जस्टिस पहल ने इस बात पर भी जोर दिया कि महिला को पूरे बलिया जिले में रेडियोलॉजिस्ट की अनुपलब्धता के कारण कष्ट का सामना करना पड़ा.

राज्य सरकार ने अदालत को सूचित किया कि पीड़िता को जांच के लिए बलिया से पड़ोसी जिले वाराणसी ले जाया गया था, लेकिन रेडियोलॉजिकल जांच नहीं हुई क्योंकि अदालत का आदेश केवल सीएमओ बलिया द्वारा जांच के थे.

इस पर जस्टिस पहल ने कहा, ‘यह लालफीताशाही वाले रवैये का उत्कृष्ट उदाहरण है.’ इसके बाद लड़की को आज़मगढ़ ले जाया गया जहां एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में टेस्ट किया गया.

सीएमओ बलिया ने एक हलफनामे में अदालत को सूचित किया कि बलिया में केवल एक रेडियोलॉजिस्ट थे, लेकिन हाईकोर्ट द्वारा ऑसिफिकेशन परीक्षण के आदेश के तीन दिन बाद ही 7 जुलाई को उनकी मौत हो गई थी.

चूंकि, बलिया में प्रांतीय चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवा में कोई रेडियोलॉजिस्ट कार्यरत नहीं था, इसलिए पीड़िता की रेडियोलॉजिकल जांच वहां नहीं हो सकी. इस पर जस्टिस पहल ने कहा, ‘मौजूदा मामले की परिस्थितियों ने पीड़िता की परेशानियां कम करने के बजाय और बढ़ा दी हैं, क्योंकि रेडियोलॉजिस्ट की अनुपलब्धता के कारण उसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाया गया है.’

हाईकोर्ट ने इस मामले में सीएमओ वाराणसी और स्वास्थ्य विभाग, आज़मगढ़ के अतिरिक्त निदेशक को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने और लड़की के ऑसिफिकेशन परीक्षण करने में देरी को लेकर सुस्त और गैर-जिम्मेदाराना दृष्टिकोण अपनाने के कारणों को बताने का निर्देश दिया.

अदालत ने उत्तर प्रदेश के महानिदेशक (चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवा) को भी व्यक्तिगत रूप से पेश होने और बलिया में रेडियोलॉजिस्ट की नियुक्ति न किए जाने का कारण बताने का भी आदेश दिया है.

इसके अलावा राज्य के वरिष्ठ अधिकारी को एक हलफनामा दाखिल करने को कहा गया है, जिसमें राज्य के विभिन्न जिलों में नियुक्त रेडियोलॉजिस्ट की संख्या, सरकारी मेडिकल कॉलेजों में रेडियो डायग्नोस्टिक सुविधाएं, राज्यभर में रेडियोलॉजी में डिग्री धारक और डिप्लोमा धारकों की संख्या, उनकी वर्तमान पोस्टिंग और पीएमएचएस कोटे के माध्यम से ऐसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वालों की जानकारी मांगी गई है.

अपने आठ पन्नों के जमानत आदेश में जस्टिस पहल ने ये भी कहा कि हालांकि,पॉक्सो अधिनियम नाबालिगों की सुरक्षा के लिए बनाया गया था, लेकिन उपरोक्त मामले में लड़की की मां द्वारा दी गई ‘झूठी जानकारी’ के कारण ऐसा नजर आता है कि इसका दुरुपयोग किया गया.

जस्टिस पहल ने आगे कहा, ये दुरुपयोग न केवल आवेदक (आरोपी) को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि कानूनी प्रणाली और पॉक्सो अधिनियम की विश्वसनीयता को भी कमजोर करता है. यह स्थिति इस बात का उदाहरण है कि कैसे पॉक्सो अधिनियम जैसे सुरक्षात्मक कानूनों का दुरुपयोग अन्याय का कारण बन सकता है.

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि पॉक्सो अधिनियम का उद्देश्य किशोरों के बीच सहमति से बनाए गए प्रेम संबंधों को कभी भी अपराध घोषित करना नहीं था. जस्टिस पहल के मुताबिक, ‘पॉक्सो अधिनियम 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाया गया था, लेकिन आजकल यह अक्सर उनके शोषण का एक हथियार बन गया है.’

जमानत देने के कारणों की व्याख्या करते हुए अदालत ने तर्क दिया कि प्रेम में बनाए गए सहमति संबंध के तथ्य पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि अगर पीड़िता के बयान को नजरअंदाज कर आरोपी को जेल में प्रताड़ित होने के लिए छोड़ दिया गया तो यह ‘न्याय की विकृति’ होगी.

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