हिंदी दिवस परिचर्चा: ‘सेलेब्रिटी एंकर’ और वायरल वीडियो के चंगुल में फंसी हिंदी पत्रकारिता?

पिछले वर्षों में हिंदी पत्रकारिता अमूमन यूट्यूब और वायरल वीडियो तक सिमट गई है. ज़मीनी पत्रकार की जगह 'सेलेब्रिटी एंकर' ने ली है. क्या यूट्यूब के भड़काऊ मोनोलॉग खोजी पत्रकारिता का गला घोंट रहे हैं? हिंदी के प्रख्यात नाम वीडियो तक क्यों सिमट गए हैं? उन्होंने गद्य का रास्ता क्यों त्याग दिया है? इस विषय पर द वायर हिंदी की परिचर्चा.

(इलस्ट्रेशन: द वायर)

नई दिल्लीः पिछले वर्षों में हिंदी पत्रकारिता अमूमन यूट्यूब और वायरल वीडियो तक सिमट गई है. ज़मीनी पत्रकार की जगह ‘सेलेब्रिटी एंकर’ ने ली है. ख़बरों के उपभोक्ता सारी जानकारी वीडियो से ले लेना चाहते हैं. वीडियो पैसा और नाम कमाने का आसान जरिया है, लेकिन क्या यूट्यूब के भड़काऊ मोनोलॉग (एकालाप) खोजी और गद्य पत्रकारिता का गला घोंट रहे हैं?

गौरतलब है कि आप इसके लिए नई तकनीक को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते. आज भी अंग्रेजी की गद्य और खोजी पत्रकारिता का सम्मान है, उसका वृहद पाठक-वर्ग भी है. अंग्रेजी के बेशुमार पत्रकार बेहतरीन गद्य से अपनी ख़बरें लिखते हैं, और उन्हें इसके लिए तमाम पुरस्कार मिलते हैं. लेकिन हिंदी के प्रख्यात नाम वीडियो तक क्यों सिमट गए हैं? उन्होंने गद्य का रास्ता क्यों त्याग दिया है? क्या वीडियो की बहुतायत की वजह से पाठक अब हिंदी पत्रकारों की विश्वसनीयता पर संदेह करने लगे हैं?  

इस विषय पर द वायर हिंदी ने कई पत्रकारों और अध्येताओं के सामने कुछ प्रश्न रखे हैं.  

अपूर्वानंद, प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय  

अपूर्वानंद (फोटो साभार: द वायर)

यूट्यूब, एक्स और इंस्टाग्राम पर हो रही पत्रकारिता को किस तरह देखते हैं? यह पारंपरिक गद्य पत्रकारिता से कैसे अलग है? 

इस तरह की पत्रकारिता एक व्यक्तिगत प्रयास है, और उसका कोई सांस्थानिक सहयोग नहीं है. यही उसकी अपने आप में बहुत बड़ी सीमा है. पत्रकारिता की बुनियाद ही रिपोर्टिंग है, और रिपोर्टिंग सिर्फ एक पत्रकार नहीं करता, उसके साथ संपादक और बाकी सहयोगी भी जुड़े हुए होते हैं. इस पत्रकारिता की निगरानी होती है. लेकिन इस तरह की पत्रकारिता में रिपोर्टिंग की गुंजाइश बहुत कम है. कहा जाता है कि अगर आपके पास मोबाइल फोन है, तो आप रिपोर्टिंग कर सकते हैं, लेकिन कि क्या हर कुछ जो दिखलाया जा रहा है, वह रिपोर्ट है? यह तय कौन करेगा? यह काम संपादक का होता था. लेकिन इस तरह की पत्रकारिता में एक व्यक्ति रिपोर्टर भी है और एडिटर भी है. 

सोशल मीडिया पत्रकारिता को पत्रकारिता कहना ही गलत है. क्योंकि पत्रकारिता कहलाने के लिए इन सभी स्तर का होना जरूरी है. यह सही है कि सोशल मीडिया से हमें बहुत तरह के तथ्य मिल जाते हैं, लेकिन मैं उसे पत्रकारिता नहीं मानता. 

सोशल मीडिया की पत्रकारिता दर्शकों के लाइक और रिट्वीट से किस तरह निर्धारित होती है?

पत्रकारिता का सबसे बड़ा पैमाना यह था कि वह इस बात का ख्याल नहींं रखेगी कि उसको पसंद करने वाले एक ही तरह के लोग हों. लेकिन सोशल मीडिया पर ‘रीच’ की चाह में यह रेखा धूमिल हो गई है. पत्रकार अब एक वर्ग या पक्ष के दर्शकों के अनुसार खबरें बनाते या दिखाते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा रीच मिल सके. पत्रकारिता के साथ यह बहुत बड़ी दुर्घटना है. अब लोग यह कह सकते हैं कि यह इस पत्रकार की जनता (दर्शक) है, यह उस पत्रकार की जनता है. 

सोशल मीडिया ने पत्रकारिता को किस तरह प्रभावित किया है ?

जो पत्रकारिता का बोध है, कि यह चीज़ अपने आप में पत्रकारिता है, वह खत्म हो रही है. किसे पत्रकारिता कहते हैं, जब इसका बोध ही समाप्त हो जाए, यह अपने आप में सबसे बड़ी दुर्घटना है.

पत्रकार वायरल वीडियो और मोनोलॉग की ओर क्यों मुड़ गए हैं?

पत्रकारिता के प्लेटफॉर्म सीमित हैं. सोशल मीडिया के पत्रकार वायरल वीडियो और मोनोलॉग के जरिये उन कमियों को भर रहे हैं. 

यह सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं कि हिंदी पत्रकारिता नए जमाने के डिजिटल प्लेटफॉर्म अपनाते हुए पत्रकारिता की विश्वसनीयता बनाए रखे? 

जब तक पत्रकारिता राजनीतिक रुझानों से इतर नहींं होती, तब तक विश्वसनीयता संदेह के घेरे में रहेगी. अपने से भिन्न राजनीतिक रुझान रखने वाले पत्रकार की रिपोर्ट को जनता सच मानेगी ही नहींं.

पहले लोग समझते थे कि पत्रकार जो लिखते हैं, वह गलत नहीं है, लेकिन अब लोगों को लगता है कि यह पत्रकार इस तरफ हैं, और यह उस तरफ. इस कारण लोगों का पत्रकारों के ऊपर से विश्वास ख़त्म हो गया है. और यह विश्वास खत्म किया है समाचार चैनलों ने. इसका प्रभाव उन पर पड़ता है, जो सही मायने में रिपोर्टिंग करना चाहते हैं. 

जब तक हम पक्ष चुनने वाली पत्रकारिता से इतर नहीं होंगे, तब तक यह स्थिति नहीं बदलेगी. 

डिजिटल मीडिया पर हिंदी गद्य पत्रकारिता के पाठकों की संख्या अंग्रेजी पाठकों की तुलना में काफी कम क्यों है?

मुझे लगता है कि पाठकों की हिंदी पढ़ने की आदत ख़त्म हो गई है. हिंदी में लोग देख ज्यादा रहे हैं, लेकिन पढ़ कम रहे हैं. हिंदी में लोग समाचार के लिए वीडियो देखना पसंद करते हैं. यही कारण है कि हिंदी भाषा में डिजिटल पत्रकारिता वीडियो रिपोर्ट्स तक सिमटती जा रही है. 

अगर किसी की रिपोर्ट अनुवाद कर अंग्रेजी में छापी जाए, तब उसके पाठक कई गुना बढ़ जाते हैं. इससे यह पता चलता है कि विश्वसनीयता नहीं कम हुई है, लोगों की हिंदी पढ़ने की आदत ख़त्म हो रही है. यह हिंदी की समस्या है कि उसके पाठक क्यों घट रहे हैं, रिपोर्ट की विश्वसनीयता का मसला नहीं है.

मीना कोटवाल, संस्थापक, मूकनायक  

मीना कोटवाल (फोटो साभार: स्पेशल अरेंजमेंट)

यूट्यूब पत्रकारिता को किस तरह देखती हैं?

यूट्यूब पर इन्फ्लुएंसर द्वारा की जा रही पत्रकारिता से कोई बदलाव नहीं आता क्योंकि वे लोगों के पास नहीं जाते, उनके मुद्दे नहीं सुनते, बस एक कमरे में बैठकर ख़बरें पढ़ देते हैं. कोई भी बदलाव लाने के लिए लोगों के पास जाना, उनके मुद्दे को उठाना जरूरी है. कमरे में बैठकर ज्ञान देने को पत्रकारिता नहीं कहेंगे. 

परंपरागत हिंदी पत्रकारिता के ढलान की क्या वजह है ? 

सबसे बड़ा कारण यह है कि उसने अपनी विश्वसनीयता खोई है. परंपरागत पत्रकारिता के जो प्लेटफॉर्म हैं, वे या तो सरकार के पक्ष में या झूठी या एकतरफ़ा खबरें दिखाते हैं. जो सच में पत्रकारिता करना चाहता है वह कर नहीं पा रहा है. उसके ऊपर कई तरह की पाबंदियां लगा दी जातीं हैं, और उन्हें परंपरागत पत्रकारिता का प्लेटफॉर्म नहीं मिल पाता जिसके बाद वह वीडियो का रुख करते हैं.  

सोशल मीडिया पत्रकारिता की गुणवत्ता पर क्या राय रखती हैं?

सोशल मीडिया पर रीच, लाइक्स और रिट्वीट के लिए पत्रकारिता की गुणवत्ता से समझौता किया जाता है. ऐसा नहीं है कि अगर किसी रिपोर्ट को ज्यादा रीच मिलती है, तो वह रिपोर्ट अच्छी है, और जिसको ज्यादा रीच नहीं मिली वह अच्छी नहीं है. लेकिन जिस तरह की ख़बरें ज्यादा दूर तक पहुंचती हैं, लोग उसी तरह की ख़बरें करना चाहते हैं. 

इसलिए मजबूरन भी वह करना पड़ना है कि ख़बर ज्यादा लोगों तक पहुंच सके, जैसे इंस्टा रील या यूट्यूब शॉर्ट्स. रील के जरिये खबरें दिखाना मजबूरी हो गई है. 

लेकिन सोशल मीडिया पत्रकारिता के लिए फ़ायदेमंद रहा है. पहले ख़बरें आसानी से सभी लोगों तक नहीं पहुंच पाती थी, सोशल मीडिया से ख़बरें ज्यादा लोगों तक पहुंच रही हैं. पहले जब लोगों को अपने मुद्दे उठाने होते थे, उन्हें इंतज़ार करना पड़ता था कि कोई उनके पास कैमरा और माइक लेकर आएगा, तब उनके मुद्दे सुने जा सकते हैं. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब सोशल मीडिया के जरिये हर कोई खुद ही अपनी परेशानी लोगों और सरकार तक पहुंचा सकता है. 

आज अगर किसी व्यक्ति के पास स्मार्टफोन है, और उसको भाषा की जानकारी नहीं भी है, फिर भी उसके द्वारा एक वीडियो बना कर डालने मात्र से सरकार गिर सकती है. ये सोशल मीडिया पर हो रही वीडियो पत्रकारिता के फायदे हैं. 

हिंदी पत्रकार को क्या भेदभाव झेलना पड़ता है ?

हिंदी दिवस के दिन हिंदी पत्रकारिता के बारे में बात करने से कुछ नहीं होगा. हिंदी पत्रकारिता और पत्रकारों के साथ हमेशा ही दोयम दर्जे का व्यवहार हुआ है. हिंदी पत्रकारों का वेतन भी अंग्रेजी पत्रकारों के मुकाबले काफी कम है. हिंदी भाषा का पत्रकार जिस तरह का भेदभाव झेलता है, उसे बस वह ही समझता है. 

मनोज सिंह, स्वतंत्र पत्रकार 

मनोज सिंह (फोटो साभार: स्पेशल अरेंजमेंट)

यूट्यूब, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर हो रही पत्रकारिता को किस तरह देखते हैं ? 

सोशल मीडिया पर हो रही पत्रकारिता को केवल नकारात्मक नजरिये से देखना गलत होगा. इसने मुख्यधारा की मीडिया द्वारा खाली की गई जगह को भरने का प्रयास किया है.  मुख्यधारा का मीडिया जैसे-जैसे बड़ी पूंजी और सत्ता की मुखापेक्षी होता गया, लोग उससे नाउम्मीद होने लगे और विकल्प की तलाश करने लगे. सोशल मीडिया ने उन्हें एक वैकल्पिक प्लेटफॉर्म मुहैया कराया. 

सोशल मीडिया की पत्रकारिता पारंपरिक गद्य पत्रकारिता से एकदम अलग है और इसने अपनी अलग भाषा व रूप भी विकसित किया है. सांस्थानिक पत्रकारिता के विकल्प की खोज नई नहीं है. पहले भी सांस्थानिक पत्रकारिता के बरक्स वैकल्पिक पत्रकारिता का आंदोलन खड़ा करने की कोशिश हुई और तमाम पत्रिकाओं ने यह काम बखूबी किया. संसाधनों की कमी और प्रसार की समस्या ने इस आंदोलन को आगे नहीं बढ़ने दिया लेकिन डिजिटल प्लेटफॉर्म ने प्रसार की समस्या का अंत कर दिया है. डिजिटल माध्यम से पाठकों-दर्शकों तक पहुंचना आसान हो गया है.  

क्या सोशल मीडिया पारंपरिक पत्रकारिता के मानकों को कमजोर कर रही है ?

पत्रकारिता के मानकों के आधार पर विश्लेषण करने के लिए सोशल मीडिया पत्रकारिता को कई खानों में बांटकर देखना होगा. तमाम प्लेटफॉर्म पत्रकारिता के मानदंडों का पालन करते हुए पत्रकारिता कर रहे हैं, जबकि एक बड़े वर्ग का इन मानकों से कोई लेना देना नहीं है. सनसनी, फूहड़ मनोरंजन, एजेंडा और प्रोपगैंडा ही उनका उद्देश्य है.

वैकल्पिक मीडिया /जन मीडिया के लिए काम करने वाले कई समूह भी प्रतिबद्धता व मानकों के पालन पर पर्याप्त जोर नहीं दे रहे. मिथ्या प्रचार का मुकाबला कच्ची सामग्री से नहीं किया जा सकता. इसलिए वैकल्पिक मीडिया की साख का नुकसान हो रहा है.

डिजिटल पत्रकारिता अमूमन वायरल वीडियो, एंकर के मोनोलॉग या वीडियो इंटरव्यू तक क्यों सिमट गए हैं? 

सोशल मीडिया का बड़ा हिस्सा भेड़चाल का शिकार है. वायरल वीडियो, विश्लेषण के नाम पर एकालाप, इंटरव्यू, बेसिर पैर की कहानियां और हर घटना पर सबसे जल्दी टिप्पणी या बहस करने की प्रवृत्ति प्रमुख है. अधिकतर प्लेटफॉर्म पर एक ही तरह का कंटेंट दिखाई देता है. एक तरह की सूचना, वीडियो का पुनरुत्पादन होता रहता है. 

सोशल मीडिया का शोर इतना ज्यादा है कि गंभीर पत्रकारिता एक कोने में दुबकी दिखाई देती है. देश-समाज के मुद्दे पर एक-आध अच्छी खबर को छोड़ दें, तो बाकी मुद्दे चर्चा का विषय ही नहीं बन पाते. देश-समाज के लिए जरूरी प्रश्नों पर पत्रकारिता न होना हमेशा राजसत्ता के लिए अनुकूल होता है. इस तरह संस्थानिक पत्रकारिता के विकल्प के बतौर सामने आई सोशल मीडिया पत्रकारिता बहुधा गैर जिम्मेदार नजर आती है. 

इसका प्रमुख कारण सोशल मीडिया की प्रकृति है. सोशल मीडिया व्यू और लाइक पर आधारित प्लेटफॉर्म है. यहां पर बनाए गए कटेंट की सफलता ‘वायरल’ होना है. व्यू व लाइक पर आता रेवन्यू भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है. तमाम पत्रकार और डिजिटल क्रियेटर्स इसी तरह अच्छा पैसा बना रहे हैं. उन्हें कुछ और करने की जरूरत नहीं है. पूरे दिन उन्हें वायरल वीडियो की तलाश रहती है.    

यूट्यूब इन्फ्लुएंसर के उदय ने समाचार की गहराई और गुणवत्ता पर क्या प्रभाव डाला है?

समाचार की गहराई और गुणवत्ता से समझौता प्रिंट व टेलविजन पत्रकारिता के दौर से ही शुरू हो गया था. प्रिंट मीडिया में डेढ़ दशक पहले से डेढ़ सौ से ढाई सौ शब्दों में समाचार लिखे जाने को यह कह कर प्रोत्साहित किया जाने लगा कि पाठकों के पास पढ़ने का समय नहीं है. समाचार कैप्सूल के रूप में दिए जाने लगे.

लेकिन इसी दौर में कई यूट्यूब इन्फ्लुएंसर समाचारों का बहुत गहराई, रोचक और प्रभावशाली तरीके से विश्लेषण कर रहे हैं और उन्हें काफी लोकप्रियता भी मिली है. हालांकि यह अपवाद ही है. सामान्य प्रवृति हड़बड़ी, उथलापन ही है.  

यूट्यूब इन्फ्लुएंसर दर्ज हो चुकी घटनाओं पर टिप्पणी करते हैं, लाखों व्यूज़ बटोरते हैं, जबकि जमीनी पत्रकार कई गुना अधिक मेहनत कर भी गुमनाम रहे आते हैं.

इस माध्यम में काम कर रहे लोगों या समूहों की सबसे बड़ी कमजोरी यही है. दूर-दराज की खबरों को सामने लाने के बजाय घटनाओं के वीडियो को अपनी सनसनीखेज टिप्पणी के साथ आगे बढ़ाते हैं. खोजी पत्रकारिता के लिए यह सर्वाधिक संकट का समय है. खोजी पत्रकारिता, सांस्थानिक पत्रकारिता से लेकर डिजिटल पत्रकारिता में अनुपस्थित है. खोजी पत्रकारिता के लिए जो श्रम-साध्य कोशिश होनी चाहिए, उसके लिए किसी के पास प्रतिबद्धता व संसाधन नहीं है.

साथ ही खोजी पत्रकारिता के खतरे भी कोई नहीं उठाना चाहता. खोजी पत्रकारिता सत्ता, कॉरपोरेट, व वर्चस्वशाली समूहों को बेनकाब करती है. इसलिए वे खोजी पत्रकारिता करने वाले संस्थानों व पत्रकरों को निशाना बनाते हैं. खोजी पत्रकारिता की इस स्थिति के लिए मीडिया का आर्थिक मॉडल जिम्मेदार है. विज्ञापन और कॉरपोरेट आधारित मॉडल पत्रकारिता के लिए विफल साबित हुआ है. कुछ डिजिटल मीडिया ने सीधे पाठकों-दर्शकों से सदस्यता-सहायता का मॉडल अपनाया है जो एक हद तक कारगर है. 

 तंज़ील आसिफ, संस्थापक, मैं मीडिया

तंज़ील आसिफ (फोटो साभार: स्पेशल अरेंजमेंट)

सोशल मीडिया पर हो रही पत्रकारिता को किस तरह देखते हैं ?

इसे हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते. यहां यह समझने की ज़रूरत है कि आम लोग सोशल मीडिया पर न्यूज़ कंज्यूम कर रहे हैं, युवा वर्ग तो इंस्टाग्राम पर काफ़ी वक़्त बिता रहा है. ऐसे में अगर आपको दर्शकों तक पहुंचना है, उन्हें प्रभावित करना है, तो सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना ही पड़ेगा. 

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इससे पत्रकारिता की गहराई और गुणवत्ता से समझौता हुआ है, लेकिन इससे लड़ने का रास्ता भी यही है कि अच्छी पत्रकारिता करने वाले लोग इन प्लेटफॉर्म्स पर अपनी सक्रियता बढ़ाएं. 

डिजिटल माध्यम और खोजी पत्रकारिता? 

मैं इस बात से बिलकुल सहमत नहीं हूं कि यूट्यूब पर खोजी पत्रकारिता नहीं हो रही है. कई ऐसे संस्थान हैं जो यूट्यूब, यहां तक कि इंस्टाग्राम पर भी बेहतरीन काम कर रहे हैं. हां, टीवी के कई वरिष्ठ पत्रकार ग्राउंड रिपोर्ट के बजाय मोनोलॉग कर रहे हैं. इसकी वजह यही है कि बंद कमरे में मोनोलॉग बना कर उन्हें ज़्यादा व्यूज़ मिल जा रहे हैं, जिससे उनकी ज़्यादा कमाई हो जाती है. इस वजह से वे ज़मीन पर मेहनत नहीं करना चाहते हैं.

यह युवा पत्रकारों के लिए ग़लत उदाहरण बन रहा है. उन्हें लग रहा है मोनोलॉग ही सही पत्रकारिता है. अच्छे पत्रकारों को ज़मीन पर उतर कर ग्राउंड रिपोर्ट करना पड़ेगा.