ऐसा लगता है कि गत 31 अगस्त को प्रकाशित ‘कौन राजा, कौन सम्राट, कौन छत्रपति, कौन चक्रवर्ती और कौन नवाब?’ शीर्षक वाली टिप्पणी ने ‘द वायर हिंदी’ के कई पाठकों को प्रश्नाकुल कर डाला है. तभी उनमें से एक ने तुर्शी से भरकर पूछा है कि ‘रानियों के पेट से पैदा होने वाले’ और ‘इतिहास में समा चुके’ राजाओं व सम्राटों वगैरह के बारे में इतनी शिद्दत से बताया तो (बकौल रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया) ईवीएमों से पैदा हो रहे ‘जनप्रतिनिधियों’ की बाबत कुछ क्यों नहीं लिखा, जबकि उनकी करनी से हमारा वर्तमान सत्तातंत्र भी लोकतंत्र का लबादा ओढे़ राजतंत्र जैसा ही दिखता है.
क्या यह बताने लायक बात न थी कि कैसे ये ‘जनप्रतिनिधि’ कई मायनों में राजाओं की निरंकुशता को भी मात करते और अपनी प्रजा (माफ कीजिएगा, मतदाताओं) को उनसे ज्यादा सताते आ रहे हैं या क्योंकर जहां एक ओर ये ‘जनप्रतिनिधि’ लगातार अमीर और अमीर होते जा रहे हैं, वहीं जिनकी सेवा का वे दम भरते हैं, उनकी गरीबी तक विवादास्पद हो चली है?
एक अन्य पाठक को हैरत है कि इस लेखक ने उक्त टिप्पणी में राजा और रंक का चोली-दामन का साथ भी भुला दिया! नहीं बताया कि राजा थे तो बहुत से रंक भी थे, एक-एक राजा पर लाखों-लाखों और सबकी नियति ‘भेड़ जहां भी जाएगी मूंड़ी जाएगी’ वाली थी. तभी तो जहां राजा अपने महल-दुमहले और अट्टालिकाएं वगैरह खड़ी करते जाते थे, रंक अपने पांवों पर खड़े रहने की ताब भी मुश्किल से बचा पाते थे, क्योंकि विपदाएं किसी भी तरफ से आएं, पहले उन्हीं का शिकार किया करती थीं.
इनमें पहले पाठक से तो कहा जा सकता है कि ‘द वायर’ उक्त ‘जनप्रतिनिधियों’ के बारे में कुछ कम बात नहीं करता. इसके उलट उसकी सामग्री का बडा हिस्सा उनकी पोल खोलने और पाठकों को आगाह करने के उद्देश्य को ही समर्पित होता है. अलबत्ता, इस लेखक की उक्त टिप्पणी में राजाओं वगैरह के साथ उनसे पीड़ित होने वालों की चर्चा भी अपेक्षित थी, जिनमें सबसे बड़ा हिस्सा रंकों का है और यह अध्ययन बहुत दिलचस्प हो सकता है कि किसी राजा के राज को निष्कंटक बनाने या बनाए रखने के लिए उसकी कितनी प्रजा को रंक बनाए रखना पड़ता है ताकि वह आज्ञाकारी बनी रहे और सिर उठाने की न सोचे.
राजा का विलोम
आइए, आज इस अपेक्षा को पूरा करते हुए अवध के एक लोक कवि की इस मान्यता से बात शुरू करें कि देश में सच्चा लोकतंत्र स्थापित हो पाया होता तो अब तक ‘हर तरह की’ नहीं तो ‘हर संभव’ बराबरी तो आ ही गई होती और वह इतनी तो होती ही कि कोई भूलकर भी राजा और रंक की कहानियां नहीं कहता. लेकिन अफसोस कि इसके उलट गैरबराबरी रक्तबीज हुई जा रही है और गुलामी के नये-नये रूपों के साथ नये-नये ‘राजा’ व ‘रंक’ पैदा कर रही है.
पुराने शब्दकोशों में रंक के निर्धन, गरीब, दीन और कंगाल से लेकर निःस्व, कंजूस, आलसी व काहिल तक अनेक अर्थ दिए गए हैं. यहां तक कि दरिद्रता को भी उसी का समानार्थी बताया गया है. संस्कृत शब्दकोश ‘शब्दकल्पद्रुमः’ में भी निर्धन, दीन, निःस्व, दरिद्र व रंक को एक ही तराजू पर तौला गया है. लेकिन हम जानते हैं कि भाषाओं की लंबी यात्रा में शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं. इस लिहाज से अब दरिद्र की अर्थध्वनि रंक से बहुत अलग हो चली है.
जहां रंक के अर्थ में उसके अपनी राज व समाज व्यवस्था से पीड़ित होकर निःस्व होने की बात निहित है, दरिद्र के बारे में मान्यता है कि उसकी स्थिति उसकी अकर्मण्यता या तृष्णा की पैदा की हुई है. इसलिए रंक कहने के प्रति जहां सहानुभूति का भाव पैदा होता है, दरिद्र के प्रति यह कि ‘वह उसी दुर्दशा के लायक है.’
कहते हैं कि शायद इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने अपने ‘रामचरितमानस’ में रामराज्य का बखान करते हुए ‘नहिं कोउ दुःखी न दारिद दीना’ वाली पंक्ति लिखी तो सिर्फ दारिद लिखकर नहीं रह गए, दीन भी लिखा, क्योकि रंक दीन के ज्यादा निकट था.
बहरहाल, मोटे तौर पर रंक और राजा एक दूजे के विलोम हैं- सर्वथा विलोम. राजा ऐश्वर्य और प्रभुत्व से अति की सीमा तक मंडित होता है तो रंक इन दोनों से अति की हद तक वंचित. लेकिन उसे ‘फकीर’ नहीं कह सकते क्योंकि फकीर जहां ऐश्वर्य व प्रभुता को ठेंगे पर मारकर खुद को उनसे निरपेक्ष या बेपरवाह कर लेता है (बकौल नजीर अकबराबादी: बे-जरी फाकाकशी मुफलिसी बे-सामानी, हम फकीरों के भी हां कुछ नहीं और सब कुछ है), रंक अपनी बेबसी के दंश झेलता रहता है.
दरिद्र कौन?
दूसरी ओर श्रीमद्भागवत के अनुसार दरिद्र वह है जो असंतुष्ट है और जिसे बहुत अधिक की तृष्णा या चाह है. अन्यथा मन के संतुष्ट होने पर कौन धनी है और कौन गरीब? कई दार्शनिक व्याख्याकार उसे भी दरिद्र कहते हैं, जिसे देव, द्विज, गुरु व ज्येष्ठ का आशीर्वाद प्राप्त नहीं हो. क्योंकि उनके अनुसार यह आशीर्वाद जीवन के लिए आवश्यक है. कई बार वे दरिद्रता को दरिद्र के दुर्भाग्य से भी जोड़ते हैं. धन को जीवन के लिए आवश्यक मानने वाले कई बार धन की कमी को भी दरिद्रता की ही तरह परिभााषित कर डालते हैं, लेकिन उनके पास इस सवाल का जवाब नहीं होता कि तब हम बच्चों को दरिद्र क्यों नहीं कहते? उनके पास तो धन एकदम से नहीं होता. हो जाने की उम्मीद भले होती है लेकिन हो जाता है तो वे बच्चे नहीं रह जाते. कई ग्रंथों में आलस्य, अज्ञान या अहंकार के वशीभूत होकर अनावश्यक कर्म करने वाला भी दरिद्र कहा गया है.
यहां एक और विडंबना से वाकिफ हो लेना चाहिए. भारतीय व्याख्याकारों ने जितना समय और श्रम ‘दरिद्र’ पर खर्च किया है, ‘रंक’ पर नहीं किया. उनमें कोई कहता है कि जिसे जितनी ज्यादा आवश्यकताएं दिखाई देती हैं, वह उतना ही दरिद्र है और जिसे जितनी कम आवश्यकताएं दिखाई देती हैं वह उतना ही संपन्न, जबकि कोई और कहता है कि दरअसल दरिद्र वह है जिसके पास न धन है, न कर्म है, न वचन. दरिद्र की एक व्याख्या यह भी है कि जिसे दिन में एक वक्त का भोजन मिल पाए- वह भी बहुत प्रयत्न करने पर- वह भी दरिद्र है. वह भी, जो हर समय दूसरों से कुछ न कुछ मांगता रहता है.
सर्वहारा का पर्याय!
लेकिन रंक के बारे में इस साधारण सवाल का भी कि क्या वह ‘सर्वहारा’ का पर्याय है, दो टूक उत्तर नहीं मिलता. भले ही उसके निःस्व व कंगाल जैसे पर्याय उसे सर्वहारा के ही निकट पहुंचाते हैं. उसको वैसे वर्गीय अर्थ में शायद ही कभी परिभाषित किया गया हो, जैसा कार्ल मार्क्स ने सर्वहारा को परिभाषित किया है. कार्ल मार्क्स के यहां सर्वहारा ऐसा सामाजिक वर्ग है, उत्पादन के साधनों (कारखाने, मशीनें, भूमि, खदानें, भवन, वाहन) पर जिसका स्वामित्व नहीं होता तथा जिसके जीवन निर्वाह का एकमात्र साधन मजदूरी या वेतन के लिए अपनी श्रम शक्ति को बेचना होता है.
हां, रंक सर्वहारा हो या नहीं, ‘दिवालिया’ कतई नहीं है. क्योंकि दिवालिया कानून का शब्द है और कानूनन दिवालिया वह होता है जो कानूनी रूप से घोषित करता है कि वह अपने द्वारा लिए गए ऋण को चुकाने में असमर्थ है. इसके बाद सरकार उसकी सारी संपत्ति अपने कब्जे में ले लेती है और नीलाम कर उससे प्राप्त धन से उसकी देनदारियां चुकाने के उपक्रम करती है. रंक के पास न ऐसी संपत्ति होती है, न ही खुद को असमर्थ घोषित करने की सहूलियत. इसलिए उसके त्रास की फांस दिवालिया से ज्यादा गहरी है. हां, मुफलिस से भी गहरी.
रेख्ता डिक्शनरी के अनुसार, मुफलिस का अर्थ अभावग्रस्त, दरिद्र और गरीब तो होता ही है, दिवालिया भी होता है. लेकिन मुफलिस कहने से गरीबी व गिरानी के उस चरम का बोध नहीं होता जो रंक से होता है. मुफलिस कम से कम सपनों और उम्मीदों के लिहाज से नि:स्व नहीं होते, मिसाल के तौर पर- मुफलिसी थी और हम थे घर के इकलौते चिराग, वरना ऐसी रोशनी करते कि दुनिया देखती!.. और.. मुफलिसी को बचपन से ही इस इम्तिहान को झेलना है, मां कहती है खिलौने बेचने हैं और मन कहता है खेलना है.
जहां तक गरीबी की बात है, वह आम तौर पर एक ऐसी स्थिति है जिसके शिकार व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के पास जीने के लिए आवश्यक बुनियादी चीजें नहीं होतीं या वे इतनी कमाई नहीं कर पाते कि रहने के लिए अच्छी जगह, साफ पानी, संतुलित व स्वास्थ्यप्रद भोजन या चिकित्सा देखभाल जैसी अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सकें. जबकि, रंक के साथ गरीबी से पैदा हुई ‘कंगाली में आटा गीला’ वाली गिरानी से भरी भीषण असहायता भी जुड़ी होती है.
और अंत में, एक असुविधाजनक सवाल: हम अपने लोकतंत्र को कब तक इतना दरिद्र बनाए रखेंगे कि लोगों को राजा व रंक की कहानियां सताती रहें और वे उन्हें भूलना भी चाहें तो न भूल पाएं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)