नई दिल्ली: कोरोना महामारी के दौरान पत्रकारों की छंटनी को लेकर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (पीसीआई) की एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसमें कहा गया है कि महामारी के दौरान नौकरी से निकाले गए अधिकांश पत्रकारों को उनके संगठनों द्वारा इस्तीफा देने या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआरएस) का विकल्प चुनने के लिए मजबूर किया गया.
‘कोविड-19 अवधि के दौरान मीडिया समूहों द्वारा पत्रकारों की छंटनी पर रिपोर्ट’ शीर्षक वाली यह रिपोर्ट सितंबर 2023 में गठित समिति के समक्ष पेश हुए अंग्रेजी, हिंदी, मराठी, बंगाली भाषाओं के 17 समाचार संगठनों और 12 पत्रकार संघों के कुल 51 पत्रकारों के बयान लेने के बाद तैयार की गई थी.
रिपोर्ट के मुताबिक, समिति के सामने पेश हुए 80 फीसदी पत्रकारों ने कहा कि उन पर इस्तीफे का दबाव डाला गया, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का विकल्प दिया गया और उनके पद से बर्खास्त कर दिया गया. केवल 37 फीसदी ने कहा कि उन्हें मुआवजा दिया गया.
रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्व पीसीआई सदस्य बलविंदर सिंह जम्मू और स्वतंत्र पत्रकार सिरिल सैम के स्वतंत्र अनुमान के अनुसार लगभग 2,300-2,500 पत्रकारों की कोरोना अवधि में छंटनी हुई है. हालांकि, वास्तविक आंकड़े इससे अधिक होने की संभावना है क्योंकि उनका डेटा मुख्यतः अंग्रेजी भाषा के मीडिया तक ही सीमित है.
नौकरी गंवाने वाले पत्रकारों में से लगभग 80 प्रतिशत तीन प्रमुख संस्थानों से थे. इसमें 19 बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड, 14 हिंदुस्तान टाइम्स मीडिया से और 8 द हिंदू प्रकाशन समूह से थे. समिति के समक्ष गवाही देने वालों में दिल्ली और मुंबई के अंग्रेजी भाषी मीडिया के पत्रकारों की संख्या अधिक थी.
व्यक्तिगत बयानों और ऑनलाइन प्रस्तुतियों के आधार पर तैयार की गई इस रिपोर्ट को पीसीआई ने 5 अगस्त को अपनाया था. सितंबर 2023 में गठित उप-समिति में गुरबीर सिंह, प्रजानंद चौधरी, पी. साईनाथ, स्नेहाशीष सूर, एलसी गुप्ता और सिरिल सैम शामिल थे.
पत्रकारों को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर किया गया
रिपोर्ट के अनुसार, समिति के सामने गवाही देने वाले पत्रकारों में से केवल 25 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें अपनी कंपनियों से छंटनी के बारे में औपचारिक ईमेल मिले थे, जबकि लगभग 75 प्रतिशत मामलों में ये केवल मौखिक था.
प्रत्यक्ष सुनवाई में 80 प्रतिशत पत्रकारों ने दावा किया कि उन्हें ‘इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया’ और उन्हें वेतन कटौती और छंटनी के बारे में पहले से कोई सूचना या औपचारिक संचार नहीं मिला था.
कविता अय्यर, जो वर्तमान में एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम कर रही हैं, उन्हें इंडियन एक्सप्रेस में 18 साल काम करने के बाद 27 जुलाई 2020 को मुंबई ब्यूरो के पद से हटा दिया गया था. रिपोर्ट में उनके सहकर्मियों को भेजे गए एक ईमेल का हवाला दिया गया है जिसे 2020 में अय्यर की अनुमति से सिरिल सैम ने ‘कोविड-19 महामारी के दौरान समाचार मीडिया संगठनों द्वारा छंटनी’ पर अपने शोध के हिस्से के रूप में प्रकाशित किया था.
अय्यर ने कहा कि एक बैठक में उन्हें बताया गया – जिसमें उनसे अपना फोन बाहर छोड़ने को कहा गया – कि उन्हें ‘इस्तीफा देना होगा’ और रिलीविंग लेटर (कार्यमुक्ति पत्र) स्वीकारना होगा या फिर उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाएगा.
अय्यर ने अपने ईमेल में लिखा कि अगर उन्हें इसकी जानकारी पहले से भी होती, तो भी वो नाखुश ही होतीं. लेकिन इस संगठन के प्रति मेरा गर्व और इंसानियत के प्रति संगठन की प्रतिबद्धता बरकरार रहती. उन्होंने आगे कहा कि दुख की बात ये है कि हम सभी अब इंसान कम और वायरस ज़्यादा हो गए हैं.
रिपोर्ट कहती है कि नई दिल्ली, मुंबई और कोलकाता में समिति के सामने पेश हुए लगभग सभी पत्रकारों ने एक समान अनुभव सुनाया.
समाचार संगठनों के नाम लिंक्डइन पर एक खुले पत्र में 3 अगस्त 2020 को आशीष रुखैयार, जिन्हें उसी साल जून में द हिंदू से निकाल दिया गया था, ने कहा था कि पत्रकारों को फोन पर बर्खास्त कर दिया गया और कुछ को कार्यालय में बुलाया गया और उसी समय अपना इस्तीफा सौंपने के लिए कहा गया.
रिपोर्ट में पत्र के हवाले से कहा गया है कि पत्रकारोंं को धमकी दी गई थी कि यदि वे अपना इस्तीफा नहीं देते हैं, तो उन्हें उस भुगतान से वंचित कर दिया जाएगा, जिसके वे कानूनी हकदार हैं.
समिति के समक्ष गवाही देने वालों में से 44 पत्रकारों यानी 80 प्रतिशत ने बताया कि वे आर्थिक रूप से प्रभावित हुए हैं. इसके अलावा, अन्य 34 ने कहा कि उन्हें पारिवारिक बचत का सहारा लेना पड़ा, जबकि 17 को ऋण लेने और 12 पत्रकारों को अपना घर बदलना पड़ा.
बेनेट कोलमैन कंपनी के मुंबई मिरर में काम करने वाले फोटोग्राफर दीपक तुर्भेकर को जनवरी 2021 में एचआर द्वारा एक वॉट्सऐप कॉल पर इस्तीफा देने के लिए कहा गया था और ऐसा न करने पर उन्हें बर्खास्त करने की धमकी दी गई थी. संगठन में 16 साल तक काम करने के बाद भी उन्हें निकाले जाने के बाद केवल एक महीने का वेतन दिया गया था.
नौकरी गंवाने के बाद दीपक को मुंबई में अपना होम लोन चुकाने के लिए अपनी भविष्य निधि बचत का उपयोग करना पड़ा और अपनी बड़ी बेटी की पढ़ाई के लिए अपनी पत्नी के गहने तक बेचने पड़े.
उन्होंने उपसमिति के सामने कहा, ‘मेरे पास फोटोग्राफी के लिए उपकरण खरीदने तक के पैसे नहीं हैं. मैं अब न्यूज फोटोग्राफी नहीं कर रहा हूं क्योंकि इसमें स्थायित्व नहीं है. स्वतंत्र फोटोग्राफरों को प्रति फोटो 100-125 रुपये के बीच भुगतान किया जाता है. मुझे इसमें भविष्य के लिए कोई उम्मीद नहीं दिखती.’
रिपोर्ट बताती है कि कुछ लोग जिन्होंने इस्तीफा देने के लिए मजबूर किए जाने का विरोध किया, उन्हें आखिरकार बर्खास्त कर दिया गया.
मुंबई मिरर में काम करने वाली श्रुति गणपत्ये ने उप-समिति को बताया कि वह उन तीन लोगों में से एक थीं, जिन्होंने संगठन द्वारा जबरन इस्तीफा लेने का विरोध किया था.
तब कंपनी द्वारा छंटनी मुआवजे के रूप में पिछले दो महीनों के लिए केवल मूल वेतन की पेशकश की गई थी.
श्रुति ने बताया, ‘मुंबई मिरर में अपनी नौकरी खोने वाले अनुमानित 100 कर्मचारियों में से मेरे सहित केवल 3 लोगों ने इस्तीफा देने से मना किया था और आखिर में हमें बर्खास्त कर दिया गया. मैंने अधिक मुआवज़े के लिए ईमेल लिखा. हालांकि, कंपनी की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई.’
वित्तीय संघर्ष के अलावा, पत्रकारों ने पैनल से यह भी कहा कि छंटनी के कारण उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर पड़ा है.
रिपोर्ट के अनुसार, इस छंटनी ने समिति के समक्ष गवाही देने वाले 40 (80%) पत्रकारों को भावनात्मक रूप से प्रभावित किया. वहीं, इससे 40 (80%) पत्रकारों के आत्मसम्मान और आत्मविश्वास पर भी असर पड़ा. 30 (60%) पत्रकारों ने अवसाद की सूचना दी और 27 (54%) ने सामाजिक अलगाव का अनुभव किया. विशेषकर वरिष्ठ पत्रकार भावनात्मक रूप से सबसे अधिक प्रभावित हुए. यह व्यक्तिगत सुनवाई में भी देखा गया कि कई वरिष्ठ पत्रकारों ने भावनात्मक उथल-पुथल का अनुभव किया और उनकी आंखों से आंसू तक आ गए.
रिपोर्ट में स्प्ष्ट कहा गया है कि अगर पत्रकारों के पास नौकरी की सुरक्षा नहीं है, तो प्रेस की स्वतंत्रता से समझौता किया जाएगा.
मालूम हो कि पत्रकारों ने महामारी के दौरान अग्रिम मोर्चे पर काम किया था और उन्हें केंद्र सरकार द्वारा आवश्यक कर्मचारियों के रूप में वर्गीकृत किया गया था, लेकिन इसने मीडिया कंपनियों और संगठनों को पत्रकारों की छंटनी करने से नहीं रोका.
समाचार मीडिया को ‘आवश्यक कर्मियों’ की श्रेणी में शामिल करने का तर्क यह था कि समाचार और सूचना का प्रसार विशेष रूप से संकट की अवधि के दौरान बहुत महत्वपूर्ण है जब लोग दैनिक आधार पर बदलती महामारी की स्थिति से निपटने के लिए संघर्ष कर रहे हों और सूचना के अनौपचारिक माध्यमों से फैली अफ़वाहें लोगों की समझ को धूमिल कर रही हों.
हालांकि, इस ‘आवश्यक कर्मचारी’ निर्देश को अधिकांश मीडिया कंपनियों ने नजरअंदाज कर दिया था और उन्होंने केंद्र सरकार के निर्देश के प्रति बहुत कम सम्मान दिखाया. पत्रकारों को अपनी इच्छानुसार नौकरी से निकाल दिया और छंटनी की.
नेटवर्क ऑफ विमेन इन मीडिया, इंडिया द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार, इस अवधि के दौरान भारत के 626 पत्रकारों की काम के दौरान मृत्यु हो गई, क्योंकि कोरोना संक्रमण ने न्यूज़ रूम और पत्रकारों को प्रभावित किया.
रिपोर्ट ने अपनी सिफ़ारिशों में कहा है कि अगर पत्रकारों को नौकरी की सुरक्षा नहीं है तो उसी समय प्रेस की आज़ादी से समझौता हो जाता है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ मीडिया संस्थानों ने महामारी से पनपे वित्तीय संकट का इस्तेमाल छंटनी करने के बहाने के रूप में किया.
इस संबंध में, समिति ने अपनी सिफारिशों में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय और कानून एवं न्याय मंत्रालय से पत्रकारों के लिए कुछ अनिवार्य खंडों के साथ एक मॉडल अनुबंध शुरू करने का आग्रह किया है, जिसमें सेवा का न्यूनतम कार्यकाल निर्धारित किया जाए. इसके साथ ही पीएफ, ग्रेच्युटी, ईएसआई देने का प्रावधान, छुट्टी का प्रावधान, वेतन में वार्षिक वृद्धि आदि के भी प्रावधान निर्धारित करने के लिए कहा गया है.
इसमें यह भी सिफारिश की गई है कि पत्रकारों को प्राकृतिक आपदाओं या वैश्विक महामारी जैसी घटनाओं के खिलाफ बीमा प्रदान किया जाए, लंबित श्रम विवादों को तेजी से निपटाया जाए, मुआवजे और लाभों तक आसान पहुंच प्रदान की जाए, जिनसे वे पत्रकार वंचित हैं जो सरकार से ‘मान्यता प्राप्त’ नहीं हैं. पत्रकारों के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए भी कदम उठाने की बात कही गई है.
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